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________________ २०८ अनेकान्त [पौष, पीर-निर्वाण सं०२४६६ ................ ... वंशरूपी आकाशमें सूर्यके समान थे । साथ ही, सिद्धांत, राहुके साथ मंगल कुम्भराशिमें था, चन्द्रमा मीनराशि छंद, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाण (न्याय)-विषयक का और शुक्र कुम्भराशिका था; जगतुंगदेव (गोविन्द शास्त्रोंमें वे निपुण थे । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि तृतीय) आसन छोड़ चुके थे और उनके उत्तराधिकारी वीरसेनके दीक्षागुरु चन्द्रसेनाचार्य के शिष्य आर्यनन्दी राजा बोद्दणाराय (अमोघवर्ष प्रथम) जो कि नरेन्द्रचूड़ाथे और इसलिये उनकी गुरुपरम्परा चन्द्रसेनाचार्य मणि थे, राज्यासनपर श्रारुढ हुए उसका उपभोग से प्रारम्भ होती है-एलाचार्यसे नहीं। एलाचार्यके कर रहे थे । प्रशस्तिकी कुछ मांथाओंमें लेखकोंकी कृपाविषयमें यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे से कोई कोई पद अशुद्ध पाये जाते हैं। प्रो० हीरालाल पंचस्तूपान्वयमें उत्पन्न हुए थे-वे मात्र सिद्धान्त- जीने भी, 'धवला' का सम्पादन करते हुए उनका विषयमें वीरसेनके विद्यागुरु थे, इतना ही यहां स्पष्ट अनुभव किया है और अपने यहांके प्रवीण ज्योतिर्विद जाना जाता है । इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें उन्हें चित्रकूट- श्रीयुत पं० प्रेमशंकरजी दबेकी सहायतासे प्रशस्तिके पुरका निवासी लिखा है, इससे भी वे पंचस्तूपान्वयी ग्रहस्थिति विषयक उल्लेखोंका जांच पड़ताल के साथ मुनियोंसे भिन्न जान पड़ते हैं। संशोधनकार्य किया है, जो ठीक जान पड़ता है। साथ प्रशस्तिकी शेष गाथाओं में से दूसरीमें 'वृषभसेन' ही, यह भी मालूम किया है कि चूंकि केतु हमेशा राहुसे का, तीसरीमें अर्हत्सिद्धादि परमेष्ठियोंका अन्त्यमंगल- सप्तम स्थान पर रहता है इसलिये केतु उस समय के तौर पर स्मरण किया गया है और अन्तकी चार सिंहराशि पर था। और इस तरह प्रशस्तिपरसे ग्रन्थकी गाथाओंमें टीकाकी समाप्तिका समय, उस समयकी जन्मकुण्डलीकी सारी ग्रहस्थिति स्पष्ट हो जाती है । अस्तु, राज्यस्थितिका कुछ निर्देश करते हुए, दिया है- अर्थात् यह पूर्ण प्रशस्ति अपने संशोधित रूप-सहित, जिसे यह बतलाया है कि यह धवला टीका शक संवत् ७३८ ब्रैकट (कोष्ठक)में दिखलाया गया है, श्राराकी प्रतिके ' में कार्तिक शुक्ल त्रयोदशीके दिन उस समय समाप्त अनुसार इस प्रकार हैकी गई है जब कि तुलालग्नमें सूर्य बृहस्पति के साथ था जस्स से(प)साएण मए सिद्धतमिदं हि अहिलढुंदी तथा बुधका वहां अस्त था, शनिश्चर धनुराशिमें था,, (लिहिद)। वाक्यसे पाया जाता है। इसीसे उन मुनियोंके वंशकी महु सो एलाइरियो पसियउ वरवीरसेणस्स ॥१॥ 'पंचस्तूपान्वय' संज्ञा पड़ी; परन्तु ये पंचस्तूप कहां थे, वंदामि उसह लेणं तिहुवणजिय-बंधवं सिवं संतं । इसका कोई ठीक पता नहीं चलता । साथ ही, उक्त श्रु- णाण-किरणाबहासिय-सयल-इयर-तम पणासियं दिट्ठ॥२ तावतारमें उद्धृत पुरातन वाक्यों के “पंचस्तूप्यास्ततः अरहंतपदो ( अरहंतो) भगवंतो सिद्धा सिद्धापसिसेना:"पंचस्तृप्यास्तु सेनानां" जैसे अंशोंसे यह भी द्धयाइरिया । साहू साहू य महं पसी( सि )यंतु जाना जाता है कि पंचस्तूपान्वय सेनसंघका ही विशेष भडारया सव्वे ॥ ३ ॥ अज्जज्जणंदिसिस्सेणुज्जवकम्मस्स अथवा नामान्तर है । वीरसेनकी गणना भी सेनसंघके चंदसेखस्स । तह णत्वेण पंचत्थूहएणयभाणुणा आचार्यों में ही की जाती है-सेनसंघकी पट्टावली में मुणिणा ॥ ४॥ सिद्धंत-छंद जोइस-बायरण-पमाणउनके नामका निर्देश है। सत्थ णिवुणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण॥५
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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