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________________ २१४ .... अनेकान्त पौष, वीर-निर्वाण सं०२१६० सूचित किया है । वीरसेनस्वामीने चूकि इस टीकाको 'धवला' है । धवलासे मिलता-जुलता ही नाम जयधवला प्रारम्भ किया था और इसका एकतिहाई भाग (२० है, जो उनकी दूसरी टीकाके लिये बहुत कुछ समुचित हज़ार श्लोक) लिखा भी था। साथ ही, टीकाका शेष प्रतीत होता है । और इस दूसरी टीकाके 'जयइ धवलंगभाग, आपके देहावसानके पश्चात्, आपके ही प्रकाशित तेथे' इत्यादि मंगलाचरणसे भी इस नाम की कुछ ध्वनि वक्तव्यके अनुसार पूरा किया गया है, इसलिये गुरु- निकलती हैं । अतः इन सब बातोंसे टीकाका असली भक्ति से प्रेरित होकर श्रीजिनसेनस्वामीने इस समूची नाम 'वीरसेनीया' न होकर 'जयधवला' ठीक जाम टीकाको श्रापके ही नामसे नामांकित किया है और पड़ता है। 'वीरसेनीया एक विशेषण है जो पीछे से 'वीरसेनीया' भी इसका एक विशेषण दिया है। इन्द्र- जिनसेनके द्वारा इस टीकाको दिया गया है। . नन्दिकृत 'श्रुतावतार' और विबुध श्रीधरकृत 'गद्य- अब रही 'श्रीपाख-संपादिका विशेषणकी बात, श्रुतोवतार' के उल्लेखोंसे भी इसी बातका समर्थन होता है उससे प्रेमीजीके उक्त निष्कर्षको कोई सहायता नहीं कि वीरसेन और जिनसेनकी बनाई हुई ६० हजार श्लोक मिलती । श्रीपाल नामके एक बहुत बड़े यशस्वी विद्वान संख्यावाली टीकाका नाम ही 'जयधवला' टीका है.। जिनसेनके समकालीन हो गये हैं। प्रशस्तिके अन्तिम यथा पद्यमें अापके यशकी ( सत्कीर्तिकी) उपमा भी दी गई 'जयधवलैवं षष्ठिसहस्त्रग्रन्थोऽभवट्टीका। है । वह पद्य इस प्रकार है - -इन्द्रनन्दिश्रुतावतार . सर्वशंप्रतिपादितार्थगणभृत्सूत्रानुटीकामिमां, अमुना प्रकारेण षष्ठिसहस्रप्रमिता जयधवला- येऽन्यस्यन्ति बहुश्रुताः श्रुतगुरुं संपूज्य वीरं प्रभु। . नामाङ्किता टीका भविष्यति । ते नित्योज्वलपद्मसेनपरमाः श्रीदेवसेनार्चिताः, . . -श्रीधर-गद्यश्रुतावतार० भासन्ते रविचन्द्रभासिसुसपाः श्रीपालसत्कीर्तयः ॥४४॥ - यदि प्रेमीजी द्वारा सूचित उक्त संग्रहका नाम ही आदि पुराण में भी आपके निर्मल गुणोंका कीर्तन 'जयधवला' होता तो उसकी श्लोकसंख्या ६० हज़ार किया गया है और आपको भट्टाकलंक तथा पात्रकेसरीन होकर कई लाख होनी चाहिये थी। परन्तु ऐसा नहीं जैसे विद्वानोंकी कोटि में रखकर यह बतलाया गया है है। ऊपर के अवतरणों एवं प्रशस्ति के पद्य नं०६ में कि आपके निर्मल गुण हारकी तरहसे विद्वानों के हृदयमें साफ़ तौरसे ६० हजार श्लोक संख्याका ही जयधवलाके श्रारूंढ रहते हैं । यथासाथ उल्लेख है-साक्षात् देखनेपर भी वह इतने ही भट्टाकलंक श्रीपान पात्रकेसरिणां गुणाः । प्रमाण की जान पड़ती है । और भी अनेक ग्रन्थों में इस विदुषां हृदयारूदा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः ॥ टीकाका नाम जयधवला ही सूचित किया है * । इसके इससे स्पष्ट है कि श्रीपाल एक ऐसे प्रभावशाली सिवाय, वीरसेन स्वामीकी दूसरी सिद्धान्त-टीकाका नाम आचार्य थे जिनका सिक्का अच्छे-अच्छे विद्वान् लोग * : ये कृत्वा धवला जयादिधवला सिद्धान्तटीकं सती मानते थे। जिनसेनाचार्य भी आपके प्रभावसे प्रभावित :: वन्दध्वं वरवीरसेन-जिनसेनाचार्य वर्यान्धुधान् थे। उन्होंने अपनी इस टीकाको लिखकर श्राप ही से ..... -सपणासारटीकायां, माधवचन्द्रः उसका सम्पादन. (संशोधनादिकार्य) कराना उचित
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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