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- वर्ष ३, किस ]
नयादिश्रुत-परिचय
अनीसम्मि सासिय(सतसए) विकसरायस्मिए किस) प्रथमकी पांच मामा की शोना सब पद्य सुसंगरमो ( सगणामे )।
संस्कृत भाषाके हैं। इसके रचयिता वीरसमके शिष्य पा(या)से सुतेरसीए भाव (गु)-विलो धवल-पल ॥ जिनसेन हैं और इसमें टीका-नाम, अन्त्य-मंगलाचरण जगतु गर्दवरज्जे रियम्हि कुंभन्हि राहुणा की।
तथा ग्रन्थकी समानिके समयादिकी सूचनाओंके साथ सूरे तुलाए संतं (ते)गुरुम्हि कुलबिल्लाए होने ॥
बीरसेन और जिनसेन दोनों प्राचार्योक्म कुछ-कुछ मरिचावम्हि यात)रिणघुत्ते सिंग्घे सुक्कम्मि मि मीण)
चय भी दिया हुआ है । श्रीवीरसेनाचार्य के परिचयचंदम्मि।
विपायक मुख्य पद्य माराके सिद्धान्त-भवनकी प्रतिके कत्तियमाले एसा टीका हु ममाणिला (या) धवला ॥ अनुसार इस प्रकार हैं :बोहणरायरिंदे णरिंदचूडामणिम्हि भुंजते ।
* श्रीवीरसेन इत्यात्त भट्टारक-पृथुमथः । सिद्धधनयमस्थिय मुरुप्पसागण विगता सा ॥६॥
पारदृश्वाधिविद्यानां साचादिव स केवली ॥१॥ इन प्रशस्ति के बाद एक संगमका प्रशस्ति पत्र
प्रीणित-प्राणिसंपत्तिराकांताशेषगोचरा । और सा है, जो संभातः कामाचा किनी शिष्य
भारती भारतीवाज्ञा पखण्डे यस्य नाऽस्खलन ॥२०॥ की--मा: जिनसेन मी--ति नाग पता है, और वह
यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थमामिनीं । इस प्रकार है:--
जाता सर्वज्ञसभावे निरारेका मनीषिणः ॥२१॥ श-ग्रीति शादेशावरलिरिधेय राद्धान्तविद्भिः
यं प्राहुः प्रस्बोध-दीधिति-प्रसरोदयं ।
श्रुतकेवलिनं प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमणसत्तमं ॥२२॥ साक्षान्सर्वज्ञ एवेत्यवति मनिनिमम स्तुपातो (वाणैः)
प्रसिद्ध सिद्ध सिद्धांत-वाधिवाधौत शुद्धधीः । यो दृष्टी विश्वविद्यानिधिरिति जाति प्राप्त भट्टारकाख्यः
साद्धं प्रत्येकबुद्धैर्यः स्पर्धते धीद्धबुद्धिभिः ॥२३॥ स नं. बरगी जयति पर भित्रकारः ॥१॥
28 पहली गाथा टीका नामादि-विषयक है और इ. बतलाया ... को शब्द
वह निम्न प्रकार है; शेष गाथाएँ श्रुतदेवताके म्परणा
दिमे सम्बन्ध रखती हैंरूप, सामानमा .... ' के रूप और चार .
एन्थ समापइ धवलियतिहुवणभवणा पसिद्धमाहप्पा । देगा---ग्रनमा रि ...
पाहुडसुत्ताणमिमा जयधवला सरिणया टीका ॥१॥ ना..
इस पद्यसे पहले वीरसेन-विषयक दो पद्य और वा . : ...... .......
सार हैं. जो निम्न प्रकार हैंसमान .. .... ..... भूयादावीरसेनस्य वीरसेनस्य शासनं । अपना का .....
.. भूयादावीरसेनस्य वीरसेनस्य शासनं (१) ॥१७॥
भासीदास ददामन्नभव्यसत्वकुमुदतीं । जो संस्कारमा
त् मुदती कमीशो यः शशांक इव पुष्कलः ॥१८॥