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वर्ष ३, किरण ३]
ज्ञातवंशका रूपान्तर जाटवंश
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वर्णन हारिभद्रीय आवश्यक-वृत्ति पृष्ठ ६७७ में . एक कपोल कल्पना आता है। उसका उदाहरण इस प्रकार है:-... महाराजा श्रेणिक भगवान महावीरदेवके परम
दूभो विसज्जिओ वरगो, त भणइ चेडगो-किह हं वाहियकुले भक्तोमें से एक थे। आपका जैन होना ब्राह्मणों को देमित्ति पडिसिद्धो।
बड़ा अखरता था। इसलिये ब्राह्मणों ने उनके अर्थात्-महाराजा चेटकने अपनी कन्या
| बाहीक कुलके संबन्धमें एक कपोल कल्पना सुज्यष्ठाको मगनी करनेवाले महाराजा श्रणिकक महाभारत, कर्णपर्व ८ में निन्न प्रकार जोड़ दी हैंदूतको कहा कि, क्या मैं वाहिककुलमें अपनी
वाहिश्च नाम हीकश्च विपाशायां पिशाचको । . कन्याको दूंगा ? ना! ना!! ऐसा प्रतिषेध करके तयोरपत्यं वाहीका, नैषा सृष्टिः प्रजापतेः॥ दूतको विसर्जित कर दिया।
___ अर्थात्-विपाशा पंजाबकी व्यास नदी के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रके रचयिता किनारे पर 'वाहि' और 'होक' नामके दो पिशाच कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रजी महाराज रहते थे। उनकी संतान वाहीक कहलाई। उनकी भी ऊपर लिखी बातको इस प्रकार लिखते हैं सृष्टि प्रजापति ब्रह्मा से नहीं हुई। . चेटकोऽप्प ब्रीदेवमनात्मशस्तव प्रभुः।
श्रमण-ब्राह्मण-संघर्ष वाहोक-कुलजो वांछन् , कन्यां हैहयवंशजाम् ॥ . __साम्प्रदायिक असहिष्णुता मनुष्यकी बुद्धि पर
–त्रि० श० च० पर्व १०, सर्ग ६, पृ० ७८ । परदा डाल देती है । भगवान महावीर और अर्थात-चेटक इस प्रकार बोले कि तेरा राजा महात्मा गौतमबुद्धकी धार्मिक क्रांतिने प्रचलित अपना स्वरूप भी नहीं जानता है, जो वाहीक कुल ब्राह्मणसमाजके गुरुडमवादकी हंबग बातोंको में पैदा होकर हैहयवंश की कन्याको चाहता है। निस्सार साबित कर दिया था। लोगोंकी चेतना अस्तु ।
उषःकालके सुनहरे प्रभातमें जागृत हो उठी थी। *"क्या मैं अपनी कन्याको वाहीक कुलमें दूँ ? ना" चेटक महाराजाके ये शब्द क्या वाहीक कुलकी निम्नता नहीं जाहिर करते ? यह प्रश्न होना स्वाभाविक है। इसके उत्तरमें इतना ही लिखना काफी होगा कि रुक्मिणी-हरणके समय श्रीकृष्णके लिए रुक्मी-कुमार का यह कहना कि “मेरी बहन ग्वालेको नहीं ब्याही जा सकती," इस वाक्यके भाव पर पाठक विचार रुक्मो शिशुपालका साथी था। उसकी इच्छा थी कि रुक्मिणीका विवाह शिशुपालसे हो । श्रीकृष्ण शिशुपालके विरोधी थे। राजाओंका नियम है कि, मित्रका मित्र उनका भी मित्र होता है और मित्रका शत्रु उनका भी शत्रु होता है। इसी शत्रुतासे प्रेरित होकर रुक्मीने ऐसा कहा था। इससे श्रीकृष्णका उच्चत्व-नीचत्व सिद्ध नहीं होता। ठीक ऐसी ही बात श्रेणिकके कुलके लिए महाराजा चेटककी है। चेटक प्रधान जैन था, और श्रेणिक कट्टर तब बौद्ध धर्मावलम्बी था। यह नियम-सा है कि, एक संप्रदाय वाला दूसरे संप्रदाय वालेको नीची दृष्टिसे देखता है और अपने भाव जाति, कुल, वंश, देश, स्वभाव आदिकी ओटमें किसी न किसी तरहसे व्यक्त कर ही देता है। चेटकके वचनोंमें भी यही भाव निहित हैं, जो कि जबरन व्याहके बाद श्रेणिकके जैन हो जाने पर मिटे दिखाई देते हैं। अधिक क्या एक कुलका ब्राह्मण दूसरे कुलके ब्राह्मणों को आज भी तो हीन समझता है। इसलिए चेटकका कथन वाहीक कुलकी निम्नता नहीं साबित करता।
महाभारत जिसे, कि हम आज देखते हैं, यह तीन बार में और कम से कम तीन आदमियों-द्वारा बना है । आरम्भ में पांडवों के समकालीन श्रीव्यासजी द्वारा जो ग्रन्थ बना वह 'जय' नाम से प्रसिद्ध था, जिसमें केवल पांडवोंका हिमालयकी ओर जाने तक का ज़िक्र था। दूसरी बार श्री वैशंपायन ने उसमें राजा जनमेजय तक की घटनाओं का संग्रह कर दिया और उसका नाम 'भारत' कर दिया। आगे जैन-बौद्ध-काल में सूतपुत्र सौनिक ने काफी वृद्धि की और उसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बौद्ध-जैन-आदि धर्मों की और उनके अनुयायियों की काफी बुराई की और गिराने की चेष्टा की। यह बात महाभारत-मीमांस में पाठक देख सकते हैं।