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...... पुरुषार्थ
ले-कविवर श्री मैथिलीशरण गुप्त] पुरुष क्या, पुरुषार्थ हुआ न जो, मनुज-जीवन में जयके लिये, हृदयकी सब दुर्बलता तजो ।
प्रथम ही दृढ़ पौरुष चाहिये। प्रबल जो तुममें पुरुषार्थ हो,. . विजय तो पुरुषार्थ बिना कहाँ, ___ सुलभ कौन तुम्हें न पदार्थ हो ? कठिन है चिर-जीवन भी यहाँ। प्रगतिके पथमें विचरो उठो,
भय नहीं, भवसिन्धु तरो, उठो, पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ॥ पुरुष हो, पुरुषार्थ करो उठो ॥ "
(२) न पुरुषार्थ बिना कुछ स्वार्थ है, यदि अनिष्ठ अड़ें अड़ते रहें, न पुरुषार्थ बिना परमार्थ है।
विपुल विघ्न पड़ें पड़ते रहें। समझ लो यह बात यथार्थ है, हृदयमें पुरुषार्थ रहे भरा, . कि पुरुषार्थ वही पुरुषार्थ है। __ जलधि क्या, नभ क्या, फिर क्या धरा । भुवनमें सुख-शान्ति भरो उठो, दृढ़ रहो, ध्रुवधेय्य धरो, उठो
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो पुरुष हो, पुरुषार्थ करो उठो ।। न पुरुषार्थ बिना वह स्वर्ग है, . यदि अभीष्ट तुम्हें निज सत्व है, न पुरुषार्थ बिना अपवर्ग है।
प्रिय तुम्हें यदि मान-महत्व है। न पुरुषार्थ बिना क्रियता कहीं, यदि तुम्हें रखना निज नाम है,
न पुरुषार्थ बिना प्रियता कहीं। जगतमें करना कुछ काम है । सफलता वर-तुल्य बरो उठो,
मनुज ! तो श्रमसे न डरो, उठो, ____ पुरुष हो, पुरुषार्थ करो उठो॥ पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ॥ (४)
(८) न जिसमें कुछ पौरुष हो यहाँ, प्रकट नित्य करो पुरुषार्थ को, ___ सफलता वह पा सकता कहाँ ? हृदयसे तज दो सब स्वार्थ को । अपुरुषार्थ भयंकर पाप है,
यदि कहीं तुमसे परमार्थ हो, न उसमें यश है न प्रताप है ।
यह विनश्वर देह कृतार्थ हो । न कृमि-कीट-समान मरो, उठो, सदय हो, पर दुख हरो, उठो,
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ॥ पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ॥