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________________ जैन और बौद्ध निर्वाणमें अन्तर [ ले०–श्री. प्रोफेसर जगदीशचन्द्र जैन, एम. ए..] सितम्बर १९३९ के अनेकान्त (२-११) में मैंने जैन बौद्ध साहित्य बहुत विस्तृत है। कभी कभी तो और बौद्धधर्म एक नहीं' नामक एक लेख लिखा उसमें एक ही विषयका भिन्न २ रूपसे प्रतिपादन देखने था, जिसमें ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकी "जैन और में आता है। ऐसी हालतमें बौद्धवाङ्मयका गहरा बौद्ध तत्वज्ञान" नामकी पुस्तककी समालोचना करते अध्ययन किये बिना, ऊपर ऊपरसे दो चार ग्रन्थोंको हुए यह बताया था कि ब्रह्मचारीजीका जैन और बौद्ध पढ़कर अपना कोई निर्णय देना यह बड़ी भारी भूल है। धर्मको एक बताना निरा भ्रम है। मेरे लेखके उत्तरमें निर्वाणके सम्बन्धमें भी बौद्धग्रन्थों में विविधतायें देखने में ब्रह्मचारीजीने ३० नवम्बर १९३६ के जैन मित्र ने कुछ आती हैं । यही कारण है कि युरोपियन विद्वानोंमें भी शब्द भी लिखे हैं, जिनमें कहा गया है कि मैं उनकी इस विषयमें मतभेद पाया जाता है । कुछ विद्वान पुस्तक भूमिका-सहित श्राद्योपांत पढ़ लेता तो उनसे निर्वाणको शून्यरूप-अभावरूप-मानते हैं । जिसमें असहमत न होता । मैं ब्रह्मचारीजीसे कह देना Hardy, Childers, James D' Alwis चाहता हूँ कि मैंने उक्त पुस्तक अच्छी तरह आद्योपांत आदि हैं। दूसरे इसका विरोध करते हैं और कहते हैं पढ़ ली है, लेकिन फिर भी मैं उनसे सहमत न हो कि बौद्धोंका निर्वाण भी ब्राह्मणोंकी तरह शाश्वत और सका। मैं समझता हूँ शायद कोई भी विद्वान् इस अचल है । इस विभागमें Maxmullar, Stcherबातको मानने के लिये तैयार न होगा कि 'जैन और batsky आदि हैं । हम यहां इस वाद-विवादमें गहरे बौद्ध धर्म एक हैं और उनमें कुछ भी अन्तर नहीं है।” नहीं उतरना चाहते, केवल इतना ही कहना चाहते हैं । अपने पिछले लेखमें मैंने विस्तार पूर्वक बौद्धोंकी श्रात्मा कि यदि बौद्धोंका निर्वाण अच्युत और स्थायी है तो सम्बन्धी मान्यताका दिग्दर्शन कराते हुए बताया है उन्हें निर्वाणके लिये बहुत सी उपमायें मिल सकती कि उसकी जैनसिद्धान्तसे जरा भी तुलना नहीं की थीं, उन्होंने दीपककी उपमा ही क्यों पसंद की ? जा सकती । बौद्ध ग्रन्थों में मांसोल्लेख आदिके सम्बन्धमें "निब्बति धीरा यथायं पदीपो' ( संयुत्त २३५)भी मैंने उक्त लेखमें चर्चा की है । दुःख है कि ब्रह्मचारी प्रदीपके समान धीर निर्वाण पाते हैं ( बुझ जाते हैं ; जी उन आक्षेपोंका कुछ भी उत्तर न दे सके। “सीतीभूतोऽस्मि निव्वुतो" ( विनय १-८) निर्वृत ___अब ब्रह्मचारीजीकी मान्यता है कि “निर्वाणका हो जानेसे मैं शीतल हो गया हूँ (ठंडा हो गया हूँ । स्वरूप जो कुछ बौद्ध ग्रन्थोंमें झलकता है वही जैन “पदीपस्स एव निधानं विमोक्खो आहु चेतसो" शास्त्रोंमें है।" इस लेखमें इसी विषय पर चर्चा की आदि बौद्ध पाली ग्रन्थोंके उल्लेखोंसे मालूम होता है कि जायगी। बौद्ध लोग प्रदीपनिर्वाणकी तरह आत्म निर्वाणको ही
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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