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________________ वर्ष ३, किरण ३ ] 'धर्मविद्वेषकी प्रधानता से जैन बौद्धकालके बाद ब्राह्मणोंने और उनके अनुयायियोंने 'जाट क्षत्रिय नहीं हैं,' यह कहना प्रारम्भ करदिया । वरना क्या कारण है कि राजपूत परमारोंको तो क्षत्रिय रूपसे और जाट परमारोंको क्षत्रियेतर रूप से माना जाय ? इस धार्मिक विद्वेषने न केवल जाटोंको ही अपमानित किया बल्कि उनके जैसे कई विशुद्ध क्षत्रियवन्शोंको भी नहीं छोड़ा। इसीसे तो विदेशी आक्रामकोंने पुण्यभूमि भारतको पराधीन बनाकर उसे दासताको जंजीरोंसे जकड़ दिया । • जाटोंका व्यवहारादि प्रायः स्वतन्त्र विचारके होनेसे जाट लोगोंने जैसे ब्राह्मणोंको गुरु माननेका विरोध किया ठीक वैसे ही अपने बाप दादों की कीर्ति गानेवाले भाट-चारणोंको भी प्रोत्साहन नहीं दिया । अपनी वीरताके प्रचण्ड कारनामों को भी उन्होंने लेखबद्ध नहीं किया। उनमें से जो साम्राज्यवादी होगये, जिनका प्रभुत्व संसारहृतातस्यैकदाधेनुः कामसूर्गाधिसुनुना । [ २४५ व्यापी होगया, श्रेणिक, कोणिक, संप्रति, समुद्रगुप्त आदि जाटवन्शीराजाओं को इतिहास-लेखकोंने 'राजपूत' बना दिया । ब्राह्मणोंकी भेदनीतिसे आपसी विद्वेष पैदा होगया । समयप्रवाहने भी कुछ साथ न दिया । इन सब कारणोंसे जाट स्वयं भी आत्म-सम्मान भूलने लगे । कर्नल टॉड जैसे अनुभवी लेखकको इसीलिये अपने टॉडराजस्थानमें लिखना पड़ा कि - ज्ञातवंशका रूपान्तर जाटवंश "जिन जाट वीरोंके पराक्रमसे एक समय समस्त संसार कांप गया था, आज उनके वंशधरगण राजपूताना और पंजाब में खेती करके अपना गुजर करते हैं x x x X अब इनको देखकर अनायास ही यह विश्वास नहीं होता कि, ये खेतिहर जाट उन्हीं प्रचण्ड वीरोंके वन्शधर हैं जिन्होंने एकदिन आधे एशिया और योरोपको हिला दिया था । पर्शियन - हिस्ट्री के लेखक जनरल कनिंघमने कार्तवीर्यार्जुनेनैव जमदग्नेरनीयत ॥६५॥ X X X X · अथाथर्व विदामाद्य, समंत्रामाहुति ददौ । विकसद् विकट ज्वाला, जटिले जातवेदसि ॥६७॥ ततः क्षणातसकोदण्डः, किरीटी कांचनाङ्गदः । उज्ज गामाग्नितः कोऽपि सहेम कवचः पुमान् ॥ ६८|| अर्थात् – इक्ष्वाकु वंशियोंके पुरोहित वशिष्ठ ऋषिकी कामधेनु गायको गाधिसुत विश्वामित्र ने चुराया । तब अथर्ववेद के ज्ञाताओं में प्रथम मुनि वशिष्ठने फैलती हुई विकट ज्वालाओंसे उत्पन्न भयंकर अग्निमें मंत्र सहित आहुतियां दीं। इससे झटपट धनुर्धारी, मुकुटवाला, स्वर्णादवाला, एवं सोनेके कवचवाला कोई एक पुरुष अग्नि से पैदा हुआ । परमार इति प्रापत्स मुनेर्नामचार्थवत् । मीलितान्य नृपच्छत्र, मातपत्रं च भूतले ॥ ७१ ॥ अर्थात् - उसने वशिष्ठके दुश्मनोंका नाश करडाला, अतः ऋषिने प्रसन्न हो 'परमार' ऐसा सार्थक नाम देदिया। यही बात पाटनारायण के मंदिर के १३४४ के शिला लेखमें आई है। वैसीही आबू परके अचलेश्वरके मंदिरमें लगे लेखपर भी अंकित है । वशिष्ठ-विश्वामित्रकी लड़ाईका वर्णन बाल्मीकि रामायण में भी है । परन्तु उसमें अग्निकुंडसे उत्पन्न होने के स्थान पर नंदिनी गोद्वारा मनुष्योंका उत्पन्न होना और साथही उन मनुष्योंका शक, यवन, पल्हव आदि जातियोंके म्लेच्छ होना भी लिखा है धनपालने १०७० के करीब तिलकमंजरी बनाई थी उसमें भी इनकी उत्पत्ति अग्निकुंड से ही लिखी है। अनेक विद्वानोंका मत है कि, ये लोग ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णकी मिश्रित संतान थे । अथवा ये विधमीं थे और ब्राह्मणों द्वारा शुद्ध किये जाकर ये क्षत्रिय बनाये गये । तथा इसी कारण से इनको 'ब्रह्मक्षत्रकुलीनः' लिख कर इनकी उत्पत्तिके लिए अग्निकुंडकी कथा बनाई गई ।" भारत के प्रा० रा० वंश प्र० भाग पृ० १७७-७८
SR No.527158
Book TitleAnekant 1940 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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