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________________ २२४ भनेकान्त [पौष, वीर निर्वाण सं०२४६६ को अशरण समझकर और किसी भी अलौकिक शक्ति की पूजा बंदनासे बिल्कुल ही विलक्षण है । का भय न कर एक मात्र अपने ही कर्मों के ठीक रखने लोकमें भिन्न २ परिस्थितियोंके कारण समय २ की कोशिशमें लगे रहो, यही एकमात्र तुम्हारा कर्तव्य पर तरह २ की विलक्षण रीतियाँ जारी होती हैं, जैसे है। रागद्वेष ही एक मात्र जीवके शत्रु हैं, ये ही उसके कि आजकल हिन्दुस्थानमें स्वदेशी वस्तुओंके ग्रहण विभाव भाव हैं जिनसे इसको दुख होता है और संसार और विदेशी वस्तुओंके त्याग और विशेष कर हाथके में भ्रमण करना पड़ रहा है । जितना २ भी कोई जीव कते सूतसे हाथसे बने हुए ही वस्त्र पहनने का भारी प्रा. रागद्वेषको कम करता है उतना २ ही उसको सुख न्दोलन हो रहा है । होते २ ऐसी ऐसी रीतियाँ हो बहुत मिलता है और बिल्कुल ही राग द्वेष दूर होने पर समय तक जारी रहने पर विचार शन्य लोगोंके वास्ते उसका सारा विभाव भाव दूर होकर उसका असली धर्मका अंग बनजाती हैं और उनकी ज़रूरत न रहने स्वभाव प्रकट होजाता है और परमानन्द प्राप्त होजाता पर भी, यहाँ तक की हानिकर हो जाने पर भी वह नहीं है । इस ही कारण प्रत्येक जैनीको अपने अन्दर वैराग्य छोड़ी जाती हैं । धर्म समझकर तब भी उनकी पालना भाव लानेके वास्ते परमवीतराग परमात्माओंकी, और ही होती रहती है अन्य सब ही धर्म जो बिना विचार जो इस परम वीतरागताकी साधनामें लगे हुए हैं ऐसे आँख मींचकर ही माने जाते हैं उनमें ऐसी २ अनेकों साधुओंकी उपासना करते रहना ज़रूरी है, यही जैनि- रूढ़ियाँ धर्मका रूप धारण कर लेती हैं, यहाँतककी इन योंकी पूजा भक्ति है जो उनके वीतरागरूप गुणोंको याद रूढ़ियोंका संग्रह ही एक मात्र धर्म हो जाता है । जो कर कर अपने भावोंमें भी वीतरागता लानेके वास्ते की बिल्कुल ही बेज़रूरत यहाँ तक कि हानिकर होजाने जाती है । इस प्रकार जैनियोंकी और अन्य धर्मियोंकी पर भी सेवन की जाती हैं और धर्म समझी जाती हैं। पूजा भक्ति में भी धरती आकाशका अंतर है । अन्यम. जैनधर्म ऐसी रूढ़ियोंके माननेको लोक मूढेता बताकर ती रागी द्वेषी देवताओंकी पूजा करते हैं और जैनी सबसे प्रथम ही उनके त्यागका उपदेश देता है । यहाँ वीतरागियोंकी। अन्यमती अपने लौकिक कार्योंकी तक कि जैनधर्मका सच्चा श्रद्धान होना ही उस समय सिद्धि के वास्ते और अपने राग द्वेषको पूरा करानेके ठहराया है जब कि मूढ़ता या अविचारिता छोड़कर वास्ते उनको पूजते हैं और जैनी लौकिक कार्योंका राग- प्रत्येक बातको बुद्धिसे विचार कर ही ग्रहण किया जावे द्वेष छोड़ उनके समान अपने अंदर भी वीतरागता और सब ही अलौकिक रूढ़ियोंको जिन्होंने धर्मका स्वरूप लाने के वास्ते ही उनका गुणानुवाद गाता है, यही ग्रहण कर लिया हो, परन्तु धर्मका तथ्य उनमें कुछ उनकी पूजा है । वह अपने इष्ट देवोंको प्रसन्न करना भी न हो बिल्कुल भी ग्रहण न किया जावे । मूढ दृष्टि नहीं चाहता है, न वे किसीके किये प्रसन्नया अप्रसन्न होना अर्थात् बिना विचारे किसी रूढ़ि को धर्म मान हो ही सकते है, क्योंकि वे तो परम वीतरागी हैं । इस लेनेको तो जैनधर्ममें महादोष बताया है जिससे भदान कारण जैनी तो उनके वीतरागरूप गुणोंको याद कर तकका भ्रष्ट होना ठहराया है। अपने में भी वीतरागताका उत्साह पैदा करनेकी कोशिश किसी समय राष्ट्रोंमें महायुद्ध छिड़जाने पर लोगों करता है, यही उसकी पूजा बंदना है जो अन्यमतियों- को युद्ध के लिये उत्साहित करनेके लिये यह आन्दोलन
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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