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________________ वर्ष ३, किरण ३ ] साथियोंके – सदस्योंके – आपसी विरोधसे होती हैं वे अभ्यंतर मानी जाती हैं। यहां जो आपत्ति है. वह आभ्यंतर है । वह सदस्यों के अपने कर्मों से उत्पन्न हुई हैं। अक्रूर–भोजादि और उनके सब संबंधियों ने धनके लोभसे, किसी कामना से अथवा बीरता की ईर्ष्या, स्वयं प्राप्त ऐश्वर्यको दूसरोंके हाथों सौंप दिया है । जिस अधिकारने जड़ पकड़ ली है और जो ज्ञाति शब्द की सहायता से और भी दृढ़ हो गया है, उसे वमन किये हुए अनकी भाँति वापिस नहीं ले सकते । बभ्रू उग्रसेनसे राज्याधि - कार पाना किसी भी तरहसे शक्य नहीं है । ज्ञाति भेदके भयसे हे कृष्ण, तुम भी विशेष सहायता नहीं कर सकते । यदि उग्रसेनको अधिकारच्युत करनेके समान दुष्कर कार्यकी भी सिद्धि करलीजाय तो महाक्षय, व्यय और विनाश तक हो जानेकी संभावना है। इस जटिल समस्याको तुम लोहेके शस्त्रोंसे नहीं बल्कि कोमल शस्त्रोंसे निर्विरोध सुलझा सकोगे । कृष्णजीने पूछा, कि इन मृदु लोह शस्त्रों को मैं कैसे जान सकू ? तब नारद जी ने जवाब में कहा: ज्ञातीनां वक्तुकामानां कटुकानि लघूनि च । गिरा त्वं हृदयं वाचं, शमयस्व मनांसि च ॥ + + + भेदाद् विनाशः संघस्य, संघमुख्योऽसि केशव । यथा त्वां प्राप्य नोत्सी, देव संधे तथा कुरु ॥ + + + धनं यशश्च ह्योयुष्यं स्वपक्षोद्भावनं तथा । ज्ञातीनामविनाशः स्याद्यथा कृष्ण तथा कुरु ॥ आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो । घाडगुण्यस्य विधानेन, यात्रायां न विधौ तथा ॥ यादवा कुकुरा भोजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः । तवायत्ता महाबाहो, लोकालोकेश्वराश्च ये ॥ ज्ञातवंशका रूपान्तर जोटवंश [ २३६ अर्थात् - कड़वी और ओछी बातें कहने की इच्छावाले ज्ञातियोंकी वाणीसे अपने हृदय और वाणीको शांत रखो। साथ ही अपने उत्तरसे उनके मनको प्रसन्न रक्खो । केवल भेदनीतिसे संघका नाश होता है । हे केशव, तुम संघके मुखिया हो । अथवा संघने तुमको प्रधानरूप से चुना है । इस लिये तुम ऐसा काम करो, कि जिससे ज्ञातियोंका धन, यश, आयुष्य, स्वपक्षपुष्टि एवं अभिवृद्धि होती रहे । हे राजेन्द्र, भविष्य संबन्धी नीतिमें, वर्तमानकालीन नीतिमें एवं शत्रुत्राकी नीति से आक्रमण करनेकी कलासे और दूसरे राज्योंके साथ यथोचित वर्ताव करनेकी विधिमें एक भी बात ऐसी नहीं है, जो तुम्हे मालूम न हो । हे महाबाहो, समस्त यादव, कुकुर, भोज, अंधकवृष्णि, उनके सब लोग और लोकेश्वर अपनी उन्नति एवं संपनता के लिए तुम्हीं पर निर्भर है। महाभारतके कथनका सारांश महाभारत में उपलब्ध हुए उक्त प्रमाणका सारांश यह है, कि यदुवंशके दो कुलों - अंधक और वृष्णि--- ने एक राजनैतिक संघ स्थापित किया था । उसमें दो दल थे, जिनमेंसे एककी तरफ श्रीकृष्ण और दूसरे की तरफ उग्रसेनजी थे । श्री कृष्ण के दलवाले लोग बलवान, बुद्धिमान होते हुए भी प्रमादी और ईर्ष्यालु प्रकृति के थे । अतः दूसरे दलके मुकाबिलेमें वाद-विवाद के समय श्रीकृष्णको अधिक परेशानी होती थी। इसी परेशानीको मिटाने के उपाय के लिए श्रीकृष्ण जी ने नारद जीसे परामर्श किया था । *महाभारत के संदर्भके उपरिलिखित उद्धरण श्रीयुत् काशीप्रसाद जायसवाल कृत 'हिंदू राज्यतंत्र' से लिये गये है ।
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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