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________________ वर्ष ३, किरण ३) धवलादि श्रुत-परिचय २१५ ......... समझा है और इस तरह पर एक गहन विषयके सैद्धा- के बड़े भक्त थे, यह पाया जाता है। परन्तु जिनसेनन्तिक ग्रन्थकी टीका पर एक प्रसिद्ध और बहुमाननीय स्वामी महाराज अंमोघवर्षको किस गौरवभरी दृष्टि से विद्वानके नामकी ( सम्पादनकी ) मुहर प्राप्त करके उसे देखते थे, उनपर कितना प्रेम रखते थे और उनके विशेष गौरवशालिनी और तत्कालीन विद्वत्समा जके गुणोंपर कितने अधिक मोहित अथवा मुग्ध थे, इस बात लिए और भी अधिक उपयोगिनी तथा अादरणीया का पता अभी तक बहुत ही कम विद्वानोंको मालूम बनाया है। यही 'श्रीपाल-सम्पादिता' विशेषणका होगा, और इसलिये इसका परिचय पाठकोंको प्रशस्तिरहस्य जान पड़ता है । और इसलिये इससे यह स्पष्ट है के निम्न लिखित पद्यों परसे कराया जाता है, जिसमें कि एक सम्पादकको किसी दूसरे विद्वान लेखककी कृति- गुर्जरनरेन्द्र ( महाराज अमोघवर्ष ) की यशोगान करके का उसके इच्छानुसार सम्पादन करते समय, ज़रूरत उन्हें अाशिर्वाद दिया गया हैहोनेपर, उसमें संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन, स्पष्टीकरण, गुर्जरनरेन्द्रकीर्तेरन्तःपतिता शशांकशुभ्रायाः । । भाषा-परिमार्जन और क्रम-स्थापन आदिका जो कार्य गुप्तैव गुप्तनृपतेः शकस्य मशकायते कीर्तिः ॥१२ करना होता है, यथासम्भव और यथावश्यकता, वह गुर्जरयशःपयोब्धौ निमज्जतीन्दौ विलक्षणं लक्ष्म। सब कार्य इस टीकामें विद्वद्रत्न श्रीपाल द्वारा किया गया ___ कृतमलिमलिनं मन्ये धात्रा हरिणापदेशेन ॥१३॥ है। उनकी भी इस टीका में कहीं कहीं पर ज़रूर कलम भरत-सगरादि नरपति यशांसितारानिभेव संहृत्य । : लगी हुई है । यही वजह है कि उनका नाम सम्पादकके . गुर्जरयशसो महतःकृतावकाशो जगत्सृजा नूनम् ॥१४ रूपमें खास तौरसे उल्लेखित हुआ है । अन्यथा, श्रीपाल इत्यादिसकलंनृपतीनतिपेशप्य पयः पयोधिनेत्था आचार्यने पूर्वाचार्योंकी सम्पूर्ण टीकाअोंका एकत्र संग्रह गुर्जर नरेन्द्रकीतिः स्थेयादाचन्द्रतारमिह भुयने ॥ १५ करके उस संग्रहका नाम 'जयधवला' रक्खा, इस कथनकी कहींसे भी उपलब्धि और पुष्टि नहीं होती। इन पद्योंमें यह बतलाया और कहा है कि 'गुर्जर जिनसेनके समकालीन विद्वानों में पद्मपेन, देवपेन, नरेन्द्र ( महाराज अमोघवर्ष ) की शशांक-शुभ्रकीति के भीतर पड़ी हुई गुप्तनपति ( चन्द्रगुप्त ) की कीति और रविचन्द्र नामके भी कई विद्वान् हो गये हैं । यह गुप्त ही होगई है-छिप गई है-और शक राजाकी बात ऊपर उद्धृत किये हुए प्रशस्तिके अन्तिम पद्यसे कीति मच्छरकी गुन गुनाहटकी उपमाको लिए हुए है। ध्वनित होती है। गुर्जर नरेन्द्र महाराज अमोघवर्ष (प्रथम) जिनसेन मैं ऐसा मानता हूँ कि गुर्जर-नरेन्द्रके यशरूपी क्षीरसमुद्रमें डूबे हुए चन्द्रमामें विधाताने हरिण. (मृगछाला ) के स्वामीके शिष्योंमें थे, इस बातको स्वयं जिनसेनने अपने पार्थ्याभ्युदयके संधि-वाक्योंमें प्रकट किया है; और वह पद्य इस प्रकार है- ' गुणभद्राचार्यने उत्तरपुराण-प्रशस्तिके एक पद्यमें यह यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरद्धारान्तराविभवत, .. सूचित किया है कि महाराज अमोधवर्ष श्रीजिनसेन- पादाम्भोजरजःपिशंगमुकुट प्रत्यपरत्नद्युतिः । स्वामीके चरणकमलोंमें मस्तकको रखकर अपने संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलं, पवित्र मानते थे । इससे अमोघवर्ष जिनसेन- स श्रीमान् जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलम् ।।
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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