SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष ३, किरण ३] जैनधर्मकी विशेषता २२३ निकलेगा ही। . चार बुद्धिसे कुछ काम ही न लेना हो, तब तो जो कुछ जो लोग बुद्धिसे काम न लेकर एकदम अलौकिक भी किया जाय उसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है। शक्तियोंकी कल्पना कर लेते हैं वे यदि मनुष्य-भक्षी जो न हो वह ही थोड़ा है। । होते हैं तो वे इन अलौकिक शक्तियों अर्थात् अपने मनुष्यकी बलिके बाद गाय, घोड़ा, बकरा, आदि कल्पित देवी देवताओंको भी मनुष्यकी ही बलि देकर पशुओंकी बलिका ज़माना अाया जो अबतक जारी है । प्रसन्न करनेकी कोशिश करते हैं । अबसे कुछ समय हाँ इतने जोरोंके साथ नहीं है जितना पहले था। मुसपहले अमरीका महाद्वीपमें ऐसे भी प्रान्त थे जहाँके लमानी धर्म तो विदेशी धर्म है, उसको छोड़कर जब निवासी अपने प्रान्तके बड़े देवताको हज़ारों मनुष्योंकी हम अपने हिन्दू भाइयोंके ही धर्मपर विचार करते हैं बलि देकर खुश करना चाहते थे, परन्तु बलिके वास्ते तो वेदोंमें तो यज्ञके सिवाय और कोई विधान ही नहीं एकदम हज़ारों मनुष्योंका मिलना मुश्किल था, इस मिलता है जिसमें आग जलाकर पशु पक्षियोका होम कारण अनेक प्रान्तवालोंने मिलकर यह सलाह निकाली, करना होता है । अस्तु, वेदोंको तो लोग बहुत कठिन कि बलि देने के समयसे कुछ पहले हम लोग आपसमें बताते हैं इसी कारण बहुत ही कम पढ़े जाते हैं परन्तु युद्ध किया करें, इस युद्ध में एक प्रान्तके जो भी मनुष्य मनुस्मृति तो घर घर पढ़ी जाती है और मानी भी जाती दूसरे प्रान्त वालोंकी पकड़में श्राजावें वे सब बलि चढ़ा- है, उसमें तो यहांतक लिखा हुआ है कि पशु पक्षी सब दिये जावें । बस यह युद्ध इस ही कार्यके वास्ते होता यज्ञके वास्ते ही पैदा किये जाते हैं । यज्ञके वास्ते विद्वान था, हार जीत या अन्य कुछ लेने देनेके वास्ते नहीं। ब्राह्मणोंको स्वयम् अपने हाथसे पशु पक्षियोंका बध इस प्रकारकी बलि देना जब कुछ समय तक जारी करना चाहिये, यह उनका मुख्य कर्म है । इस हीमें रहता है तो मनुष्योंमें मनुष्यका मांस भक्षण करना छूट ईश्वरकी प्रसन्नता और सबका कल्याण है । जानेपर भी देवताको बलि देना बहुत दिन तक बराबर जैनधर्म इसके विपरीत इस प्रकारके सब ही अनुजारी रहता है, मनुष्य अपनी लौकिक प्रवृत्तियोंमें तो ष्ठानोंको महा अधर्म और पाप ठहराता है । किसी जीव समयानुकूल जल्द ही बहुत कुछ हेर फेर करते रहते हैं की हिंसा करने या दुख देनेमें कैसे कोई धर्म या पुण्य परन्तु देवी देवताओंकी पूजा भक्ति और अन्य भी हो सकता है, इस बातको विचार बुद्धि किसी प्रकार धार्मिक कार्योंमें परिवर्तन करनेसे डरते रहते हैं । इन भी स्वीकार करनेको तैयार नहीं हो सकती है। न ऐसा कार्योंको तो बहुत दिनों तक ज्योंका त्यों ही करते रहते कोई जगतकर्ता ईश्वर या देवी देवता ही हो सकता है हैं, यही कारण है कि भारतवर्ष में भी मनुष्यका मांस जो जीवोंकी हिंसासे प्रसन्न होता हो। इसके सिवाय जैनखानेवाले न रहने पर भी बहुत दिनों तक जहाज़ आदि धर्म तो पुकार २ कर यही शिक्षा देता है कि तुम्हारी चलाते समय मनुष्यकी बलि देना बराबर जारी रहा। भलाई बुराई जो कुछ भी हो रही है या होने वाली है, सुनते हैं कि कहीं किसी देशमें कोई समय ऐसा भी वह सब तुम्हारे अपने ही कर्मोंका फल है । तुम्हारे कर्मों रहा है जब आपने ही पुत्र आदिककी बलि देकर भी का वह फल किसीके भी टाले नहीं टल सकता, न कोई देवताको प्रसन्न करने की चेष्टा की जाती थी। जब वि- सुख दे सकता है और न दुख ही । इस कारण अपने.
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy