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________________ २६८ अनेकान्त [ पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६ थां, ऐसा मुनिपुण्यविजयजी सूचित करते हैं। ही समान बना जाना। मुनि पुण्यविजयजी १३ _'प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी ऐतिहासिक ग्रन्थ वर्षकी अवस्थामें आपके श्रीचरणों में आकर माला' भी आपके ही प्रभावसे चलती थी जिसमें दीक्षित हुए थे। और आज उन्हें करीब ३१ वर्ष मुनि श्री जिनविजयजीके द्वारा सम्पादित होकर आपके सत्संग एवं अनुभवोंसे लाभ उठाते और विज्ञप्तित्रिवेणी, कृपारसकोश, प्राचीन जैनलेख- आपके साथ काम करते होगये हैं । आपने पुत्रकी संग्रह आदि कितने ही महत्वके ऐतिहासिक ग्रंथ तरह उनके पालन तथा शिक्षणादिका बड़ा ही प्रकाशित हुए हैं। सत्त्रयत्न किया है, और यह सब उसीका सत्फल ____ गायकवाड ओरियंटल सिरीजमें प्रकाशित है जो आज उनमें आपके प्रायः सभी गुण मूर्ति ह पराजय' का सम्पादन भी आपका ही किया मान तथा विकसित नज़र आते हैं और वे आपके हुआ है। और भी कई ग्रन्थमालाओंमें आपने सच्चे उत्तराधिकारी हैं। अभिमान उन्हें छूकर ग्रन्थ सम्पादनका कार्य किया है। श्राद्धगुण विव- नहीं गया, वही सेवाभावकी स्पिरिट उनके रोम रणका गुजराती अनुवाद भी आप कर गये हैं। रोममें बसी हुई है और वे दूसरे साहित्यसेवियों अनेक विद्वानोंको साहित्य सेवाके कार्यो में आप को उनके कार्यमें सहयोग प्रदान करना अपना अच्छी सहायता दिया करते थे। आपके ही द्वारा बड़ा कर्तव्य समझते हैं। मुझे समय समय पर देश-विदेशके अनेक विद्वानोंको पाटनके भंडारोंके आपसे अनेक ग्रन्थोंकी सहायता प्राप्त होती रही दर्शन और अनेक अलभ्य ग्रंथोंका सिलना सुलभ है। अभी 'जैन लक्षणावली' के लिये कुछ ग्रन्थ हा है। आपके गुरु श्रीकान्तिविजयजीके उपदेश कीमतसं भी कहींसे नहीं मिल रहे थे, से निर्मित हुए 'हेमचन्द्राचार्य-जैनज्ञानमन्दिर' का उन्हें भावनगर तथा बड़ौदासे भिजवाया और जो उद्घाटनोत्सव पाटनमें गत अप्रैल मासमें लिखा कि जब तक आपका कार्य पूरा न हो जाय हुआ था और जिसका परिचय अनकान्तकी तब तक आप उन्हें खुशीसे रख सकते हैं। इस पिछली ७वीं किरणमें दिया जा चुका है उसमें भी उदार व्यवहारके लिये मैं उनका बहुत आभारी आपका प्रधान हाथ रहा है। हूँ। ऐसे सत्पात्रको अपने उत्तराधिकारमें देकर ___इस तरह मुनि श्रीचतुरविजयजीने अपनी स्व० मुनि श्रीचतुरविजयजीने बड़ी ही चतुराईका ५१ वर्षकी लम्बी प्रव्रज्या-पर्यायमें ग्रन्थोंके संशो- काम किया है और अपने सेवा कार्योंके धन, संरक्षण, सम्पादन और प्रकाशनादिके द्वारा भव्य भवन पर सुवर्णकलश चढ़ा दिया है । और प्राचीन साहित्यके उद्धाररूपमें बहुत बड़ी साहित्य इसलिये आपके अवसानसे साहित्य ससारको सेवा की है । शरीरके निर्बल हो जानेपर भी जहां बहुत बड़ी क्षति पहुँची है वहाँ आपकी इस आपने अपना यह सेवाकार्य नहीं छोड़ा, आप प्रतिमूतिपूजाको देखकर सन्तोष होता है और युवकों जैसा उत्साह रखते थे और इसलिये जीवन भविष्यके लिये बहुत कुछ आशा बधती है । के प्रायः अन्त समय तक–अन्तिम एक सप्ताहको इस सत्प्रवृत्तिमय जीवनसे दिगम्बर जैनछोड़कर आप अपने उक्त कर्तव्यका पालन करते समाजके मुनिजन एवं दूसरे त्यागीजन यदि कुछ हुए और साथ ही संयमी जीवनका निर्वाह करते शिक्षा ग्रहण करें और दि० जैन साहित्य के उद्धार हुए परलोकवासी हुए हैं। का बीड़ा उठावें और उसे अपने जीवनका प्रधान ... इस सब सेवाकार्य के अतिरिक्त और भी लक्ष बनावें, तो कितना अच्छा हो ? जो बड़ा कार्य आपने अपने जीवनमें किया है बीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा, ता०२०-१-१९४० वह अपने शिष्य मुनिपुण्यविजयजी को अपने
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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