Book Title: Aagam 45 Anugdwaar Sutra Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५] श्रीअनुयोगद्वाराणाम् चूर्णि: नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । "अनुयोगद्वार” चूर्णि: [मूलं एवं चूर्णि:] आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) । ____01/02/2017, बुधवार, २०७३ महा शक्ल ५। jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] “अनुयोगद्वार" चूर्णि: ~1~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ..............मूलं H / गाथा ||-|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: ........ प्रत सूत्राक A- % % % गाथा * श्रीअनुयोगद्वाराणां चूणिः श्रीहरिभद्राचार्यकृता वृत्तिश्च. ||-II दीप मसिद्धताकारिणी-रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांबरसंस्था. कालीयावाडीवास्तव्यश्रेष्ठिरायचंद्रदुर्लभदासनगनलालनेमचन्द्राभ्यां, श्रीमद्विजयकमलमूरिकृतोपदेशात् दत्तसाहाय्येन. मुद्रणकन इन्दौर पीपलीबजार श्रीजैनबन्धुयन्त्रालयाधिपः शाः जुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा. वीर संवत् २४५४ विक्रम संवत् १९८४ क्राइस्ट १९२८ प्रतयः ५०० पण्यं २-०. मा ब्लास्ट RCESS INESCAPI अनुक्रम ~2~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाइका: १५२+१४१ अनयोगदवार चलिका-सत्रस्य दीप-अनक्रमा: ३५०। मूलांक: मूलांक: विषयः पृष्ठांक: | मूलांक: विषय: पृष्ठांक: ००१-३५० ५४ विषय: | पृष्ठांक: अनुयोगद्वारसूत्रं ०५ , ज्ञानविषयक वर्णनं | ०५ → आवश्यक-तस्य अध्ययनं, निक्षेपा:, भेदा: इत्यादि श्रुत, तस्य निक्षेपा:, तस्य भेदा:, इत्यादि ६० द्रव्यस्कन्ध: २१ → उपक्रम:, तस्य निक्षेपादिः → आनुपूर्वी | अनुगमं |→ नाम एवं तस्य भेद-प्ररुपणा | ४६ चे प्रमाण प्ररुपणा समय आदि व्याख्या → जीवादि द्रव्य-वक्तव्यता → निक्षेप-व्याख्या → सप्तनय स्वरुपम् ९२ । ~3~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ["अनुयोगद्वार-चूर्णिः” इस प्रकाशन की विकास-गाथा] यह प्रत सबसे पहले "अनुयोगद्वाराणाम् चूर्णि:" के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में रुषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | -- हमारा ये प्रयास क्यों? -- आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले , ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है , किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र-गाथा आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र/गाथा आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। इस आगमचूर्णि के प्रकाशनोमें भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था , परंतु चूर्णि और वृत्ति की संकलन पद्धत्ति एक-समान नही है, चूर्णिमे मुख्यतया सूत्रों या गाथाओ के अपूर्ण अंश दे कर ही सूत्रो या गाथाओ को सूचित कर के पूरी चूर्णि तैयार हुई है, कई नियुक्तियां और भाष्य दिखाई नही देते, कोइ-कोइ नियुक्ति या भाष्य के शब्दो के उल्लेख है , उनकी चूर्णि भी है पर उस नियुक्ति या भाष्य स्पष्टरूप से अलग दिखाई नहि देते । इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है । हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रो या गाथाओ का क्रम, [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है, नियुक्ति के क्रम भी इसी तरह साथमे दिये है और बायीं तरफ़ उपर आगम-क्रम और नीचे इस चूर्णि के सूत्रक्रम और दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल , सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसी को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। .....मुनि दीपरत्नसागर. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] “अनुयोगद्वार" चूर्णि: ~4~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [3] गाथा II-II दीप अनुक्रम [8] श्री अनुयोग चूर्णां ॥ १॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .. मूलं [१] / गाथा || || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: अनुयोगद्वारचूर्णिः नमो वीतरागाय ॥ नमो अरिहताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्वसाहूणं, एसो पंचनमोकारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सच्चेसिं, पढमं हृत्रह मंगलं ॥ १ ॥ कांच पंचविहायारजाणतं तप्परूवणाए उज्जतं तट्ठितं च गुरुं पणमिऊण जातिकुलरूवविणतादिगुणसंपण्णो य सीसो भणड़-भगवं ! तुमंतिए अणुयोगद्दारकमं समोतारं तदत्थं च गातुमिच्छामि ततो गुरू तं सीसं विणयादिगुणसंपण्णं जाणिऊण तदरिहं वा ततो भणति सुणेहि कहेमि ते अणुओगद्दारत्थं तकमंच, जधा य सव्वज्झयणेसु समोयारिज्जंति, तं च काउकामा गुरु विग्वोवसमणिमितं आदीए मंगलपरिग्गहं करेइ, तच्च मंगलं चउविपि णामादि णिक्खिवियन्वं, तत्थ णामटवणादव्वं मंगलसु विहिणा वखांतम् भावमंगलाहिगारे पत्ते भणेति ' णमो अरिहंताणं वादि, अहवा मगला गंदी, सा चतुर्विधा णामादि, इहंपि णामहवणादव्वनंदीववखाणे कते भावनंदीऽवसरे पत्ते भणति 'णाणं पंचविध पण्णसं' इच्चादिसुत्तं, (. १-१ पत्रे ) इमस्त सुत्तस्स जहा नंदिणी नमस्कार सूत्र, मङ्गलस्य भेदा: ~5~ अनुज्ञा विधिः ॥ १ ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [२] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२] श्री अनुयोग चूर्णां ॥ २ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .. मूलं [२] / गाथा ||- || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि ...... वक्खाणं तहा इहंपि वक्खाणं दव्वं, तत्थ ' ति गाणपंचके तंमज्झयो य 'चत्तारि णाणाई' ति सुतबज्जाई ताई 'ठप्पाई'ति असंववहारियाईति वृत्तं भवति, जम्हा य ताई असंववहारियाई तम्हा ताई 'ठवणिज्जाई ' ति चिरंतु, पण तेसिं हवइ उद्देसादि, किरियाओ कज्जंतित्ति वृत्तं भवति, अहवा ताई अप्पप्पणो सरूवबनणे ण ठप्पाई, एवंविधस्वरूपाणीत्येवं ताई च गुरुअणहीणत्तणतो दूध अणुयोगद्दारदरिसणकमे य अणहिगारतणतो उद्देसणादिकिरियासु य ठवणिज्जाइति भणिताई, अहवा ठप्पाई ठवणिज्जाइति एते दोऽवि एगडिता पदा । इदाणिं इह सुतणाणस्स अधिकारत्तणतो सुतणाणं भण्ण, तं च पदीवोव्य आयपरप्पगासगं पराहीणं च तस्स सपराहीणत्तणओ उद्देसणादिकिरिया या पवसंति, ता पगयं उच्यते, आयारस्संगस्स उत्तरज्झयणादिकालियसुतखंधस्स य ओबादियाइउकालित उबंगस्स य इमा उद्देणविधी- पुब्वं सज्झायं पड़वेत्ता ततो सुतग्गाही विष्णतिं करेति इच्छाकारेण अमुकं मे सुतं उद्दिसह, गुरू इच्छामोति भगति, ततो सुतग्गाही बंदणं देइ पढमं ततो गुरू उडेचा ठंति, ते बंद, ततो वंदिय पुब्वट्टितो सुतग्गाही वामपासे ठवेत्ता जोगुक्खेवुस्सग्गं पणुवीसुस्सासकालितं करेति, उस्सारितकड्डितचवीसत्थतो तद्वितो चैव पंचणमोकारं तओ बारे उच्चारेता णाणं पंचविहं पण्णत्तं इच्चादि उद्देसणंदि कई तस्संते भणति हमे पवर्ण पहुच इमस्स साहुस्स इमं अंगं सुतखंधं अज्झयणं च उहिस्सामि, अहंकारवज्जणत्थं भणह-समासमणाणं इत्थेणं सुतं अत्थी तदुभतं व उदि ततो सीसो इच्छामोति भणित्ता बंदणं देति चितियं ततो उद्वितो भणादि संदिसह किं भणामो ? गुरु भणाति-वंदित्ता पवेदेसुति, ततो इच्छामोति भणित्ता बंदणं देति, ततियं, सीसो पुणुहितो भणति तुम्मेहिं मे अम्रुगं सुतमुद्दि इच्छामि अणुसर्द्वि, गुरू भणति-जोगं करेहित्ति, एवं संदिट्ठो इच्छामोति मणित्ता बंदणं देह, चउत्थं एत्थं - सूत्र २, ज्ञानस्य पंच-भेदाः, अनुज्ञा-विधिः प्रदर्शयते ~6~ अनुशा विधिः ॥ २ ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ................मूलं R] / गाथा ||-|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सुत्राक विधिः [२] अनुयागा गाथा माथेः II-II श्री तेरे गमोकारपरो गुरुं पदक्षिणेत्ता पुरतो ठिच्चा पुणो भणादि-तुमहिं मे अपुगं सुतमुद्दिद्वै. जोग करेहित्ति संदिवो इच्छामोतिअनुयोग नयोगणित्ता य वंदित्ता य पदक्षिण कोति, एवं तइयवारपि, एते ततोऽपि वंदणा एकं वंदणट्ठाणं, ततियपदिक्षण अनुयोचूर्णी ते य गुरुस्स पुरतो चिट्ठति, ताहे गुरू णिसोयति, णिसण्णस्स य अद्धावणतो भणाति-तुम्भं पवेदितं संदिसह साहूर्ण पवेदयामि, गुरू भणति-पवेदेहत्ति, इच्छामोति भणिचा पंचमं देति बंदणं, वंदित्ता पच्चुट्टितो कयपंचणमोकारो छ₹ देति बंदणं, पुणो ॥३ ॥ | वंदितपच्चुद्वितो तुभं पवेदितं साधूण पवेदितं संदिसह करेमि काउस्सर्ग, गुरू भणति-करेहत्ति, ताहे वंदणं देति सत्तम, एते सुतपच्चता सत्त बंदणा, ततो बंदियपच्चुट्टितो भणादि-अमृगस्स उडिसावणं करेमि काउस्सग्गं अण्णत्थ ऊससितण जांव वोसिरामोति, सत्तावीसुस्सासकालं ठिच्चा लोगस्स उज्जोयगरं वा चिंतेता उस्सारेतो भणादि-'णमो अरहताण'ति, | लोगस्सुज्जोअगरे कहिता सुतसमत्तउद्देसकिरियत्तणतो अंते केदी बंदणं देति, जे पुणो बंदणयं देति ते ण सुतपच्चतं, गुरूवकारित्ति धिणयपडिबत्तितो अट्ठमं बंदणं देंति, अंगादिसमुद्दसणेसुवि, वरं समुद्देसे पवेदिते गुरू भणति-थिरपरिजिय करे। हित्ति, णंदीण कड्डिजति ण त पदक्षिण तउबरि कारिज्जति, जेण णिसण्णो गुरू समुद्दिसइ, अंगादिअणुण्णामु जधा उद्देसे तहा सव्वं कज्जइ, णवरं पवेदित गुरू भणति-समं धारय अन्नेसिं च पवेदयसुत्ति, जोगुक्खनुस्सग्गो य ण भवति, आवस्सगादिसु पइन्नएम तंदुलवेयालियादिसु एसेव विधी, पवरं सज्झाओण पट्टावज्जइ जोगुक्खेबुस्सग्गो य ण कीरइ, ।। ३ ।। | सामाइयादिसु अज्झयणेसु उद्देसगेसु य उदिस्समाणेसु चितियवंदणपदीक्खणादिविसेसकिरियवज्जिताई सत्त थोभवद-IM णाई उबक्कमेण भवंति । जया पुण अणुयोगो अणुण्णवइ तता इमो विधी-पसत्थेसु तिहिकरणणक्खसमुहुत्तेसु पसत्थे य खत्ती दीप अनुक्रम | अथ अनुयोग-विधि: प्रदर्शयते ~7~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .................मूल R] / गाथा ||-11 ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्राक [२] गाथा II-II 18|जिणायतणादिसु भूमि पमज्जित्ता दो णिसेज्जातो कज्जति, एका गुरुणो वितिया अक्खाण, चरिमकाले य पवेदिए णिसज्जाएअनुयोग द्राणिसण्णो गुरू अहजातोबगरणो य पुरतो ठितो सीसो, गुरू सीसो दोवि मुहपोत्तियं पडिलेहंति, ततो तीए हा चूणा ससीसोवरिय कार्य पडिलेहंति, ततो सीसो भारसावत्तवंदणं दातुं भणादि-सदिसह सज्झायं पट्टवेमि, पट्ठचेहत्ति, गार्थः ॥४॥ ततो दुवगावि सज्झायं पवेति, तो पद्दयिते गुरू णिसीतइ, ततो सीसो वारसावत्तेणं बंदेह, ततो दोवि ओट्ठन्ति, अणुयोगे13 पट्टविते य गुरू णिसीयति, ततो सीसो बारसावत्तेणं बंदइ, चंदिचा गुरुणा अमिमंतणे कते गुरू णिसेज्जातो उडेइ, त णिसेज पुरतो काउं अधीतसुतं सीस वामपासे ठवेत्ता चेतिए यदइ, समत्ते चेतियवंदणे ठितो णमोकार कड्डित्ता गंदी कह तस्संते भणइ-इमस्स साधुस्स अणुओर्ग अणुजाणामि खमासमणाणं हत्थेण दव्वगुणपज्जवहि अण्ण्णातो, ततो वंदति सीसो, सो उडितो भणाति--संदिसह किं भणामो', गुरू भणति-पबेहित्ति, ततो बंदति, उट्टितो भणइ-तुम्भेहिं मे अणुओगो अणुण्णातो, इच्छामि अणुसहि, गुरू भणइ-संमं धारय अन्नेसि च पवेदय, ततो वंदइ, बंदित्ता गुरुं पदक्षिणेइ, एवं तओ वारा, ताहे गुरू प्रणिसेज्जाए णिसीयइ, ताहे सीसो पुरतो ठितो भणति-तुभं पवेदितं, संदिसह साधूण पवेदयामि, एवं सेसं पूर्ववत्, उस्सग्ग-1 सते वंदित्ता ततो सीसो गुरुं सह णिसेज्जाए पदक्खिण करति बंदइ य, एवं ततो वारा, ताहे उद्वित्ता गुरुस्स दाहिणभुया-14 18] सन्ने णिसीयइ, ततो से गुरू गुरुपरंपरागते मंतपदे कहेनि तओ चारा, ताहे बढतीओ ततो अक्खमुट्ठीतो गंधसहितातो देति, IN दाताहे गुरू णिसेज्जातो उद्देइ, सीसो तत्थ णिसीयइ, ताहे सह गुरुणा अहासमिहिया साहयो वदण देंति, ताहे सो निसेज्ज-II ठितो अणुओगी गाणं पंचविहं पण्ण इरचादि सुतं कड्डेति, कड्डित्ता जहासचीए यक्खाण करति, वक्खाते साधयो बंदण । दीप अनुक्रम [२] ~8~ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ........................मूलं ३-६] / गाथा ||-|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [३-६] गाथा अनुयोग चूणा ॥५॥ देंति, ताहे सो उद्देति णिसेज्जाए, पुणो गुरू तत्थणिसीयइ, ते य अणुयोगविसज्जणं उस्सग करेंति कालस्स य पटिकमति, अणुण्णायअणुयोगसाधू य निरुद्धं पवेदेति, एते उद्देसाइया सुत्तणाणस्सेवेत्यवधारिता, न मत्यादीनां, जतो भक्ति-सुधा-II - धिकारः णस्स उद्देसो ' इत्यादि, तेसुवि ण उद्देसादिसु अहिकारो, पुब्बमहीतत्तणतो अणुयोगद्दाराहिकारातो य, अनुयोगेनात्राहि-मद्रा कारः, तस्स णिरुत्तं इम-अणुयोगणमणुयोगो, निजन अभिधेयेनेत्यर्थः, अहवा जोगोत्ति वादारा जो सुतस्स सो यऽणुरूवो अणुकूलो वा, अनुयोग इत्यर्थः, अथवा अणु पच्छा थोवभावेति, अत्थतो जम्हां सुत्तं थोवं पच्छुप्पणं च, तेण सह अत्थस्सी जोगो अनुयोग इत्यर्थः, 'मतणाणस्स अनुयोग' इत्यादि सुतं (३-६) (४-६) (५-७) 'इम' ति वट्टमाणकालासण्णकिरियपच्चक्खभावे, अंगाणंगादिविसेसणो पुणसद्दो, पट्ठवणं प्रारमः-प्रवर्तनेत्यर्थः, दिवास णिसि पढमचरिमासु जे पढिज्जइ तं कालितं, जे पुण कालवेलवज्ज पढिज्जइ त उक्कालियं, अवस्सं जं उभयसंशकालं कज्जइ उभयसंझकाले वा जेण किरिया कज्जड तं आवस्सयं, सेसं सवं वइरित्तं 'आवस्सयगं णं' (६-९) इत्यादि, णमिति वाक्यालंकारे देसीवयणतो वा, अंग | अंगाई' ति इच्चादि, अट्ठ पुच्छातो, तामु णिण्णयावध (धार) यो ततियाछट्ठापुच्छातो आदेया, सेसा अणादेया, त्याज्या | इत्यर्थः, एत्य चोदक आह-आवस्सगस्स अंग अंगाइन्ति पुच्छाण कातम्या, जतो नंदिवक्खाणे आवस्सगं अणंगपविट्ट बक्खाणितं, इह अणंगपवितु य उकालितादिक्कमेण आवस्सगस्स उद्देसादिया मणिता, एवं भणिते का संका', आचार्य आह-अकते | गंदिवक्खाणे संका भवति, किह', ण णियमो अवस्स अंदी पढमं वक्खाणेतब्वा, जतो णाणपंचकाभिधाणमेत्तमेव मंगलामिडं, | इहपि अंगाणंगकालिउकालियादिकमो जो दरिसितो सोवि कस्स मुतस्स उद्देसा पवत इति जाणणत्थं भणितो, अणुयोग- ॥५ ॥ दीप अनुक्रम [३-६] - अथ 'आवश्यक-अधिकार: वर्णयते ~ ~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ................मूलं ७-११] / गाथा ||१|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: श्री प्रत सूत्रांक [७-११] गाथा ||१|| चाँ ESisit ॥६ ॥ कहणे पुण ग सो लद्धो कमो घोसेतब्बो, जतो गाणपंचके वक्खाते भणितं ' एवं पुण अहिगारो' गाहा, तत्थवि अहिकारो आवश्यका अषुयोगण, तस्स य इमे दारा भणिता-णिक्षेवेगढ़ णित्ति विहि पविसीय केण वा कस्सी । तदार भेद लक्खण तदरिहपरिसा :धिकारः शय सुचत्थे ॥ १॥ तीए से पक्वार्ण जचा कप्पपेढे, एत्थ य कस्सति दारं, तत्थ बत्तव्य आवस्सगस्स, ते आव०कि अंग कि अंगाईति इच्चादि, एवं अद्दपुच्छासंभवो, न दोष इत्यर्थः । खधो नियमाजायणा अक्षयणावि च ण खंधवारिता । तम्हा न दोचि गेजमा अण्णतरं गण्ड चोदताशा आ०-खंघाति सुत्तणाम तस्स य अत्थस्स भेदा अजायणा फुडभिण्णत्था, एवं दोण्डा। महो मण्यति, वा परिः'आवस्सगं णिविश्वविस्सामी' त्यादि सुतं (७-१०) जाव' आवस्सगंति णाम कोई कस्सति | जहिच्छता कुणते । दीसह लोए कस्सइ जह सीहगदेवदत्तादी॥१॥ अज्जीबेसुषि केसुवि आवास भणति एगदव्वं तु । जह | अच्चिनदुममिण भणंति सप्पस्स आवासं ॥ २॥ जीवाण बहूण जधा भणति अगणिति मसआवासं । अज्जीवाविहु बहवो जह आवास तु सउणिस्स ॥२॥ उभयं जीवाजीवा तष्णिप्फर्ण भणंति आवासं । जह राणावास देवावासं विमाणं वा ॥४॥ समुदाणुभयाणं कप्पावासं भणति इंदस्स । नगरनिवासावास गामावासं च भिच्चादि ॥ ५ ॥ (इतोऽग्रे पतितः पाठः कियान्)। गोलसालिया मुहमंडणं वा कीरइ, एते कीर अधिरतणओ ण गेज्झा, इमे गेझा-संखदण्णे तुवढादिघड़िता वराडया चेय गेज्मा, एतेसु एगाणेगेसु इच्छितागारणिब्वचणा सम्भावठवणा, जा पुण इच्छिताकारबिसुहा अणागिती सा असम्भावठवणा इति, 'णामठवणाणं को पतिविसेसो' इत्यादि (११-१३ ) सत्र, 'भावरहितमि दवे णाम ठवणा त दोवि अविसिट्ठा । इतरेतरं पडुल्चा किह उ बिसेसो भवे तासिं? ||१| कालकतो स्थ विसेसो णाम तो धरति जाव दीप अनुक्रम [७-१२] SESSACASS ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२-१३] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१३-१४] श्री अनुयोग चूणों 21-11 "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .. मूलं [१२-१३] / गाथा ||१...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: तं दच्वं । ठपणा दुभेद इचर आवकहा इतरा इणमो ॥ २ ॥ इय जो ठवणीदकतो अक्खो सो पुण ठविज्जते राया। एवित्तर आवकहा कलसादी जं विमाणेसु || ३ || अहव विसेसो भण्णति अभिहाणं बन्धुणो गिराकारं । ठपणा जो आगारो सोवि त णामस्स णिरवेक्खो || ४ || 'से किं तं दब्वावस्सए' इत्यादि (१२-१४) देहागमकिरिया वा दव्वावासं भणति समयष्णा । भावाभावचणतो दव्वजियं भावरहितं वा ॥ १ ॥ दव्वावासयं किं भष्णति 2, उच्यते, देहो आगमो क्रिया वा, तिभिवि भावसुण्णा दव्यानस्सतं, कहें ?, उच्यते ?, जधा भावसुमत्तणतो दम्बजियं भण्णति तथा आवस्सगभावसुमत्तणतो दव्वावस्वयं तं इमं 'जस्स आवस्सएत्ति पदं सिक्विनं' इत्यादि (१३-१४), जं आदितो आरम्भ पढ़तेणं अंतं गीतं तं सिक्खितं, तं चैव हितए अविस्सरणभावठितं ठितं भन्नति, जं परावत्तयतो परेण वा पुच्छितस्स आदिमाते सव्वं वा सिग्घमागच्छति तं जितं, जं वण्णतो तनुगुरुयबिंदुमत्ताहि पयसिलोगादिहि य संखितं तं मितं भणजे, जं कमेण उकमेण उ अणेगधा आगच्छति तं परिजियं, जधा सणामं सिक्खितं ठितं च तेण समं जं तं णामसमं, अहवोपदिकं गुरूवदि जं सिक्खितं णामसमं स्वनामवत्, उदासादिता घोसा ते जधा गुरूहिं उच्चारिया तथा गहिर्तति, घोससममिति एगदुगादिजक्खरेहिं कोलियकयपात सोय्त्र पण्णविज्जमाणे सुते काउं भवतो विच्चामेलितं दितो कोलियकयपातसोच्व, एवं ण विच्चामेलितं अविच्चामेलियं जहा गणधरदब्धं स्वभावस्थितमेवेत्यर्थः, बिंदुमनादियहिं जे बूबइ अणूणातिरितं परिपुष्णं भष्णति, जतोवर वा छंदेण, लहुगुरुअंसेहिं पुण्णं उदत्तादिरहिं वा घोसेहिं उच्चरतो पुर्ण, गुरुणा अब्बतं णुभासतं बालमूजमपितं वा, कई वा भासतो गहियं? उच्यते, कंठे बंङ्कितणे परिफ़डउडचिप्पयुकेण भासतो गहियं, एवं गुरुसमीवातो तेणागतं, ~ 11~ आवश्यका धिकारः ॥७॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ..............मूलं [१४] / गाथा ||१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: श्री प्रत सूत्रांक [१४] गाथा ||१..|| ॥८॥ | ण कण्णाहेडित पोत्थयाओ वाअण,ण भवति । अणच्चक्खरं' ति अहियक्खरंति ण भवति, अब्बाइ अविवधखरं पद, 1 आवश्यकादापादसिलोमादीहि य उवलाकुलभूमीए जधा हलं खलते तथा ज परावत्यतो खलते ते स्खलितं ण क्खलितं अक्खलित, IS अण्णानसत्वमिस्स तं मिलितं, दिहतो असमाणधण्णमेलोच्व, एवं जण्ण मिलितं, उच्चरतो वा पदपादसिलोगादीहि वा अमि-11 दलितं, विच्छिष्णयतीत्यर्थः, एगातो चेव सत्थातो जे एकाधिकारिसुचा ते सब्बे वीणी एगतो करेति, एवं विच्चामेलितं, अहवा समतिविकप्पिते नस्समाणे सुत्ते काउं चुवतो विच्चामेलितं दिढते धानं, तमेव आवस्सएति सुतपदं अहिजित्ता से णं कसा अधीतसुतः 'तत्थे ति आवस्सतसुते अणुयोगस्स चायणादी करेजा, णो अणुपहाएति दवावस्सतं न लम्भति, जतो | नियमा अणुप्पेहा उवयोगपुब्बिया भवति, पर आह-सेसेसु कम्हा दवावस्सयं, उच्यते, 'अणुवयोगो दन्च'मितिकड, जे वायणादिसु उवयोगानुपयोगाः भवतीत्यर्थः । इदाणिं जं आगमतो दब्यावस्मयं तं गयेहि मग्गिज्जति-जतो भणितं-णेगमस्स | एगो अगुवउत्तों इत्यादि सूत्र (१४-१७) जावइया अणुवउत्ता आगमतो ततियाई दव्यावस्सयाई गेगमस्स, भेदपधाणतणतोक | भेदाणुसारितणतोत्ति, संगहस्स आगमतो दवावस्सतं तं विभागठितंपिएगं चैव तं, कंठे सूत्रवत्,आगमदब्वावस्सयस्स य णिच्च चणतो पिरवयवचणतो अविकिरियत्तणतो सध्वगतत्तणतो य सामन्नमत्तस्स संगहस्स एग दन्नावस्सयं, ववहारस्स जहा णेग3 मस्स, सव्वसंचवहारालंबिचणतो चवहारस्स य विसेसाहीणतणती, उज्जुसुत्तो एग आगमदव्यावस्सयं आयत्थं वद्यमाणकालियं 5 लाव इच्छति, कज्जकरणतणउ त स्वधनवत्, सेस णेच्छति पयोयणाभावा, परधनवत, तिहं सद्दणयाणं जाणतो अणुवउत्तोट IMI अवत्थू, कह?, जति जाणतो अणुवउत्तो ण भवनि, अणुवउत्तो जाणतोण भवइ, दोऽवि परोप्परं एते विरुद्धा पदा, शब्दनवाथ दीप अनुक्रम [१५]] अत्र द्रव्य-आवश्यक अधिकार: प्रस्तूयते ~ 12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५-१९] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१६-२०] श्री अनुयोग चूर्णां ॥ ९ ॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि:) ..मूलं [१५-१९] / गाथा ||१...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: निश्चितवस्तुस्वरूपग्राहकाः, असमंजसं नेच्छयन्तीत्यर्थः, गतं आगमतो दव्वावस्सगं । इदाणि 'से किं तं गोआगमतो दव्वावसयं ' इच्चादि सुतं ( १५-१९ ), आगम सव्वणिसेही णोसो अथव देसपडिसेही। सब्वे जह णसरीरं सव्वस्त य आगमाभावा ॥ १ ॥ किरियाममुच्चरंतो आवासं कुणति मात्रसुण्णोय । किरियागमो ण होती तस्स णिसेहो भवे देसो ॥ २ ॥ आवस्सएति जं पदं तस्स जो अत्थो सो चैवत्थाहिकारो भन्मति, अहवा अणतगमपज्जायं सुतमितिकाउं तत्थ जे अणेगविहा अत्थाहिकारा तंजाणगस्स जं सरीरगं तं किंविसिहं १, भग्रह- ' ववगते ' त्यादि, ( १६-१९ ) ववगतं सरीरं जीवातो जीवो वा सरीरातो, एवं तु तावाद, पत्तं जीनेश देहं चखो देहेम वा जीवो, जीवेण विप्वजढं सरीरं जीवो न विजो सरीरेण एवं एते एगडिता वंजणभेदओ, अणगडा इमेण विहिणा चत्रगर्तति पज्जायंतरपत्तं खीरं व कमेणं जं दहिसणेण तव तेण पज्जाया अचयणतं च उपयंति चुतमिति ठाणन्भ, भट्ठेति देवोव्व जह विमाणातो, जीवितचेयण्णाकिरियादिभई चुतं भणिमो, चाइतति चावियं तं जडु कप्पा संगमो सुरिंदेश वह जीवा चाइतो इमो देहो आउक्खएणंति, अहषा ववगयं जं तं चतं ' इण गतौ धातु'ति गतं चुतभावातो तं जीवातो चहयचतदेहंति देसपाणपरिच्चत्तं जम्हा देहं ठितं विगमपखे तम्हा समयविहीन्नू चतं देहं भगति एवं जीवविप्पजयंति विविहप्पमारेण जदं शरीरं जीवेणेत्यर्थः, कई ?, उच्यते, गंधछेदत्तणतो आयुक्खयतो य जीवविप्पजढं तिपगारेणं जीवणभावट्टितो जीवो, अहवा एगडिता पदा एवे, सिज्जादिया पसिद्धा, गर्तति तत्रस्थं कथं इत्यर्थः, 'सिद्ध सिल' ति जत्थ सिलातले साहवो तबकम्मिया सयपे गंतुं भचपरिणिगिणिं पादवगमणं वा बहवे पवष्णपुव्वा पडिवज्जंति य तत्थ य खेत्तगुणतो अहाभद्दियदेवतागुणेण वा आराहणा सिद्धी व जत्थावस्सं भवति सा सिद्धसिला, अहो दैन्यविस्मयामंत्रणेषु ~13~ द्रव्यावश्यकं ॥ ९ ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .........................मूलं [१५-१९] / गाथा ||१...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: द्रव्यावश्यक प्रत सूत्रांक [१५-१९] गाथा ||१..|| त्रिष्वपि युज्यते, अनित्यं सरीरमिति दैन्ये, आवश्यक सुजातमिति विस्मये, अन्यं पार्श्वस्थमामंत्रयतो वा आमंतणे, गुरुसमीवातो 3 आगमित आपवितं, मिस्साणं कहणे पनावित, मुत्ने सुत्ते जहत्थेणऽत्यनिरूवर्ण जंतं परूविर्त, आवस्सगपडिलेहणादिकिारयाओव-1 दसितं, इयं क्रिया एमिरधरैः कर्तव्येत्यर्थः, सिस्सपाडिच्छयाणं अण्णाणाणं पुणो पुणो जो जधा जावइयं वा घेत्तुं समत्थो तस्स | तथा दैसितं उवदंसितं, उत्प्राबल्यार्थः, अहवा आपवितं आख्यातं,-आवासतं अवस्सं कराणज्ज धुवणिम्गहो बिसोही व । अज्झयणछक्क वग्गो गातो आराहणा मग्गो ॥१॥ नमणेण सावएण य अवस्स कायव्वयं हवति जम्हा। अंतो अहो णिसस्स उ तम्हा | आवस्सयं णाम ॥ २॥ आपबेत्ता जं भेदहि कहितं तं पण्णवितं, जहा णामठवणादब्वभावावस्सयामति, आपवियभेदकहियस्स भेदाणं प्रति प्रति अत्थरूवणा परूवर्णति भमति, आषवियभेदयत्थपरूवियस्स जं उदाहरणेण दंसर्ण जघा जणस्स सुरुदयादिवेलासु मुहधोवणादिअपस्सकिरियाकरणं आवस्सयं, धिज्जादियाण वा ण (अ)ज्जा( उवलेवण) वासणादिकरणं वा एवं दसिर्य, आषवियकापरूवियदसियस्स णिदसणं उवसंधारेणं जधा तेसि जणवताणं मुहधोवणादिकिरिया अवस्सकरणतातो आवस्सताणि भणति तहा अम्हवि उभयसंझासु अवस्सपडिकमणभावातो जघा जत्थ काले पडिलेहणादि अवस्स कज्जति तं आवस्सगं एवं णिदंसितं उबदसितं, आपवितं आघवेसा पण्णवितं पण्णवेत्ता परुवियं परुविना दंसितं दंसित्ता निदसिय णिदसित्ता उबदसितं जधासत्ति सब्बण-IN एहि अत्थगमपज्जवा पंचावयवेण (दशा) वयवेन वा एवं उबदसितं, अहवा एते एगट्टितपदा, सीसो पुच्छति-कह अचयण सरीरं| &आगमकिरितातीत दग्वावस्सगं भणणति , एत्थ जघा को दिद्रुतो ?, आचार्य आह-अतीतमधुप्तघटपर्याये मधुघृतघटादिवत, 'भविए नि योग्य, आवस्सगम्स ग्रहणधारणव्याख्यानाच्च नेत्यर्थः, जोणी गम्भाधारस्थानं ततो सम्वहा पज्जत्तो जन्मत्वेन दीप अनुक्रम [१६-२०] RECR -~14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ...........................मूलं [१५-१९] / गाथा ||१...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५-१९] गाथा श्री अनुयोग। वश्यक चूणा ||१..|| ॥११॥ निष्क्रान्तः, आमगम्भनिकमणप्रतिषेधार्थमेवमुक्त, आदर्ग-गृहीतं, योऽयं शरीरसमुच्यः तनन्मानकाले, अहवा समुल्य इति प्रति । समयमुच्छ्रतं कुर्वाण, प्रवर्द्धमानेनेत्यर्थः, जिनेन उवदिवो जिणोवबो तेण जिगोबदिट्ठण भावेण, को त सो मावो?, उच्यते, कम्म-13 क्षपणार्यविधिना, सेयाले सिक्खिस्सति, सत्ति स भव्य आगामिनि काले मनिका आगामिनि) एतेसि चतुण्डं अक्सराण लोवेणं सेयालेत्ति भणित, सेस कंख्य, 'जाव ईसरे' त्यादि, रायत्ति चकबड्डी वासुदेवो बलदेवो महामंडलीओ वा, जुबराया अमच्चादिया ईसरा, अहवा ईसरविच ऐश्वर्ययुक्त ईश्वरः, तच्चाष्टविधं ऐश्वर्य इम-अणिमा लपिमा महिमा प्राप्तियांकाम्य इति ईसित्वं वसित्वं यत्रकामावशायित्वं, राइणा तुडेण चामीकरपट्टो रयणखइतो सिरस रही यस्स सो तलवरी भण्णति, जे मंडलिया राई ते कोडुनी, छिनमंडवाहिवो मंडबी, इमो हरथी तप्पमाणो हिरण्णमुवण्णादिपुंजो जस्स अस्थि अधिकतरो वा सो इन्मो, अमिपिच्यमानश्रीवेष्टनकबद्धः सववणियाहिवो सेट्टी, चउरंगिणीए सेणाए अधिवो सेणावई, रायाणुण्यातो चतुब्बिई दविणजाय गणिमधरिममेज्जपारिच्छेज्ज घेत्तुं लाभत्थी विसयंतरगामी सत्थवाहो, 'कल्ल'मिति यः प्रगे वा, तच्च कल्यमाविकान्तमनागतं वा, एतच्च कल्यग्रहणं परवग पडुच्च, जओ पनवगो वितियजामे पनवेति, पादुरिति प्रकासीकृतं, केन, प्रभया, किं प्रकासित , रयणीए सेस, किमुक्तं भवति !, अरुणोदयादारभ्य यावनोदयते आदित्य इत्यर्थः, तैसि पभाति, पभातोवलक्षणं च इम, फुल्ला उप्पभा कमला य कोमला उम्मिल्लिया अद्धविकसिता य सोमना, पभातपि तत्तुल्लं, अरुणप्पभातस्स, अधेत्यनंतरं पांडुरमिति प्रभाखचितेव्व उदिते सूरे भवति, किंविशिष्टे सूज्जे ?, उच्यते, रत्तासोगादि, प्रधानमुत्तमो वा इह समूहः खंड उच्यते, तमि सूरिते उदिते इम आवस्सय कुमति 'मुहचावणे' त्यादि, अनधितानि पुष्पाणि प्रथिवानि माला, अहवा विगसियाणि पुष्पाणि अविगसितानि माल्य दीप अनुक्रम [१६-२०] 4 ॥११॥ ~15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [२०] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२१] श्री अनुयोग चूर्णां ॥ १२ ॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .. मूलं [२०] / गाथा ||१...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र- [ ०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: अहवा वत्थामरणा मल, सभा जत्थ भारहाइमाइकहाहिं जणो अच्छती, पवा जत्थ उदगं दिज्जति, आरामो विविधफलजातिउपसोभितो आरमंते वा जत्थ णरणारीजणा, उज्माणं विविहजनोवसोभितं अहचा ऊसवअणूसवेसु वा मंडियपसाहितो जणो असगादि तु जत्थ भुंजति तं उज्जाणं । गतं लोइयं दव्वावस्तयं, 'से किं तं कुप्पावयणितं (२०-२४) इत्यादि, जडाहि भिक्खं हिंडति ते चरगा, चीरपरिहाणा चीरपाउरमा चीरभंडोवकरणा व चीरीया, सम्मपरिक्षणा चम्पारणा चम्मभंडोवकरणाय चम्महिं| डंता चम्मखण्डिता वा, भिक्खं उडेंति भिक्षाभोजना इत्यर्थः बुद्धसासणत्था वा सिखंडी, पंडुरंगा सारक्खा, पायवडणादिविविहसिक्खाइ बद्दल्लं सिक्खावंतो तं चैव पुरो कातु कण्णभिक्खादि अडतो गोतमा, गावीहिं समं गच्छति चिति वसंति य आहारिमे य कंदमूलपचपुण्फफले आहरित सरगवरगमायणेसु य दिष्णं असणादि गोण हव भक्खयंतो गोव्वतिया, सव्वसाधारणतो गृहधर्म एव श्रेयान् अतो गृहधर्मे स्थिता गृहधम्मत्था, गौतमयाज्ञवल्कप्रभृतिभिः ऋषिभिर्या धर्मसंहिता प्रणिता तं चितयंतः तामिर्व्यवहरंतो धर्मचिंतगा भवति, ते च जने प्रत्याख्याताः धर्मसंहितापाठकाः, अविरुद्धा वेणइया वा हथियारपासंडत्था जहा वेसियायणपुत्ती सव्वदेवताणं तिरियाण य सब्वाविरोधपणामकारितणतोय अविरुद्धधम्मठिता भणिता, विरुद्धा अकिरियाचायडिता सव्वकिरियाबादी अण्णाणियवेणईएहिं सह विरुद्धा, ण य तेसिं कोषि देवो पाडो वा विज्जति, तहवि केई धिज्जी| विताइकज्जेण देवतं पासंडं वा पडिवन्ना विरुद्धधम्मचिन्ता भणिया, उस्सण्णं युडवते पव्वयंतिति तावसा बुड्ढा भणिता, सावगधस्मातो पसूयन्ति वंभणा बोहमति भणिता, अण्णे भांति बुड्डा सावगा बंभणा इत्यर्थः, स्कंदः - कार्तिकेयः मुगुंदो-वलदेवः, दुर्गायाः पूर्वरूपं अत्र कूष्माण्डिवत् तथाठिता अज्जा भन्नति, सैव महिषव्यापादनकालात्प्रभृति तद्रूपस्थिता कोट्टन्या भण्णति, ~ 16~ द्रव्यावश्यक ॥ १२ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [२१-२७] गाथा ||?..|| दीप अनुक्रम [२२-२८] श्री अनुयोग चू “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि:) .. मूलं [२१-२७] / गाथा ||१...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: ॥ १३ ॥ सेसा इंदाइया कंठा, तेसु इमे आवस्सए करेंति-उवलेवणं लिंपणं, संमज्जणं बोहरणं, आवरिसणं उदकेण, सेस कंठ्यं । कुप्पावयणियं दव्वावस्सतं गतं, 'से किं तं लोगुत्तरियं इत्यादि (२१-२६) जहा टे(के) गगादिणा घट्टा सरीरं केसा वा उदकादिणा मट्ठा कता केसा सरीरं वा तेल्लेण तुष्पिता मक्खिता जेसि ते तुप्पोट्टा तुष्पिता वा उट्ठा सिद्धकेण जेसिं ते तुप्पोडा सेसं कंठ्यं, सद्धासंबे★ गरहितत्तणतो, दव्वावस्सतं गतं । ' से किं तं भावावस्सयं ' इत्यादि, ( २२-२८ ) संवेगजणितविसुज्झमाणभावस्स सुतमणुस्सरतो तदा भावयोगपरिणयस्स आगमतो भावावस्सगं भवति, णोआगमतो भावावस्त्रयं णाणुपयोगेण किरियं करेमाणस्स णाणकिरियारूवसुभोवयोगपरिणयस्स गोआगमतो भावावस्तं तं तिविधं तत्थ 'लोइयं पुत्र्वण्हे भारहं' ( २५-२८) इत्यादि कंठ्यं, कुप्पावरणियं 'जे इमे चरग ' इत्यादि इज्जत्ति बज्जा माया मज्जा भणिया देवपूया वा इज्जा तं गायत्र्या आदिक्रियया | उभयस्स सोहणा करेंति दोवि करा नउलसेठिया तं इट्ठदेवताए अंजलि करेंति, अण्णे भगति इज्जा इति माता तीए गन्भस्स णिग्ग|च्छतो जो करतलाणं आगारो तारिसं देवताए अंजलि करेंति, अहवा माउपिये भत्ता देवयमित्र मध्यमाणा अंजलि करेंति, सा इज्जंजली, इट्ठदेवयाए वा अंजलि इटुंजली, होमं अग्निहोचियाणं जं पढमओ जपः, देसीवयणतो उंडं मुहं तेण रुकंति सद्दकरणं; तं च वसभदिकियाह णमोकारो जधा णमो भगवते आदित्याय एवं खंदादियाणवि वसव्वं गतं कुप्पावयणीणं भावावस्सयं । इदाणि ' से किं तं लोगुत्तरियं ' इत्यादि (२७-३०) तच्चित्तादि पया एगट्टिता, अहवा एगस्सेवऽत्थस्स तदसत्ता भिण्णत्था भवंति घटग्रीवाक्ष्यादि, इह पुण इमेण विहिणा- णिच्छयणयाभिप्पाएण चित्त इत्यात्मा, तहेच चित्तं तम्हि वा चित्तं तच्चित्तं, अहवा मतिसुतणाणभावे चिचं अहवा आवस्यकरणकाले व अभ्णोष्णसुतत्थ किरियालोयणं चितं, तदेव मनोद्रव्योपरंजितं मनः, अब भावावश्यक वर्णयते ~ 17~ द्रव्यावश्यकं ॥ १३ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .मूलं २७-२८] / गाथा ||२-३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत चूर्णी सूत्रांक [२७-२८] गाथा ||२-३|| ॥१४॥ तदेव चित्तं द्रव्यलेश्योपरंजित लेश्या, एते परिणामवसा वर्तमानभिण्णकाला भवंति, क्रियया करोमीति प्रारंभकाले, मनसाऽध्यव-8 भावालासित, तदेवोत्तरकालं संतानक्रियाप्रवचस्य प्रवर्द्धमानश्रद्धस्य तीब्राध्यवसितं, प्रतिसूत्रं प्रत्यर्थ प्रतिक्रियं वाऽर्थेऽस्य साकारोपयोगोप-15वश्यक युक्तो तदट्टोवयुत्ते, वस्साहणे जाणि सरीररजोहरणादियाणि दव्याणि वाणि किरियाकरणनणतो अप्पियाणि प्रतिसमयावलिकादि- द्रव्यश्रुत च ४ कालविभाग प्रतिस्त्रार्थ प्रतिक्रिय प्रतिसंध्यं संताणतो तम्मावणाभावितो भवति, एवं अणनमणस्स उपयोगोषयुत्तस्स भावावस्सतं भवति, एत्थ पसत्येण लोउत्तरभावावस्सएष अधिकारी, तस्स य अभिण्यात्था पज्जायवयणा असंमोहणत्थं भणिता, ते य णाणार्यजणा णाणावंजणतणतो चैव णाणाविहवासा भवति, ते य इये 'आयस्सगं' गाहा (२-३०) आवस्सगं अवस्सकरणिज्जं जं तमावासं, अहवा गुणाणमाचासत्तणतो, अहया आ मज्जायाए वासं करेइति आवास, अहवा जम्हा ते अवासयं जीवं आवासं करेति दसणणाणचरणगुणाण तम्हा ते आवासं, अहवा नकरणातो गाणादिया गुणा आवासितित्ति आवासं, अहवा आ मज्जायाते पसत्थभावणातो आवासं, अहवा आ मज्जाए बस आच्छादने पसत्थगुणेहि अप्पाणं छादेतीति आवास, अहवा लसुण्णमप्पाणं तं पसत्थभावेहि आवासेतीति आवास, कम्ममढविहं कसाया इंदिया वा धुवा इमेण जम्हा तेसि णिग्गहो कज्जइ तम्हा धुवाणिग्गहो, अवस्सं वाणिग्गहो, कम्ममलिगो आता विसोहिज्जतीति विसोही, सामादिकादि गण्यमानानि पडध्ययनानि, समूहः वग्गो, णायो युक्तः अभिप्रेतार्थसिद्धिः श्राराधणा मोक्खस्स सवपसत्यभावाण वा, लद्धीण पंथो मार्ग इत्यर्थः, 'समणेण' गाहा, (*३-३१) एसा अहोणिसत्ति दिणरयणीमध्झे, आवस्सगेत्ति गतं ।। 'से किं तं सुते' त्यादि ( २९-३१) तं चतुर्विधं णामादि, नामठवणा कंठया, दन्यसुतं आगमओ गोआगमतो य, जे आगमतो तं अणुवयोगतो सुतमुच्चारयंतस्स जै त, ॥१४॥ दीप अनुक्रम [२९-३२] अथ श्रुतस्य नामादि भेदा: कथयते ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ...........................मूलं R९-३७] / गाथा ||३...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: A A प्रत सूत्रांक [२९-३७] चूणीं। गाथा ||३..|| पोआगमतो तं तिविई जाणयसरीरादि, जाणयमवसरीरा दग्वसुता कंठ्या, बहरितं इम-तालिमादिपत्तलिहितं, ते चेन तालिअनुयोग भावामादि पत्ता पोत्थकता तेसु लिहितं, पत्थे वा लिहितं, अबवा सुतं पंचविह-अंडयादि, अंडाज्जातं अंडज, ते च हंसग, अंडमितिका वश्यक कोसिकारको हंसगम्भो भष्णति, हंसो पक्खी सो त पतंगो तस्स गम्भो, एवं चडयसुत्तं हंसगर्भ मण्णति, लोगे यप्पतीत, चडय- व्यश्रुतं च | सुत्तं पतंगतो तं भन्नति, अने य पंचिदियहंसगम्भ भणंति, कीडयं पंचविहं 'पट्ट' इत्यादि, जंमि बिसए स पट्टो उप्पज्जति | ॥१५॥ तत्थ अरने यणणिगुंजट्ठाणे मंसं चीड चा आमिस पुजेसु ठविज्जइ, तेसिं पुंजाण पासओ णिण्णुण्णता संतरा बहवे खीलया भूमीए11 उद्धा णिहोडिज्जंति, तत्थ वणंतरातो पदंगकीडा आगच्छति, तं तं मसचीडाइयं आमिसं चरंता इतो ततो कीलतमु संचरंता लालं मुयंति एस पट्टो, एस य मलयविसयवज्जेसु भणितो, एवं मलयविसयुप्पण्णो मलयपलो भण्णति, एवं चेव चीणविसयवहिमुष्पण्णो असुपट्टो चीणविसयुप्पण्णो चीणंमुयपट्टो, एवं एतेसि खेत्तविसेसतो कीटविसेसा कीटबिसेसतो य पट्टविसेसो भवति, एवं मणुयादिरुहिरं घेत्तुं किणावि जोगेण जुत्तं भावणसंपुरपि तविज्जति, तत्थ किमी उप्पज्जति, ते वाताभिलासिणो छिद्दनिग्गता इतो ततो य आसण्णं भति, तेसि णीहारलाला किमिरागपट्टो भण्णति, सो सपरिणाम रंगरंगितो चेव भवति, अण्णे भणति-जहा दारुहिरे उप्पन्ना किमितो तत्थेव मलेत्ता कोस उतारेचा तत्थ रसे किंपि जोगं पक्खिविता यत्थं रयति सो किमिरागो भष्णति । अणुग्णाली, बालयं पंचविधं उडिगे' त्यादि, उप्पोट्टिता पसिद्धा, मिरहिंतो लहुतरा मृगाकृतयो वृहरिपच्छा तेसि लोमा ॥१५॥ मियलोमा, कुतबो उंडुररोमेसु, एतेसि चेय उष्णितादीणं अवघाडो किट्टिसमहबा एतसिं दुगादिसंजोगजं किट्टिस, अहवा जे अण्णे साणगा (छगणा) दयो रोमा वे सब्जे किट्टिसं भन्ननि। 'से किं तं भावसुते' त्यादि (३८-३५) आगमोवउपस्सX दीप अनुक्रम [३३-४१] CARRORS 'द्रव्य-श्रुत' अधिकार: वर्णयते ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ................मूलं ३८-४३] / गाथा ||४|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [३८-४३] गाथा ||४|| मावश्रुतं स्कन्धनिक्षेपाच नृणों | भावसुतं, जम्हा सुतोवयुत्तो ततो अणण्णो लम्भति णोआगमतो भावसुतेत्यादि, इह चोदक आह-सुतोवयोगोवयुत्तस्स आगमतो अनुयागत |भावसुतं जुत्तं, णोआगमतो कहं भावसुतं भवतीति, गोगारो सुयपडिसेधे, सुदमागमो ण भवति, अह ते ण सुत्पडिसहे तो सुतं | णोआगमो कहं भवति ? आचार्याह-अणेगत्था निवाता इति कातुं भण्णति चरणगुणसंजुत्तस्स सुतोवयुत्तस्स णोआगमं भणिमो, एत्थ चरणगुणा आगमो ण भवति, तस्स पडिसेहे एव पोसद्दो देसपडिसेहे, तं च णोआगमओ भावसुत्तं दुविहं लोइयं लोउत्तरंच, &ा मिच्छदिटिप्पणीय मिच्छासुतं, तं च लोइयं भारहादि, सम्महिट्ठिपणीतं संमसुतं, तं च लोउत्तरं आयारादि, सेस जहा नंदीए वक्खातं वधा दहन्छ । इदाणिं तस्स एगडिता पंच णाणावंजणा णाणाघोसा, ते य इमे 'सुततंत' गाथा(*४--३८)कंठ्या, एत्थ अण्णे इमे पढंति, | 'सुय सुत्त' गाहा । एते अत्थपज्जायतो अणेगडिया इमेण विहिणा-सोइंदियलद्धिविसयमुवगतं सुतं मण्णति, गुरुसमीबा वा सवणभावे | सुतं, गुरूहि अणकखातं जम्हा णो बुज्झति तम्हा पासुत्तसम सुत्तं, वितिगिणपुष्फठिता इव अत्था, जम्हा तेण गंथिया तम्हा गंथो, सिद्धमत्थमंतं णयतित्ति सिद्धंतो, अन्नाणमिच्छबिसयकसायप्रवलभावावद्वितजीवाणं सासणेण सत्थं, अहवा कडसासण| मिव सासणं भणितथ्वं, आणमणं आणा, तद्भाव इत्यर्थः, आणयति वा एयाए आणा, वायते वयणं, वइजोगेण वा गण्हति, जम्हा बायोगविसर्य णं भण्णति, इहपरलोगहियपवत्तणअहियणियत्तणउवदेसप्पदाणातो उबदेसो भण्णति, प्रति जीवादिभेदतव"स्य पण्णवणतणतो पण्णवणा, अहवा पण्णा बुद्धी तं च मविणाणं भावमुतणाण वा, तेहुवलद्धे अत्थे वणाइति सद्दकरण, तेण | सह योजयंतस्स पण्णवणा भण्णति, सुधम्मातो आरम्भ आयरियपरंपरेणागतमिति आगमो, अत्तस्स वा वयणं आगमो। 'से किं तं खंधे , इत्यादि (४४.-३८) खंधो नामादिचतुर्विधो तत्थ णामट्ठवणा कंठा, दथ्येवि जाव पति दीप अनुक्रम [४२-४९] ARCak | अथ भावश्रुतस्य अधिकारः आरभ्यते ~ 20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .........................मूलं ४४-५८] / गाथा ||५-७|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक स अनयाग निक्षेपाः [४४-५८] गाथा ||५-७|| ॥१७॥ रिचे सचिचादि, तत्थ सचित्ते हयाई, अचित्ते दुपदेसीदाइ, मासे सेणाए अग्गिमखंधादी, अहवा एसेव सचिचाइ अण्णामिधाणेण तिविहो कसिणादिसण्णत्ति, तत्थ कसिणो जो च्चेव हतादी सचित्तो भणितो, सोच्चव अविसिडो,31 स्कन्ध| अकसिणोवि दुपदेसादी चेव अविसिहो, अणेगदवियदवियखंधो पुण उवचितो भाणितब्बो, अहवा सुत्तकारण | विसेसदसणत्यमेव वितितो कसिणादिभेदो उवण्णत्थो, किं चान्यत्, अभिधाणविसेसतो णियमा चेव अत्यविससतो | भवति, सो त वकखाणतो विसेसो लक्खिज्जति, तत्थ हयादिए सच्चित्तो, सचित्तगहणातो जीवसमूहबंधो विवक्खितो, दुप-18 देसादियाण अचित्तत्तणतो अचित्तखंधत्तणं भणित, जियाजियदन्वाण विसिस्सहिताण जाव समूहकप्पना स मीसबंधो, सो चेव हयादी सचित्तखघो कसिणो भन्नति, कह?, उच्यते, जीवाजीवपदेसेसु तं जे सरीरपरिणया दब्बा, एरिसो विवक्खियपिंड| समूहो कसिणखंधो भन्नति, अकसिणवि दुपदेसतिपदेसादिए पहुच्च पदेससंखया अकसिणो भण्णति, एवं सेसावि भाणियच्या, जाव सब्बहा कसिणं ण हवति, अणेगदचियखधो जीवपयोगपरिणामिया जीवपदेसोपचिया य जे दच्चा ते अणेगविधा, अने। | तत्थेव जीवपयोगपरिणामिवा जीवपदेससु त अवचिता एरिसादि दवा अणेगविधा, एरिसाणं उवचियाण्णावचयिदग्याण बहूणं | |समूहो अणेगदवियखंधो भण्णति, गतो दवखधो । से किं तं भावखंधो इत्यादि (५४-४२) खंधपदत्थोपयोगपरिणामो जो सो आगमतो भावबंधो, णोआगमतो भावखंधो णाणकिरियागुणसमूहमतो, सो त सामादियादि छण्हं अजायणाणं संमेलो, एत्थ |किरिया णोआगमोत्तिकांउ, गोसदो मीसभावे भवति, तस्स य भावखंधस्स एगहिया इमे 'गणकाय' गाथा (५-४३) एवेसु । अस्थदंसगा उदाहरणा इमे-मल्लजनगणवद् गणः पृथिवीसमस्तकायजीवकायवत् कायः छजीवणिकायवत् निकायः ब्यादिपरमाणु-6 दीप अनुक्रम [५०-६९] ॥१७॥ अत्र 'स्कन्ध' शब्दस्य निक्षेपा: कथयते ~21~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [४४-१८) गाथा दीप अनुक्रम [५०-६९] श्री अनुयोग चूर्णी ॥ १८ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .. मूलं [४४-५८] / गाथा ||५-७|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: स्कंधवत् स्कंध ः गोवर्गवत् वर्ग: मीलितधान्यराशिवत् राशिः विप्रकीर्णधान्यपुंजीकृत पुंजयत् पुंजः गुडादिपिंडीकृतपिंडवत् पिंड, हिरण्यादिद्रव्यनिकरवत् निकरः तीर्थादिषु संमिलितजनसंघातवत् संघातः, राज्ञेो गृहांगणे जनाकुलवत् आकुलः पुरादिजनसमूहवत् समूहः । सीस्रो पृच्छति कई छव्विहं आवस्यतिः, भण्णति, जतो सामादियादियाण सावज्जवज्जणादि छब्बिहो अत्यणिबंधो, इमे य ते अत्था - 'सावज्जजोग' गाथा (६-४३) पढमे सामादियज्झयणे पाणादिवायादिसव्वसावज्जजोगविरती कायच्चा, चितिए दरिसणविसोहिणिमित्तं पुणबोधिलाभत्थं च कम्मखवणत्थं च तित्थगरणामुकित्तणा कता, ततिए चरणादिगुणसमूहतो बंदणणंमसणीदह पडिवची कातव्या, चउत्थे मृलुत्तरावराहक्खलणाए क्खलितो पचागतसंयेगे विसुज्झमाणभावो पमातकरणं संभरंतो अप्पणो जिंदणगरहणं करेति, पंचमे पुण साधू वणोवणपण दसविहपच्छित्तेण चरणादियाइयारवणट्स तिगच्छं करेति, छड्डे जहा मूढत्तरगुणपरिवती निरतियारधारणं च जधा तेसिं भवति तथा अत्थपरूवणा । इदाणिं ओवस्सयस्स जं वक्खातं तस्य ज्ञापनार्थ जं च व्याख्येयं तस्य च ज्ञापनार्थ इदमाह 'आवस्सगस्स एसो ' गाथा ( *७-४४ ) छण्हवि अज्झयणा जो सामणत्थो स पिंडत्थो भण्णति, सो य पवणितो, इदाणि अज्झयणेसु जो जहा पत्तेयमत्थि स वहा सवित्थरो वणिज्जति, तंजधा- ' सामादियं इत्यादि ( ५९ -- ४४ ) सूत्रं तत्यत्ति अज्झयणछकमज्झे । जं पढमं सामादियंति अज्झयर्ण, तं च समभावलक्खणं सव्वचरणादिगुणाधारं चोपिय सम्बद्व्वाणं सम्बविसेसलद्धीण य हेतुभूतं पार्थ पावअंकुसदाणं, चवीसत्थवाइया बिसेसलक्खणेहि भिण्णा भाणितव्वा अहवा जतो तं सामायिकं णाणदंसणचरणगुणमयं णाणादिवइरित्तो य अण्णो गुणो णत्थि, सेसज्झयणावि जतो णाणादिगुणातिरित्ता ण ~ 22~ स्कन्ध निक्षपाः ।। १८ ।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [५१-४०] गाथा दीप अनुक्रम [७०-८०] श्री अनुयोग चूण ।। १९ ।। "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) ..मूलं [१९-४०] / गाथा |||७... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: भवंति अतो तेऽवि तम्भेदा एव दडब्बा इति, तस्य पढमज्झयणस्स चतुरो अनुयोगदारा, तत्थ दितो जहा महापुरं अकयद्दारं अपरिभोगचणतो अणगारमिव दव्वं, अहेकदार तधावि हयगोमहिसरहसगडादिएहिं जुगवं पवेसनिग्गमेण जम्हा दुक्खसंचारं भवति, तम्हा सुहप्पवेसनिम्गमया चतुम्मूलदारं कतं पुणो इत्थीवालउडमाइयाणं सुहसंचारयरं भविस्सइत्तिकाउं अंतरंतरेसु पडिदुचारा कया, एवमेत्थं एकतमज्झयणत्थो अणुयोगपुरं तस्स अग्गहो अकतदारे, दुधाभिगमत्तणं गातुं, गुरूहि उनकमादिचउदुवारं कर्त सुहाभिगम्मत्तणतो अंतरमंतरदुवारसरित्था उनकमस्स उ भेदा य, णयस्स पुणो उत्तरुत्तरभेदेहिं अणेगभेदठिती कता, तत्थ उबकमोचि अज्झयणस्सोवकमा समीकरणं णिक्खेवस्स एस भावसाहणो, तेण वा उवकमिज्जइत्ति जोगत्थवहणेण उवकमो, एस करणसाहणो, तंमि वा उबकम्मिज्जत्ति उवकमो सीसस्स सवणभाषे, एस अहिकरणसाहणो, ततो वा उनकमिज्जा उवकमो, सीसो गुरुं विणएण आराहेता अक्षयणसम्भार्व कथावेन्तो अप्पणो अवादाणत्थे वट्टर, एस अवादाणसाहणो, एवं उनकमेण णिक्खेवसमीवमाणियं अज्झयणं णिक्खिप्पिज्जर, णिक्खिवर्णं णिक्खेवो तेण वा करणभूतेण णिक्खिप्पति तर्हि वा णिक्खिप्पर ततो वा णिक्खिप्पतित्ति णिक्खेवो, भियतो णिच्छितो वा खेवो णिक्खेवो, अत्थभेदन्यास इत्यर्थः णिक्खिश्चस्स य अणुगमण मणुगमो तेण वा अणुगम्मति तर्हि वा अणुगम्मति ततो वा अणुगम्मतित्ति अणुगमो, अणु वा सुतं तस्साणुगमणभावातो अणुगमो, अत्थातो सुतं अणु तस्स अणुरूवगमणतातो अणुगमो, सुत्तानुगमो, सूत्रस्पर्शनानुगम् वेत्यर्थः, नयनं नयः भावसाधनः अहवा नयतीति नयः कर्तृसाधनः तेन वस्तु स्वरूपं नीयत इति नयः तर्हि वा तस्स वा वत्थुणो पज्जायसंभवेण बहुधा नयनं नतो भण्णति । एतंमि उवकमादिदारकमे कारणं इमं णासमीवत्थं जतो णिक्खिप्पात अतो अम्मा ~23~ आनुपूर्व्यधिकारः ।। १९ ।। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७१-८१] गाथा ||2|| दीप अनुक्रम [८१-९२] श्री अनुयोग चूणा ॥ २० ॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .. मूलं [७१-८१] / गाथा ||८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णिः सकरणत्थं आदावेव उबकमो कतो, जम्हा व अणिक्खितं णाणुगम्मति तम्हा उबकमाणंतरंच गयं णिक्खेचो, णिक्खित्तं च णियमा णाणत्थमणुगम्मति णाणं च अत्थपज्जायाणुसारी य नियमा गयतो अतो णयदारातो पुव्यं णिक्खेवाणंतरं वा अणुगमो भणितो, अणुममो य णयतो गियमा णयवइरित्तो य अणुगमो जतो णत्थि, किं वा सव्वाभिधाणसच्वपज्जायाणुगया य णयत्ति काउं अंते णयदारं । इदाणि जं वृत्तं छव्विधो उवकमो, तो गुरू समीहितत्थाय अत्थकते छ भेदे दंसेति, तंजधा णामट्टवणा दव्वखेचकालभावोवकमे य, णामडवणा जधा पुव्वं, दब्बे आगमतो णोआगमतो य, तत्थ णोआगमे जाणयभव्वसरीरातिरित्तो तिविधो सनि अचित्तमीसा, सचित्ते दुपयच उप्पयापदेसु, एकेको दुहा-परिकम्मणे वत्थूविणासे य, खेत्तकालेसु य सवित्थरं भाणितव्वं, भावतो इमो गोआगमे पत्थो अपसत्थो य, अप्पसत्थे मरुइणिगणिया मच्चदितो, पसत्थे गुरुमादिभावोचकमो, एवं सव्वं सवित्थरं जधा आवस्सगादिसु तथा भाणितथ्यं, अहवा सुतभणितो उवकमो छन्विधो इमो आणुपुव्विमादी 'से किं तं आणुपुच्ची' १२ दसविधे त्यादि (७१-५१ ) आकारस्स दीहत्वं अनुपूर्वशब्दस्याकारादित्वात् अनुपूर्वादिषु प्रत्ययान्तरस्य चाश्रवणात् प्राकृतेषु 'एते सव्वसमाणा' इति दीर्घहस्वत्वं क्वचित् विषये क्रियत इति, जधा अणणुगामी अणाणुगामी अभिणिबोधो आभिणिबोधियं, एवं आणुपुब्बी, आयणुए अणुजेड परिवाडित्तिवृत्तं भवति, अहवा पुब्वदिट्ठस्स जं पच्छा उहि तं अणु भण्णति तं अणुपूर्वत्वं लभते जत्थ तं मणति आणुपुथ्वी, तृतीयस्य द्वितीयः पूर्व इत्यर्थः, अणु पच्छाभावो पुण्वंति आदिभावो अत्थतो पड़प्पनं मज्झमादो य, एतं जत्थऽत्थिमूघो ( भावो ) सा होति आणुपुथ्वी, अहवा पढमातो परं जत्थ अणुपुव्वं च अस्थि स भवति आणुपुब्बी, एसा आणुपृथ्वी दसविधा णामादी, ' से किं तं णामे त्यादि कंठया, जाव उवणिधिकेत्यादि, उवणि अत्र आनुपूर्वी अधिकार: आरभ्यते ~24~ आनुपूर्व्यधिकारः ॥ २० ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ................मूलं ७१-८१] / गाथा ||८|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [७१-८१] गाथा अनुयोग चूणों ॥२१॥ ||८|| | हियत्ति दुपयं सुत्न, इदाणं एतस्सत्थो-इमं अज्झयणं गुरुवतिजोगे आणुपुवीए उवयंतित्ति वा पक्खतित्ति है। आनुपूर्व्य| वा छुमतित्ति वा, अहवा इमं अजायणं आणुपुब्बीए आतभावेण उवेतित्ति वा उत्तरतित्ति वा अवतरतित्ति वा एगहूँ, INIधिकार | अहवा णिहितंति वा णिहेतित्ति वा ठवेतित्ति वा एगट्ठा, एवं बहुधा पयत्यो भणिओ, इमस्स अज्झयणस्स उवणिहि-| नेण द्विता जाव अणुपुच्ची सा उवणिहिया भवति, पुद्रुतरं भण्णति, जा अणुपुब्बी इमं अज्झयणं पुन्वाणुपुचीयादीहि अणेगधा भवति, उवकमेति पक्खिवइत्ति वुत्तं भवति, जधासंभवपरिखते य इमं अज्झयणं णिहीकतं भवति, एवं उवणिहिया भवति, सिस्सा- | भाववणिहितं इत्यर्थः, इमो समुदायस्थो उवकमाधिकारे जोयेज्जा, सा उवणिहिता अनया अधिकारः इत्यर्थः, जा पुण अणेगधा अत्थपरूवणाए पुरूवितावि इमस्स अज्झयणस्स णो योइया ण उवणिहियभावे देसिता आणुपुव्वी सा अणोवणिहिया अध्ययन अनधिकार इत्यर्थः, उवणिहिया ठप्पात चिट्ठतु ताव उवणिहिया, अणोवणिहियं ताव बक्खाणेति, तस्स पिट्ठतो उवाणहिया | भण्णिहिति, किं पुण यकमकरण?, उच्यते, अणावणिहिया सह(विसेस)स्था, तत्थ जो सामण्णत्थो सो परूवितो चेव लब्मतित्तिकाउं| अतो उक्कमो कतो, साय अणावणिहिया दवट्ठियणतमतेणं दुविधा, ते य णया सत्त णेगमादी एवंभूतपज्जता, ते दुविधा कता-दब्बठितो पज्जवठितो य, आदिमा तिणि दव्यठितो, सेसा पज्जवठितो, पुणो दव्वठितो दुविधो-अविसुद्धो विसुद्धो य, अविसुद्धो णेगमक्वहारा दव्यमिच्छति किण्हादिअणगविहगुणावहितं तिकालभवंति अणेगभेदठितं णिच्चमणिच्चं च तम्हा ते अविसुद्धो || दवठितो, एतेहिंतो विसुद्धतरो दवठितो संगहः, कहमुच्यते-जम्हा संगहो विसेसभेदं परमाणुआदियं एग चेव दवमिच्छते, [॥२१॥ कण्हादिअणेगगुणपरमाणुत्तसामण्णतणतो, एवमादि संगहो विसुद्धतरो, एत्थ अविसुद्धदब्बेहि य गमववहारमतेण अणावणि-| दीप अनुक्रम [८१-९२] CARDAGARLSEX ~25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७१-८१] गाथा ॥८॥ दीप अनुक्रम [८१-९२] श्री अनुयोग चूण ॥ २२ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ (चूर्णि ) ..मूलं [७१-८१] / गाथा ||८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि हिया पंचविधा ' अत्थपदपरूवणे' त्यादि (*१३-५३ ) अर्ध्यत इत्यर्थः अर्थः तेन युक्तं पदं अर्थपदं तस्स परूवणा कथितव्वेत्यादि, तेसिं चैव अत्थपदाण विगप्पकरणं भंगो, तेसिं जहासंभवं उच्चारणा उत्तिणा, भंगसमुत्कीर्तणे जो भंगो जेण अत्थपदेण जेहिया अनपदेहि भवंति तं तहा दंसेइचिभगोवदंसणा भण्णति, अणुपुव्विमादियाण पयत्थाण सट्टाणपरट्ठाणावतारगवेसणमग्गो जो सो समोतारो, अणुपुच्चिमादियाण चैव दव्वाण संतपदादिएहि अगधा जं अत्थाणुसरणं तं अणुगमोत्ति, इमा अन्धपदपरूवणा, 'तिपदेसिते अणुपुच्ची' इत्यादि, तिपदेसो खधो आणुपुब्बी जाता, तस्स अणुति--पच्छाभागो पुव्वत्ति- आदिभागो अत्थओ मज्झभागो य, अहवा इतिसहातो मज्झभागो पुब्बट्टो, एवं चउप्पदेसादयोवि उवउज्ज वत्तच्या, परमाणुत्तणतो परमाणू तस्स किण्ड्रादिभावेहिं पूरणगलणतणतोय पुग्गलता, सो अणाणुपुब्बी भन्नति, जतो वस्स ण अणुभागो पुव्वभागो वा अण्णो परमाणू तेण सो अणाणुपुथ्वी, दो पदेसा जस्स धस्स सौ दुपदेसो, अत्थपदपरूवणाए अबत्तब्बो भाणितब्बी, जतो तस्स पुय्यभागो पच्छभागो य अस्थि, ण मज्झभागो, सो एवंविहरूवेण ण आणुपुब्वीअणणुपुच्चिवलक्खणेसु अवतरतिति द्विप्रदेशिकः अवक्तव्यतां प्राप्तः, एतदेव अणुपुच्चिमादी त्रितयं बहुवचनेन वक्तव्यं, अनंतद्रव्यसंभवात्, चोदक आह-किं एते अत्थपदा उकमेणं कता, जुत्तं कमेणं अणणुपुत्री अव्यत्तव्यतं अणुपुथ्वी य काउं ?, आचार्याह- अणापुपुव्वीवि वक्खाणंगति ण दोसो, किं चान्यत्-आनुपुथ्वीद्रव्यवङ्गत्वज्ञापनार्थे स्थानबहुत्वज्ञापनार्थं च पूर्वनिर्देशो, ततोऽल्पतरद्रव्यज्ञापनाथ अणानुपृथ्वी ततोऽल्पतरावक्तव्यज्ञापनार्थमवक्तव्य इत्यदोषः, गता अत्थपदपरूवणा । इदाणि भंगकित्तणा-तत्थ तिन्हं जत्थगदाणं एगवयणेण तिमि, अणुपुब्वि अणाणुपुब्बीए य चतुभैगो, आणुपुथ्वि अवतव्य एय चतुर्श्वगो, अणाणुपुब्बी जवतन्त्रए र चतुर्भागो, आणुपृथ्वि अणाणुपुब्बी ~26~ आनुपूर्ण धिकारः ॥ २२ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [bf-cr] गाथा ॥८॥ दीप अनुक्रम [८१-९२] श्री अनुयोग चूर्णी ॥ २३ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ (चूर्णि ) ..मूलं [७१-८१] / गाथा ||८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि अवतव्य य अड भंगा, एवं एते सच्चे छब्बीस भंगाः स्याद् बुद्धिः -किमत्थं भंगोत्कीर्त्तनं १, उच्यते वक्तुरभिप्रेतार्थं १, प्रतिपर्याय नयमतप्रदर्शनार्थं च, किंच-असंजुतं संजुतं वा समाणमसमाणं वा अण्णवसंजोग जह चैव बत्ता दव्वविवक्त्रं करेति तहेव चैति गमववहारति भगसमुत्तिणा कता । इदाणि भंगोवदंसणति तिपदेसिनेणं आणुपुव्वीत्ति भंगो, परमाणुपोग्गलेणं अणाणुपुव्वित्ति भंगो, दुपदेसितेणं अव्वत्तव्वेत्ति भंगो भवति, एवं बहुवयणेणचि तिष्णि भंगा भावेतच्वा, तथा तिपदेसिएण परमाणुपोग्गलेण य आणुपुब्विणाणुपुव्विति भंगो भवति, एवं सब्वे संजोगर्भया मात्रेतब्बा, चोदक आहे-नणु अडपयपरूवणाए त्रिप्रदेशात्मिका आनुपूर्वीत्यादि लब्धं मंगुक्किचणाए य मण्णति अणुपुब्बीत्यादि, आणुपुच्विग्रहणे य कते अवगतमेव भवति जधा तिपदेखिए ण अणाणुपुव्विति मंगो, किं पुणो मंगोवदंसणा भणाति जधा तिपदेसिता आणुपुब्बीत्यादि, आचार्य आह-सुणेहिं जहा संहिताइछन्विधव्याख्यानलक्षणे पदत्थं माणिऊणं पुणो तमेवत्थं सवित्थरं मुत्तफासियाए समासचालणापसिद्धीहि मणतस्स ण दोसो तथा इहपि सु(यत्थे) पदपरूवणाए पदत्थमेचे उवदिट्ठा भगसमुत्ति य हेतुविकले कते मेमोवदंसणाए सहेतुभंगोवदंसणे सवित्थरे ण दोसो भवति, सेसं कंठ्यं गता भंगोवदंसणा । 'से किं तं समोतारे' इत्यादि, सम्पक अवतारो समोतारो अर्थाविरोधेनेत्यर्थः, समसंख्यावतारो वा समोतारो, जधा एगपदेसितो एगपएसिए दुपदेसितो दुपए सिए तिपएसिओ तिपदेसिए एवमादि, समाभिधाणे वा उतारो जधा उरालत्तणतो ओरालियदव्या सब्बे ओरालियवग्गणाते समोयरंति, तहा अणुपुब्बिय्वेसु चैव उयरंति, एवं सेसा सट्टा भाणियच्या, णो परड्डाणेसुचि, गतो समोतारो । इयाणि ' से किं तं अणुगमे' त्यादि, अर्थानुगमनमनुगमः अनुरूपार्थगमनं वा अनुगमः अनुरूपं वाऽन्तस्यानुगमनाद्वा अनुगमः सूत्रार्थानुकूलगमनं वा अनुगमः, एवं नयेष्वपि वक्तव्यं, संत-विज्जमानं पदं तस्स अत्र अनुगमस्य वर्णनं आरभ्यते ~ 27 ~ आनुपूर्व्यधिकार: ॥ २३ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ..........................मूलं ८२-८६] / गाथा ||८...|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [८२-८६]] गाथा ||८|| ॥२४॥ ECREKAR | अत्थकहणा परूवणा सा संतपदपरूवणा भन्नति, ते य अणुपुस्विमादिया, तथा अणुपुचिमादियाण दव्याणं पमाणं वत्तव्यं, तेसि | 31 आनुपूर्व्य| चेव खेचकाला फुसणा य, तेसिं चेकदव्वाणं तब्भावअपरिच्चारण ठितिकालो बोत्तव्यो, तदत्थत्तेण पुच्छणया अंतरं, आणुपुच्चि |धिकारः दव्या लोगस्स कतिभाए भावे य, सेसावि त दव्वा कतरंमि मावे, आणुपुब्विअणाणुपुच्चीअव्वत्तव्याण य परोप्परं अप्पबहुतणं दहव्वं, सवित्थर सुत्तेणेव भष्णति, 'आणपुब्बियाई कि अस्थि णस्थि' ति पुच्छा, पन्नवग आह-कुतः संशयः, भण्णति& दुहामिहाणं सत्थमितरं घडं खपुष्फादी । दिट्ठमतो आरेका किमथि णथिचि पुच्छाए ॥१॥ नस्थित्ति गुरूवयण, अभिहाणं हैं | सत्थयं जतो सव्यं । अभिहाणं खरमातियतं पत्थुते, सो उ सहत्थो ॥२॥ तेसि इमं दबप्पमाणं, किं संखेज्ज' इत्यादि (८२-६०) पुच्छा, उत्तरं च सुत्तसिद्ध, तिष्णिवि अर्णता जिणवयणे दिद्वत्तप्पमाणातो केवलणाणिवयणयत्तणओ संदिट्ठियहेतुतो[RI यव्वाणि, ताणि खेत्तओगाहे 'लोगस्स किं संखेज्जतिभागो' इत्यादि (८३-६०) पंचविधा पुच्छा सुत्तसिद्धा, उत्तरं 'एग दव्वं पहुच्चे' त्यादि, आणुपुव्विदच्चविसेसा परिणतिविससेण अप्पत्तमहत्तणतो य जधाविभत्तखेचभागे पूरेंति, | पुच्छासमं चेव उत्तर वाच्यं, किं चान्यत्-जम्हा एकेके आगासपदेसे सुहुमपरिणामपरिणता अणंतआणुपुविदव्या संति, णाणा-18 दब्वमग्गणाए नियमा सव्वलोए, ण सेसविभागेसुत्ति, अणाणुपुन्विएगदव्वे पंच पुच्छा, उत्तर-लोगस्स असंखेज्जइभागे एगपदेसावगाहणतणतो, ण सेसविभागेसु, अणाणुपुब्बिदब्बे पूर्ववत् , एवं अव्वत्तबगदव्वावि, णवरं दुपदेसावगाहणतणतो एगपदेसाव-18 गाहणतणतो वा । इदाणिं फुसणा 'किं संखेज्जतिभागे' इत्यादि (८४-६२) सव्वं सुत्तसिद्धं, णवरं अवगाहणाणतरठिते छदिसि पदेसे फुसतित्ति भावेतन्वं, 'कालतो केवच्चिरं' इत्यादि [८५-६३ ] आणुपुग्विदन्वाण आनुपूर्वित्वोत्पादप्रथमसम दीप अनुक्रम [९३-९७] ~ 28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ........................मूलं ८२-८६] / गाथा ||८...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: धिकारः प्रत सूत्रांक [८२-८६] गाथा ||८|| ॥२५॥ R | यारम्भं संताणतो अव्वोच्छिन्नं जहण्णुकोसतो कालमग्गणा एगाणेगदष्वेसु समयादि यावत्परा असंख्यैव स्थितिः, सेसं सुत्तसिद्ध, आनुपूर्य अणाणुपुबिअव्यत्तच्चेसु एवं चेव, 'केवतियं कालं अंतर' इत्यादि [८६-६३] आणुपुब्बिदन्वाणं अंतरंति जै तिपदेसादि। दिआदिढ पुष्बदन्यत्तणं पाविस्संति, उत्तरं सुत्तसिद्ध, एगादिसमयतर विस्ससपरिणामहेतुतो वाच्यं, अणंतकालंतर पुण दवाणेगदु-६ |पदेसिगादि जाव अणंतपदेसुत्तरो खंधो ताव अणंतवाणहेतुत्तणतो भाणियन्वं, णाणादन्वेदि लोगस्स असुनत्तणतो पत्थि अंतरं, चूर्णी | अणाणुपुग्विदल्याण अंतरं उकोसतो असंखेजं कालं, कह ?, उच्यते, अणाणुपुब्बिदब्वेण अवत्तव्यगदम्वेण वा आणुपुग्विदग्वेण वा सह संजुत्तं उकोसठिति होतुं ठितिअंते ततो भिण्णं ते णियमा परमाणू चेव भवति, अण्णदव्वाण चोक्खत्तणतो, एवं | उकोसेण असंखओ अंतरकालो भणितो, सेस सुत्तसिद्धं, अव्वत्तव्बतंदबाणवि अंतरं उकोसण अंतर(अर्णत)कालो, कहा | उच्यते, जं आदिटुं अव्वतब्बगदव्यं तं जया तद्दब्वचण विगतं ततो तस्स परमाणवो अण्णअव्वत्तब्बगदब्लेहि * आणुपुच्चिदम्बेहि अणाणुपुविदव्येहिं संजुत्ता जहण्णमज्झिमुकोससीठताहि य अणंतकालं परोप्परतो विसंघयाहेतुं पुणो ते चेव & | दोवि आदिद्रुअब्बत्तबगदवपरमाणवो विस्ससापरिणामहेतुतो परोप्परं संबद्धा पुग्वसमं चेव अम्बत्तव्बगदम्वत लमंति, एवं तेसि | | अंतरं अर्णतकालो दिहो, 'आणुपुग्विदव्वाई सेसगदम्वाणं कतिभागे'(८७-६५) इत्यादि, सेसगदव्वाति-अणाणुपु-द्र | ब्बीदब्वा अम्बत्तगदन्वा य दोवि एको रासी कतो, ततो पुच्छा चउरो, एत्थ गिदरिसणं इम-संखज्जतिभागो पंच, पंचभागे | सतस्स वीसा भवति, सतस्स असंखज्जइभागो दस, दसंभाग दस चेव भवंति, सतस्स संखेज्जेसु भागेसु दोमाइगेसु पंचभागे | पुबुत्ता वीसादी भवंति, सतस्स असंखज्जेसु भागेसु अट्ठ दसभागेसु असीती भवति, चोदक आह-णणु एतेण णिदसणेण सेसगद दीप अनुक्रम [९३-९७] ECENSE M ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .......मूलं ७-८९] / गाथा ||८...|| ... प्रत श्री आनुपूर्व अनुयोग सूत्रांक [८७-८९] गाथा ||८..|| ॥ २६॥ चाणआणुपुच्चिदव्वा थोषयरा भवंति, जतो सयस्स असीती थोवतरति, आचार्य आह-ण मता तिनिति तम्भागसमा ते दव्या, वह 31 गच्छेसु ते समा मया भण्णई, सेसदव्या असंखज्जभागे एव भवतीत्यर्थः, अणाणुपुब्बिदब्बा अब्बतब्बगदम्बा य असंखेज्जतिभागे धिकारः मवंति, सेस मुत्तसिद्ध, 'कतरंमि भावे' इत्यादि (८८-६६)भवनं भूतिर्वा भावः, औदयिकादिस्स पंचधा भण्णति, कश्च एत्थ', परिणतिलक्षणो पारिणामिको, सो दुविधो-सादि अणादी य, अम्भिदधणुमादिएसु सादि सो, धम्मादीएम अणादी, आणुपुच्चिमादिया तिष्णिवि दवविकप्पा सातिपरिणामिते भावे भवंति, सेसा उस्सणं जीवसंभवा भावा तेण तेसि पडिसधो, सेस | सुत्तसिदै । इदाणि आणुपुब्बिमादियाणं दव्यपदेसट्टादिएहि अप्परहुयत्तणचिंता, तत्थ दवड्डया एगाणेगपुग्गलदम्बेसु जधा संभवतो पदेसगुणपज्जयाधारया जा सा दवद्वता भण्णति, पदेसट्टया पुण तेसु चेव दव्वेसु प्रतिपदेस गुणपज्जायाधारया जा सा |पदेसट्ठया, उभतरूवा उभतडया, एतेहिं आणुपुबिमादियाण दवाण अप्पबहुसंखा सा सुत्तसिद्धा, णवरं अव्यत्तनगदव्या दब्बतो IN | सव्वत्थोवा, कहं ?, उच्यते, संघातभेदा उप्पत्तिहेतुअप्पचणतो, तेहिंतो अणाणुपुब्बिदब्बा विसेसाहिया, कह ?, उच्यते, बहुतरा-15 सयउप्पत्तिहेतुत्तणतो, तेहिंतो आणुपुग्विदम्बा संखेज्जगुणा, कह, उच्यते, तिगादिएगपदेसुत्तरवृडिब्बठाणपहुत्तणतो संघातभेददव्वबहुतणतो, एत्थं भावणविही इमा-एगदुतिचतुपदेशे य ठविता १-२-३-४, एत्थ संघातमेदयो पंच अवत्तव्वगा दवा भवंति, दस अणाणुपुब्बिदब्बा, भेदतो भवति संघाततो वा, एगकाले तिमि अणुपुब्बिदव्या भवंति, क्रमेण वा एगद्गादिसंजोग ४ ॥२६॥ | भेदतो एत्थ चउदस आणुपुबिदव्या भवंति, एवं पंचपदेसादीसुवि भावेयचं, सवण्णवयणयोगा अप्पारहुचिता सद्धयत्ति, सेंस व्यं, इदाणि पदेसद्वताए अप्पबडुवं, तत्थ पदेसढताए सबथोवा अणाणुपुग्विदश्या, कई ?, उच्यते, तेसिं अणाणुपुब्बिदवाणं CACACAN दीप अनुक्रम [९८१००]] ~30~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [८७-८९] गाथा ||८|| दीप अनुक्रम [९८ १००] श्री अनुयोग चूर्णी 1| 210 11 "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) ..मूलं [८७-८९] / गाथा ||८... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: अपदे सताए- अपदेसहेतुराणत्तोत्ति वृतं भवति, चोदक आह-पएसताए थोवत्ति मणिउं पुणो अपदेसट्टयं भगह गणु विरुद्ध, आचार्य आह-जं जणाणुपुव्विदच्वं तं शियमा एकप्रदेशात्मकं ण तस्स अण्णो दव्वरूवो पदेसो अत्थित्ति अपदेसदृता भूणिया, अत्र अपएसडया पदेसता य ण तत्थ परोप्परं विरुद्धत्था इति, अव्यत्तव्वगदव्वा अणाणुपुव्विदव्वेहिंतो पदेसताएति प्रदेशादेशाच्चेह सप्रदेशहेतुत्तणतो वा विसिट्टा बिसेसाहिता भवंति एत्थ उदाहरण-बुद्धीए सतमेता अध्यशब्वगदम्वा कता, अणाणुपुब्बिदव्वा पुण दिवसतमेला कता, एवं द्रव्यत्वेन विसिष्टा विशेषाधिका भवति, पदेसत्तेणं पुण अणाणुपुम्बिदव्या अप्पणी दव्बट्ठताए तुल्ला चेव, अपदेसत्तणतो, अब्बत्तब्बगदम्बा दुअणुपदेसत्तणपदेसचणतो विसिट्टा बिसेसाधिका इदाणिं दुसतमेता भवति, तेहिंतो अणुपुव्विदच्या पदेसताए अनंतगुणा भणिता, कई १. उच्यते, आणुपुदिव्याणाचतो तेसिं च संखासंखमणतपदेसचणतोय, इदाणि उभतट्टता, सुतसिद्धा उपयुज्जिउं भाणितव्या, गता गमववहाराणं अणवणिहिया दव्याणुपुथ्वी । इदाणि संग हणयमणं अणोरणिधिया दव्वाणुपुब्बी भण्णात, सा पंचविधा ' अत्थपदपरूवणे 'त्यादि (९०-६९ ) संगहितपिं डितत्थं संगहणतो इच्छत्तिकाउं भवे तिपदेसा खंधा तिपदेसाविसेसचणतो एका तिपएसाणुपृथ्वी एवं चउप्पदेसादयोवि भाणितव्वा, पुणे • आणुपुब्बी अवि एका सच्चा तिचउप्पदेसा दिया एक अविसिद्धअणुपुच्चिए इक इच्छहारी, अणाणुपुष्यि अन्यत्तच्या ताईपि, भंगसमुकित्त णाभंगोवसणाथ वा सत्त भंगा कित्तिया पदसेइ य, सेसो अक्वरत्थो जधा णेगमववहाराणं तहा वत्तब्बो, संगहस्स समोयारो सहाणे पूर्ववत् कत्तब्बो चोदक आह--जं सट्टाणे समोदरतित्ति भगह किं तं १, आयभावो सङ्काणं, तो आतभावाट्ठत्तणे समोयारो भवति, अथ परदन्यं तो अणुपुब्विदव्वस्सा अणाणुपुव्विअवतव्यमदव्यावि मुत्तित्तवण्णा दिएहिं समभावत्तणतो सङ्काणं भवि ~ 31~ आनुपूर्णधिकारः ॥ २७ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .................मूलं १०-९७] / गाथा ||९|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: श्री प्रत सूत्रांक [९०-९७] गाथा ||९|| अनुयोग चूणा ॥२८॥ ४ स्सति, एवं चोदिए गुरू भणति-सथ्वदल्या आतभावेसु वणिज्जमाणा आतभावसमोयारा भवंति, जतो जीवदब्बा जीवभावेसुआनुपूव्र्यसमोयारेजति पो अजीवभावेमु, अजीवदब्बा अजीवभावेमु न जीवभावेस्वित्यर्थः, परं दबपि समप्पंते समतणतणतो सहाणे धिकार: घेप्पतित्ति ण दोसो, इह पुण अधिकारे आणुपुब्विभावविसेसत्तणतो आणुपुब्बित्ति दवपक्खे समोतरतित्ति सट्ठाण भणित, एवं अणाणुपुण्विअन्वत्तव्येसुवि सट्ठाणे समोतारो भाणितब्बो इति । इदाणि अणुगमे, संतपदपरूवणादितो अडविधो, कह ,181 उच्यते ? भागद्दारप्पबहुबाण दोण्हवि एगत्तणतो, तत्थ संतपदं पूर्ववत्, संगहस्स दव्बप्पमाणं णियमा एको रासी, चोदक आहदव्यप्पमाणे पुढे असिलिट्ठमुत्तरं, न, को रासित्ति पमाणं कथितं, जतो बहूर्ण सालिबीयाणं एगो रासी भण्णति, एवं बहूणं आणु-IN पुब्बिदब्वाणं एको रासी भविस्सति, बहू पुण दवा, आचार्य आह-एकराशिगहणेणं बहूसुवि आणुपुब्बिदब्बेसु एग एव आणुपु-द्र विभावं दंसिति जधा बहुमु कठिणगुणत्त, अहवा जधा बहू परमाणवो खंधभावपरिणता एगखंधो भण्णति एवं बहू आणुपुग्विदव्या आणुपुयिभावपरिणतत्तातो एगाणुपुन्वितं, एगलणतो य एगो राशित्ति भणितं ण दोसो, संगहखेत्तावगाहमग्गणाए आणुपुब्बि- मादिदव्या सेसदब्वाण नियमा तिभागेत्ति, चोदक आह--णणु आदीए अध्चत्तव्यगेहितो अणाणुपुथ्वी बिसेसाहिया तेहिंतो आणु पुब्चि असंखेज्जगुणा, आचार्य आह-तं गमववहाराभिष्पायतो, इमं संगहाभिप्पाएणं भणित, किं चान्यत्-जहा एगस्स रनो तयो ४ पुत्ता, तेसिं अस्से मग्गताण एकस्स एको आसो दिण्णो सो छ सहस्सं लभति, वितियस्स दो आसा दिण्णा, ते तिण्ण तिणि ४ सहस्से लभीत, ततियस्स चारस आसा दिण्णा, ते पंच पंच सते लभंति, विसमावि ते मुलभा पडुच्च तिभागे पडिता भवति, एवं | अणुग्विडिया विसमावि दव्वा अणुपुग्वीअणाणुपुथ्वीअष्वचध्वगचिभागसमत्तणतो णियमा तिभागोत्ति भणियं ण दोसो, दीप अनुक्रम [१०१ CREAKKACCCCCX ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [९०-९७] गाथा ||९|| दीप अनुक्रम [१०१ ११०] श्री अनुयोग चूर्णौ ॥ २९ ॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .. मूलं [९०-९७] / गाथा ||९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र- [ ०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: सातिपरिणामिते भावे पुव्ववत्, गता अणोवणिहिया दव्याणुपुच्ची । इदाणि उवणिहिया दव्वाणुपुथ्वी, सा तिविधा 'पुव्वाणुपुच्वी(९७-७३) त्यादि, पुवंति पढमं तस्स र्ज वितियं तं अणु तंपि ततियं पड़च्चा पुष्वं गणिज्जमाणं पुव्वित्ति, इइ एवं इच्छियठाणेसु गणणा जा सा पुव्वाणुपुथ्वी, अहवा पढमाती आरम्भा अणुपरिवाडीए जं भणिज्जति जाब चरिमं तं पुव्वाणुपुब्बी, जत्थ सा ण भवति इच्छियठाणेसु ओमत्थगं गणिज्जमाणे पच्छिमति चरिमं तं चैव पुब्वं गणिज्जइ ततो जं वियं तं अणु तंपि तति यं पडुच्च पुच्वं भवति, एवं पच्छाणुपुब्बी भवति, अहवा चरिमा ओमत्थं गमन् अणुपरिवाढीए गणिज्जमाणं पच्छाणुपुथ्वी भण्णत्ति, अणाणुपुव्वित्ति जा गणणा अणुत्ति पच्छा पुच्ची ण भवति पुव्वित्ति पुच्चाणुपुव्वी य ण भवति सा अणाणुपुब्बी भण्णति, एतेसिं तिच्हषि अत्थपसाहकमा इमे सुत्ताभिहितं उहाहरणं- 'धम्मत्थिकाए' इत्यादि, जीवयोग्गलदव्वाण गतिकिरिया परिणयाण उबग्गहकरणतणओ धम्मो, अस्तीति ध्रौव्यं आयति कायः उत्पादविनाशो, अस्ति चासी कायश्च अस्तिकायः धर्मश्वासावस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः ठितिहेतुत्तणतो अधम्मो जीवपोग्गलाण ठितिपरिणताण उवग्गहकरणा वा अधम्मोति, अस्तिकायशब्दः पूर्ववत् अधर्म्मश्चासावस्तिकायश्च अधर्मास्तिकायः, सव्वदव्वाण अवकासदाणतणतो आगास' का दीप्तौ ' सर्वद्रव्यस्वभावस्यादीपनादाका स्वभावस्थानादित्यवत् आशब्दो मर्यादाभिविधिवाची मर्यादया स्वस्वभावादाकाशे तिष्ठति भावा तत्संयोगेपि स्वभावेनैव नाकाशात्मकत्वं यांति, अभिविधिरपि सर्वभावव्यापनात्सर्वसंयोगात् इत्यर्थः, जीवास्तिकायः यस्माज्जीवि तवान् जीवति जीविष्यति च तस्माज्जीवः, अस्तीति वा प्रदेशाः, अस्तिशब्दो वाऽस्तित्वप्रसाधकः कायस्तु समूहः, प्रदेशानां जीवानां वा उभयथाप्यविरुद्धं इत्यतो जीवास्तिकायः, पुद्गलास्तिकायः पूरणगलणभावत्तणतो पुद्गलाः, इहाप्यस्तिशब्दः प्रदेशवा अथ औपनिधिकी-द्रव्यानुपूर्वी वर्णयते ~33~ औपनिधि की द्रव्यानुपूर्वी. ॥ २९ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .................मूलं १०-९७] / गाथा ||९|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [९०-९७] गाथा ||९|| चकोऽस्तित्वे वा कायशब्दोऽप्यत्र समूहवचनः, समूहः प्रदेशानां सोऽवयवद्रव्यसमूहवचनो वा अद्धासमयेसि अद्धा इति कालः समूह-13 अनानुपूर्वी वचनतः तद्विसेसः समय, अहवा आदिच्चादिधावणकिरिया चेच परिमाणविसिट्टावत्थगता अद्धा एवं काल उभयथावि तस्स समयो, सो य णिच्छयणताभिप्पायतो एक एव वर्तमानसमयः तस्स एगत्तणतो खंधदेसादिकायकप्पणा णस्थि, तीताणागता य विणवाणुप्पमत्तणतो अभावो, चोदक आह--णणु आवलिकादिग्रहणं, आचार्य आह-संववहारस्स हेउं, ततः जहा अण्णदव्वाण खंधभावो तह कालस्य न भवतीत्यर्थः । शिष्य आह-किं कारणं सब्बसुत्चेसु धम्मादिओ कमो', आचार्याह-सब्बकिरियाधारतजओ मंगलाभिधाणतो य पुष्वं धम्मत्धिकार्य, तबिपक्खचणतो तदंते अधम्मी किओ, ते दोऽवि लोगागासखेतोवलक्खणं सेसमलोगोत्ति तेण तेसते आगास, किंच-पुग्गलजीवाधारणतणतो तेसि पुव्यमागासं, आगासे णियमा पोग्गलाऽचेयणतणतो बहुत्तगतो य आगासाप्पतरं पुग्गला, सब्बत्थिकाया जीवे बद्धा जतो तेणते जीवात्थिकायो, जीवाजीवपज्जायत्तणतो कालस्स णियमा आहेयत्तणतो य अंते अद्धासमय इति, गता पुष्याणुपुयी । इदाणि पच्छाणुपुच्ची, 'अद्धासमए' इत्यादि सूत्रं कंठं । इदाणिं अणाणुपुच्ची-' एतसिं चेव ' इत्यादि, एतेसिति-धम्मादियाणं चसहो अत्यविसेससमुच्चये एक्सदो अवधारणे, एको आदि जाते गणणसेढीए एको य उत्तरं जाए गणणसेढीए ताए एगादियाए एगुत्तराए पढमातो चितिए गणणहाणे एकोत्तरं एवं रितियातो ततिते एकोत्तरं ततियातो चउत्थे एको उचरं चउत्थातो पंचमे एको उत्तरं पंचमातो छट्टे एको उत्तरं, एवं एगुत्तरेण ताच.3॥३०॥ | गती जाव छको गच्छोचि-समूहो सेढित्ति-सरिसाविच्चयहताण पंती, एयाए छगच्छगताए सेढीए अण्णोण्णमासो--गुणणा पुण्याPOपुच्चीए पच्छाणुपुब्बीए वा अणाणुपुथ्वीहि वा जहेच गुणितं तहेव सत्त सता वीसाहीया भवंति, ते पढमतिमीणा अट्ठारसुत्तरा सत्त-12 दीप अनुक्रम [१०१ अत्र अनानुपूर्वी वर्णयते ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .................मूलं १०-९७] / गाथा ||९|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: श्री प्रत सूत्रांक [९०-९७] गाथा चूर्णा ||९|| सया अपाणुपुच्चीण भवंति, तर्सि आणणावायो इमो-' पुवाणुपुविहेटा' सधा पुवाणुपुव्यि हेट्ठा समयामेदेण कुण जहाजेहूं। अनानुपूर्वी अनुयोग 10 उबरिमतुई पुरओ पसज्ज पुव्वक्कमो सेसे ॥१॥ पुच्वाणुपुवित्ति व्याख्या पूर्ववत्, हेवित्ति--पढमाए पुच्वाणुपुब्बिलताए, अहो हा भेदाः मद भंगरयणं वितियादिलतासु, समया इति इह अणाणुपुत्रिभंगरयणव्यवस्था समयो तं अभिंदमाणोति तं मंगरयणअवस्थं अविणासे॥ ३१॥ माणो, तस्स य विणासो जति सरिसंक एगलताए ठवेति, जति व ततिय लक्षणातो उबकमेण पट्टवेति ता भिण्णो समयो, तं भेद अकुबमाणो, कुणमु 'जधाजेहूँ ' ति जो जस्स आदीए स तस्स जेट्ठो भवति, जहा दुगस्स एगों जेट्ठो, अणुजडो तिगस्स एको, जेट्ठाणुजेट्टो जहा चउकस्स एको, अतो परं सब्वे जेट्ठाणुजेट्ठा भाणितब्धा, एतेसिं अण्णतरे ठविते पुरतोत्ति-अग्गतो उवरिमे अंके ठवेत्ता जेट्ठाति अंकतो पुच्चाकमेण हुयेति, जो जस्स अणंतरो परंपरो वा पुथ्वो अक्षो स पुच्च ठवेज्ज अतो पुन्बकमो भणतीत्यर्थः, अहवा अणाणुपुब्बीणमायरणविधी-पुष्याणुपुष्वीइच्छित जति वष्णा ते परोप्परम्भत्था । अंतहियभागलद्धा वोच्चत्थंकाण ठाणते ।।१।। आदित्थेसुवि एवं जे जत्थ ठिता य ते तु बज्जेज्जा । सेसेहि य वोच्चत्वं कमुकमा पूर सरिसेहि ॥२॥ भागहितलठवणा दुगादि एगुत्तरेहि अब्भत्था । सरिसंकरयणठाणा तिगादियाणं मुणेयव्वा ॥३॥ पढमदुगट्ठाणेसु जवादितिगेण अत्तदिडूतो । अणुलोम पडिलोमं पूरे सेसेहि उवउत्तो ॥४॥ 'अहवा तिचिहा दब्याणुपुब्बी' त्यादि (९८-७७) परमाणुमादिसु तिविहावि मुत्तसिद्धा, सिस्सो आह-कि पत्तेयं पुरंगलेमु तिविहा उपणिही दंसिता ण धम्मादिएसु?, आचार्याह-धम्माधम्मागासाण पत्तेयमेगदश्चत्तणतो अणुपुब्बिमादि ण घडति, जीवडिकाएवि सबजीवाण तुल्लपदेसत्तणतो एगादिएगुत्तरखुड्डा णस्थिति, अहवाऽवगाहेण विसेसो | होज्ज, तत्थवि आणुपुण्यी चेव, णो अणाणुपुथ्वीअवत्तबगाई, ठितिकालस्सबि एगसमयत्तणत्ताभावतो नोक्ता इत्यर्थः, पुग्गलेसु ॥२१॥ दीप अनुक्रम [१०१ ११० ~35~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [९८ १०२] गाथा ||१० ११|| दीप अनुक्रम [१११ ११९] श्री अनुयोग चूर्णी ॥ ३२ ॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .. मूलं [९८-१०२] / गाथा ||१०,११ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णिः |एगादिएगुत्तरदब्बड्डाणमणतं संभवइति दर्शनार्थं प्रत्येकमुक्ता इति । गता दव्वाणुपुब्बी, दव्वावगाथोवलक्खितं खेतं खेत्ताणुपुथ्वी, अहवा अवगाहवगाहीण अण्णोष्णसिद्धिहेतुत्तणेवि आगासस्सऽवगाहलक्खणतणतो खेत्ताणुपुब्बी भण्णति, अहवा दव्वाण चैव खतावगाहमग्गणा खत्ताणुपुथ्वी, सो य अवगाधो दव्वाण इमेण विहिणा-अणाणुपुब्बीदव्वाण णियमा एगपदेसावगाहो, अव्यत्तव्वगदव्याणं पुण एगपदेसावगाहो दुपएसावगाहो वा तिपदेसादीया पुण जहन्नतो एगपदेसे उकोसेणं पुण जो संधो जत्तिएहिं परमाणूहिं गिरुप्यते सो तत्तिएहिं चैव पदेसेहि अवगाहति, एवं जाव संखासंखपदेसो, अनंतपदेसा खंधा एगपदेसारद्धा एगपदेसुत्तरवृड्डीय उकोसतो जाव असंखेज्जपदेसोगाढा भवति, लोगागासखेत्चावगाहणचणतो, नानन्तप्रदेशावगाढा इत्यर्थः एवं खचाणुपृथ्वि समासत्थे दंसिते इदाणिं संतदारखेत्ताणुपुथ्वी भवति दुविधा उवणिही अणोवाणिहिकेत्यादि, एता दोवि सभेदा जधा दव्वाणुपुब्बीए तहा खेनाभिलावेण सव्वं भणितव्वं, पमाणे बिसेसो, णो संखेज्जा ण अनंता असंखज्जा तिभिवि भाणितव्या, दव्वाण अवगाहखेतासंखेज्जत्तणतो सरिसावगाहणाण एगचणतो, खेत्तदारे सुतं ' एगं दव्यं पच्च देखणे बा लोए होज्ज'ति, कर्ह १, उच्यते, अणाणुपुब्वीपदेसेण अवत्तव्यपदेसेहि य दोहि ऊणो लोओ देखणो मन्नति, सेसखेत्तप्पदेसोगाढं वा दव्वं उक्कोसतो खचाणुपुथ्वी भण्णति, चोदक आह-जति दव्वाणुपुबीए एवं दव्वं पड़च्चा सब्बलोगावगाढं खचाणुपुब्बीए कह देखणो लोगेत्ति गणु विरुद्धं, अत्रोच्यते, उक्तं पूर्वमुनिभिः-' महखंधापुत्रेवी अन्य सव्वगणणुपुव्विदव्वाई । जंदेसोगाढाई तद्देसेण स लोगूणो १ ॥ किं च-अचित्तमहासंघेण पूरिएवि लोगे देसपदेसादिदव्वकरणतो देखणा भण्णति, जहा अजीवपावणाए 1. भणितं ' धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पदेसे, एवं अधम्मागासपुग्गलेसुऽवि' जधा एतेसु देसपदेसपरिकप्प ~36~ क्षेत्रानुपूर्वी ॥ ३२ ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [९८ १०२] गाथा ||१० ११|| दीप अनुक्रम [१११ ११९] श्री अनुयोग चूर्णों ॥ ३३ ॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .. मूलं [९८-१०२] / गाथा ||१०,११ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र- [ ०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: जाए धम्मादयो तद्णा दिट्ठा, एवं विभागदव्वादेसतो अच्चित्तमहाखधावगाथो तउणोत्ति देणो लोगो, ण दोसो, अहवा उग्गहोति वा अवगाहोति वा एगई, एगावगाहठिताणवि एत्थावगाहकालभेदयो अप्पत्तराणुभावत्तणतो वा उग्गहपाहण्णता दिड्डा, जवा उग्गहसुते देविंदोग्गहादियाणं जाव साधम्मिउग्गहो, एतेोस हेडिल्ला जे पुरिल्ला ते उवरिल्लेहिंति-पच्छिमेहिं बाहियत्ति-पीडिया पाहणंति प्रधानं अवग्रहात्मस्वभावं न भर्जत इत्यर्थः एवं अचि महागदव्यस्स सव्वलोगोवगाढस्सवि अणाणुपुच्चीअन्वत्तव्यावगाहेहिं बाहितोत्ति तप्पदेसेसु पाहनं ण लमतिति, तद्णो देख्णो भण्णति, ण दोसो, किं च-खत्ताणुपुब्बीए अणुपुब्विणापुब्विअब्बत्तव्वगदव्वविभागत्तणतो तेसिं परोपरमवगाहो परिणती वा तेसिं खंधाभावे अवि, कथं ?, उच्यते, पदेसाण अचलभावत्तणतो अपरिणामत्तणतो तेसिं भावप्यमाणणिच्चत्तणतो, अण्णोष्णपरिणामत्तणतो संधभावपरिणामत्तणतो य, अतो एवं | दव्वं पच्च सव्वलोगेत्ति, भणितं च- " कह गवि दविए चैवं खंधे सविवक्खता पिहत्तेणं । दव्वाणुपुब्बी ताइ परिणमई खंधभावेणं ।। १ ।। अण्णं वा बायरपरिणामेसु आणुपुव्विदव्वपरिणामो भवति णो अणाणुपुव्विअव्वत्तव्वदव्यते, ण जतो बादरपरिणामो अखंधभावे चैव भवति, जे पुण सुहुमा ते तिविधा अस्थि, किं वा जदा अचित्तमहाखंधपरिणामो भवति तदा सव्वे ते सुहुमा आयभावपरिणामं अमुंचमाणा तप्परिणता भवति, तस्स सुहुमतणतो सव्वगतत्तणतो य, कहमेवं १, उच्यते, छायातपोद्योतबादरपुद्गलपरिणामवत् अग्निसोध्यवस्त्रानिपरिणतिवत् स्फटिककृष्णादिवर्णोपरंजितवत्, सीसो पुच्छति दव्वाणुपुब्बीए एगदव्वं सव्वलोगावगाढंति, कहं पुण एमहंतं एगदव्वं भवति १, उच्यते, केवलिसमुग्धातवत्, उक्तं च- 'केवलिउग्घातो इव समयदृकपूरए य तियलोगं । अचियत्तमहाखंधो वेला इव अत्तर नियतो य ॥ १ ॥ अचित्तमहाखंधी सो लोगमेत्तो वीससापरिणामतो भवति, तिरियमसं ~37~ अनौप निधि की क्षेत्रानुपूर्वी ॥ ३३ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .........................मूलं ८-१०२] / गाथा ||१०,११|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [९८१०२] गाथा ||१० अनुयोग घृणा ॥३४॥ खेज्जजोयणप्पमाणो संखेज्जजोयणप्पमाणे वा अणियतकालोथाई बडो उडाअधोचोइसरज्जुप्पमाणो सुहुमपोग्गलपरिणामपरिणतो 3 औपनिधि | पढमसमए दंडो भवति, वितिए कवाडं ततिए मत्थंकरणे चउत्थे लोगपूरण, पंचमादिसमएसु पडिलोमसंथारे अट्ठमए सम्वहा तस्स 4 की खंधत्तविणासो, एस जलनिहिबेला इव लोगापूरणसंहारकरणठितो लोगपुग्गलाणुभावो सव्वष्णुवयणतो सद्धेतो इति, सेर्स कंट्यं । क्षेत्रानुपूर्वी अणणुपुन्बिदव्याण एर्ग दच्वं पडुच्च असंखेज्जतिभागे होज्जत्ति एगपदेसावगाहत्तणतो, एवं अव्वत्तबगदव्याणवि एगदुगपदेसाबगाहत्तणतो,सेसं कंव्यं । इदाणिं फुसणेति,खप्पदेसाण फुसणाप्तो अणुपुब्बिमादिदव्यचेणादिवपदेसाण छद्दिसियमणतरपदेसाण फुसणतो णिबद्धा, इह पुण मुत्ताभिप्पातो खप्पदेसावगाढदण्वस्स फुसणा भाणितव्वा, सा त दव्वाणुपुव्यिसरिसा । कालो खप्पदेसावगाहठि-18 तिकालो चिंतिज्जा, सोवि दव्याणपुचिसरिसो चेव । खप्पदेसाण अंतर नत्थि, अणादिकालसभावठियणिच्चत्तणतो, खप्पदेसावगाढदव्याणं पुण अणंतकालमंतरं न माणियचं, कही, जहा दवाणुपुयाए, कही, उच्यते, सख्वपोग्गलाण सव्वावगाहखेत्तस्स असंखेज्जत्तणतोचि ठिइकालासंखेज्जत्तणतो य, भावेऽवि जता खप्पदेसाणुपुब्बीमादि चिंतिज्जति तया पन्नवगाभिष्पायतो अप्पसमबहुविकप्पकरणको भावेयव्यं, अवगाहिदव्येसु उण जघा व्याणुपुल्चीए तहा सर्व णिव्विसेस भाणितव्यं, नवरं जत्थ अर्णतगुण तत्थ असंखज्जगुणं भावेतव्यं, अवगाहिखेत्तस्स असंखेज्जत्तणतो, गता गमववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुष्वी । इदाणि संगहस्स ४ा अणोचणिहिता खेत्ताणुपुव्वी, सा य जहा दवाणुपुब्बीए जो य विसेसो सो मुत्तओ चेव नायब्वो । इयाणि उवणिहिया, सा तिविहा हा अहोलोगे ' त्यादि (१०३-८८), पंचत्यिकायमतितो लोगो, सो य आयामतो उडमहडितो, तस्स तिहा परिकप्पणा इमेण विधिणा-बहुसमभूमिभाग रयणप्पभामाभागे मेरुमा अद्वपदेसो रुयगो, तस्सऽधोपतरावो अहे यणं नव जोयणसताणि जावं ता तिरि-1 दीप अनुक्रम MSASUSMS ११९] | अत्र त्रिविधा औपनिधिकी ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [102 १९४] गाथा ||१२ १५|| दीप अनुक्रम [१२० १३७] श्री अनुयोग चूर्णां ।। ३५ ।। "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) www... . मूलं [१०३-११४] / गाथा || १२-१५ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: लोगो, ततो परेण अहेट्ठितचणतो अहोलोगो साहियस तरज्जुप्पमाणो, रुचतोवरिपतरातो उवरित्तो नवजोयणसवाणि जोतिसचकस्स अवस्तिर्यउवरितलो तात्र तिरियलोगो, ततो उड्डभागठित चणतो अड्डलोगो देखूणसत्तरज्जुप्पमाणो, अहड्ड लोगान मज्झे अङ्कारसजोयणसतप्यमाणो ॐ गूर्ध्वलोकाः तिरियभागड्डियत्तणतो तिरियलोगो, 'अहव अहो परिणाम खेत्तणुभावेण जेण उस्सण्णं । असुभो अहोति भणितो दव्वाणं तो अहो लोगो ॥१॥ त्ति (उति उवरिमंति य सुहखेतं खत्तओ य दव्वगुणा उप्पज्जेति य भावा तेण य सो उठ्ठलोगोत्ति ||२||) 'मज्हाणुभावं खतं जं तं तिरियंति वयणपज्जयओ । भण्णति तिरिय विसालं अतो य तं तिरियलोगोति ॥ ३ ॥ सेसं कंठ्यं । इदाणिं अहोलोगखेमाणुपुब्वीए रयणप्पभासुत्तं एतासि रगणप्पभादाणं इमे अणादिकालसिद्धा जधासंखं णामघेज्जा भवंति घम्मा बंसा सेला अंजण रिड्डा मघा य माघवती । एते अनादिसिद्धा णामा रवणप्पभादीणं ॥ १ ॥ एतासिं चैव धम्मादियाणं सत्तं इमा गोत्राख्या, कहम् ?, उच्यते, इंदनीलादिबहुविहरयणसंभवओ रयणप्पभादीसु कचित् रत्नप्रभासनसंभवाद्वा रयणप्रभा रयणकंडप्रतिभागकप्पितावलिखिता वा रयणप्रभा, नरकवर्ज्जप्रदेशेषु, सकरोपलस्थितपटलमधेोऽधः एवंविधस्वरूपेण प्रभाव्यत इति सर्करप्रभा, एवं वालुकान्ति बालुकारूपेण प्रख्यातेति वालुकप्रभा, नरकवज्जेष्वेव, पंक इवाभाति पंकप्रभा, धूमामा- धूमप्रभा, कृष्ण तमो इवाभाति तमः प्रभा अतीवकृष्णमहत्तम इवाभाति महातमः प्रभा । इदाणिं 'तिरियलांगखेत्ताणुपुच्ची' तिषिहे त्यादि सूत्र, जंबुद्दीवे लवणसमुद्दे धायतिसंडे दीवे कालोदे समुद्दे उद्गरसे पुष्करवरे दीने पुक्खरीदे समुद्दे उदगरसे वरुणवरे दीवे वरुणोदे समुद्दे वारुणिरसे खीरबरे दीवे खीरोदे समुद्दे धृतवरे दीवे घतोदे समुद्दे खातवरदीवो खात्तरसे समुद्दे, अतो परं सब्बे दीवसरिष्णामता समुद्दा, ते य सब्बे खोयरसा भाणितब्बा, इमे दोषणामा - गंदीस्सरवरदीवो अरुणवरो दीवो अरुणाचासो दीवो कुंडलो दीवो संखवरो दीवो रुयगवरो एए जंबूदीवा णिरंतरा, ~ 39~ ॥ ३५ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .......................मूलं [१०३-११४] / गाथा ||१२-१५|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१०३११४] गाथा श्री चूर्णी ||१२ 18 अतो परं असंखेज्जे गतुं भुजगवरे दीये, असंखेज्जे गंतु कुसवरो दीवो, एवं असंखेज्जे असंखेज्जे गंतुं इमेसि एफेकं णाम भाणियव्वं 81 अनुयोग दाकोंचवरदीवो एवं आभरणादयो जाच अंते सयंभुरमणे दीवे, सयंभुरमणे से अंते समुद्दे उदगरसे इति ॥ जे अंतरंतरे दीवा तेसि इहाना जे सुभगा णामा केइ तण्णामाणो ते भाणितब्बा, सम्येसि इमं पमाणं-उद्धारसागराणं अड्डाइज्जाण जत्तिया समया। दुगुणादुगुण- कालानुपूवा 1३६ पवित्थर दीवोदही रज्जु एवइया |शा इदाण उडलोगखेवाणुपुब्बीसुतं, तत्थ सोधम्मवडेंसयं णाम कप्पविमाणं तण्णामावलक्खितो | | सोहम्मात्ति कप्पो भन्नति, एवं बारसवि कप्पा माणितब्बा, लोगपुरुषस्य ग्रीवाविभागे भवानि विमानानि अवेयकानि, न तेषां उत्तरमित्यनुत्तविमानानि ईपद्वाराकान्तपुरुष इव नता अंतेषु इसीप्पभारा पुढवी, सेसं कंठयं ।। इदाणिं कालाणुपुथ्वीसुतं, तत्थ जस्स एगपदेसादियस्स दब्बस्स दव्यत्वेण तिसमतादी ठिती तिप्पदेसावगाहकालत्तणेण वा ठिती तं कालतो अणुपुब्बी भण्णति, एवं अणाणुपुब्बीअश्वत्तच्चगादि एत्थ सव्वं कालाभिलावेण जहा खेचाणुपुच्चीए तहा सुत्तसिद्ध माणितव्वं जाव पदेसूणे वा लोए होज्जीत, कह?, उच्यते, एगो खंधो मुहुमपरिणामो पदेसूणलोगावगाढो सोच्चेव कालतो तिसमयठिीत लम्भति, संखा य आणुपुब्बी, जं पुण समस्तलोगागासपदेसावगाढं दव्वंतं णियमा चउत्थसमए समयठितीय लम्भति, तम्हा तिसमयादिठितियं कालाणुपुचि णियमा य एगपदेषणे चेच लोगे लब्भति, तिसपयादिकालाणुषुविदव्वं जहण्णतो एगपदेसे अवगाहाति, तत्थवष्पदेसे एगसमयठितिकालयो अणा-I णुपुचि दवं अवगाहेति, तत्थेव पदेसे दुसमयठितिकालगतो अम्बत्तवं अवगाहति, जम्हा एवं तम्हा अचित्तमहाखंधस्स चउत्थ-18 पंचमसमएमु कालतो आणुपुचिदन्यं, तस्स य सबलोगागाढस्स एगपदेसूणता कज्जति, किमिति', उच्यते, जे कालतो अणाणु- ॥३६॥ प्पुब्बि अब्बतचा ते तस्स एगपदेसावगाढा, तस्स य तंमि पदेसे अपाहण्णचब्विवक्खातो अतो तप्पएसूणो लोगो कओ, अण्णे दीप अनुक्रम [१२०१३७] कालानुपूर्वे: वर्णनं क्रियते __ ~40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .....................मूलं [१०३-११४] / गाथा ||१२-१५|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: कालानुपूर्वा जग प्रत सूत्रांक [१०३११४] गाथा ||१२१५|| चूगौं है पुण आयरिया भणति-कालपदेसो समयो समयचउत्थम्मि हबति ज वेलं । तेणूणवत्तणचा जं लोगो कालसमखंघो ॥ १॥ विवक्षतत्वात् अणाणुपुग्विअवतव्यगा कालतो जे ते लोगस्स असंखेज्जतिभागे होज्जा, सेसपुच्छा पडिसेहेतब्बा, अहया सुत्तस्स । पाढंतरहियस्स भावणत्थं मण्णति-अचित्तमहाखंधी दंडावत्थारूवदव्बत्तणं मोत्तुं कवाडावत्थभरणांतं अण्णं चेव दवं भवति, अण्णागारुब्भवतणतो बहुयरपरमाणुसंघातत्तणपदेसभवणं च, एवमत्थकरपा लोगापूरणसमयेसुवि महास्कंधस्य अन्यद्रव्यभवनं, अतो कालाणुपुन्यिदव्वं सब्बपुच्छासु संभवतीत्यर्थः,अव्बत्तव्वगदव्वं महासंघवज्जेसु अन्नदव्वेसु आदिल्लचतुपुच्छासंभवेण यवं पुव्वसमं चेत्यर्थः, स्पर्शनाप्येवमेव, कालसुत्तं कंठं, अंतरसुत्तं परद्रव्यस्थितिकालो जघन्योत्कृष्टमंतरं वक्तव्यं, भागा भावा अप्पबहुग च उवजुज्ज जहा खत्ताणुपुब्बीए तहा असेसं वत्तव्या, इदाणिं उवणिहिया कालाणुपुब्बी ' समयादिठिती (११४-९८) सुत्तं कंख्य, 1 अहवा. संव्यवहारस्थितकालभेदैः समयावलिकादिभिः उवणिहि तिविहा पुच्वाणुपुबमादि भण्णति, तत्र सूर्यक्रियानिवृत्तः कालः तस्य सर्वप्रमाणानामाद्यः परमसूक्ष्मः अभेद्यः निरवयव उत्पलशतपत्रवेहायुदाहरणोपलक्षितः समयः, तेसिं असंखेज्जाणं समुदयसमितीए आवलिया, संखेज्जातो आवलियाओ आणुचि उस्सासो, संखेज्जाओ आवलियाजो णिस्सासो, दोण्हवि कालो एगो पाणू,16 सत्तपाणुकाले एगो थोचे, सत्तथोवकालो एगो लबो, सत्तसत्तर लवा एगो मुहुत्तो, अहोरसादि कंट्या, जाव वाससयसहस्सा, 5 इच्छियमाणेण गुण पणसुण्णं चउरासीतिगुणितं वा । काऊण तत्तिवारा पुग्वंगादीण मुण संखं ॥१॥ पुच्वंगे परिमाणं पण सुण्णा चउरासीती य, एतं एग पुग्वंग चुलसीतीए सयसहस्सेहिं गुणितं एग पुव्वं भवति, तस्सिम परिमाणं-दस सुण्णा छप्पण्णं च सहस्सा कोडीणं सत्चरि लक्खा य २ तं एग पुग्वं चुलसीतीए सतसहस्सेहिं गुणितं से एगं तुडियंगे भवति, तस्सिम परिमाण-पण्ण DAWANLOA* दीप अनुक्रम [१२० ३७॥ १३७]] अथ समयात् शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त: काल-आनुपूर्वी: दर्शयते ~41~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ............मूलं [११४-११५] / गाथा ||१५...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [११४ अनुयाग चूों ११५] ॥३८॥ गाथा ||१५..|| रस सुण्णा ततो चउरो मुण्णं सत्त दो णव पंच य ठावेज्जा ३ एवं चुलसीतिसतसहस्सगुणा सबढाणा कायव्या, ततो तुडिया-15 पूर्वागादया दयो भवति, तेसिमं जहासंखं परिमाणं-तुडिए बीस सुण्णा ततो छ ति एको सच अड्ड सत्त णव चउरो य ठवेज्जा ४ अडडंगे 4 पणवीस सुण्णा ततो चतु दो चतु णव एको एको दो अट्ठएको चतुरो य ठबेज्जा ५ तो अडडे तीस सुण्णा ततो छ एका छ एकात्ति। सुण्णं अट्ठ णव दो एको पण तिर्ग ठवेज्जा ६ अववंगे पणतीस सुण्णा ततो चतु चतु सत्त पण पण छ चतुति सुणं णव सुणं 18/ पण णव दो य ठवेज्जा ७ अबवे चत्तालीस सुण्णा ततो छ णव चतु दो अट्ठ सुणं एको एको णव अट्ठ पण सत्त अट्ठ सत्त चतु दोय, ठवेजाहि ८ हुहुयंगे पणतालीसं सुण्णा ततो चउ छ छ णव दो णव मुलं ति पण अट्ठ चउ सत्त पंच एको दो अट्ट सुण्ण दो |य ठवेज्जा, हुहुए पण्णासं सुण्णा ततो छ सत्त सत्त एको णव मुण्णं अट्ठ णव पण छ सत्त अट्ठ दो दो एको सुणं णब चउ सत्त एक्कं व ठवेज्जा १० उप्पलंगे पणपण्ण सुण्ण ततो चतु अट्ट एक्को णव सुण्णं सच णव ति दो चउ ति छत इक्को दो ति सुण्णं सत्ता एक्को णव छ चतु एक्कं ठवेज्जा ११ उप्पले सईि मुण्णा ततो छ पण चतु एक्को सत्त पण पण ति एक्को छ सच दो सत्त एक्को सुण्णं सत्त सुणं ति सुण्ण एको चतु ति दो एक च ठवेजा १२ पयुमंगे पणसट्टि मुण्णा ततो चतु सुण्ण ति दुसुण्ण सुण्ण अट्ठ अट्ठति पण णव एको एको पण चतु णव अट्ठ सत्त पण छ चतु छ छ ति सुण्ण एकं च ठवेज्जा १३ पयुमे सत्तरि सुन्ना ततो छ ति पण ॥३८॥ ति णव एको दो णव पण दो एको चतु सुण्णं सुण्ण णव ति एको ति छ दो एको ति अटू सत्त सुण्ण सच अट्ट य ठवेज्जा १४४ दाणलिणगे पंचसचरि सुण्णा ततो चतु दो मुण्ण सत्त पण दो चतु चतु सत्त सत्त पण छ चउ ति छ सत्त छ ति सुण्ण एको छ दो अट्ठाता | सत्त पण चतु एको ति सच य ठवेज्जा १५ नलिणे असीतं मुण्णा ततो छ एको सुष्णं मुण्णं णव पण सत्त एको पण सुण्ण पण दो। दीप अनुक्रम [१३७१३८] 15 - ~42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ............मूलं [११४-११५] / गाथा ||१५...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [११४ ११५] गाथा ||१५..|| दएको एको वि एको अट्ट अट्टमुण्णं सच दो णव ति सच पण चतु दो चतु चउ एक.छ ठवेज्जा १६ निउरंगे पंचासी सुण्णा चउ पूर्वागाअनुयोग अचङ ति एको छ पण वि चतु सुण्ण पण चतु एको मुण्ण ति मुष्णं चतु पण सत्त अट्ठ णव सुण्ण दो चतु छ छ एको दितः चूणों [एको छ एको पंच य ठवेज्जा १७ अस्थणीपुरे णउति मुण्णा ततो छ णव अट्ठ दो पण एको पण एको एको दो पण छ ति अङ्क शाप॥३९॥ एको दो ति पण अट्ठ ति ति पण णव दो छ ति णव सत्त णव सत्त ति पण तिति चतुरो य ठवेज्जा१८ अउतंगे पंचणउति मुण्णा ततो पहेलिका चतु छ दो ति चउ अट्ठ दो सत्त छ सत्त सत्त सत्त छ दो चतु तिणि सुण्णं सत्त छ ति चतु अट्ट सुण्ण अट्ठ अट्ट चतु छ छ दोसुण्णं 5 णच एका सच एको चतुछ विष्णि य ठवेज्जा १९ अउए सुण्णसतं ततो छ सत्त एको चतुति अडड एको पण चतु दो ति णव चतु अट्ट सत्त अट्ठ सुण्ण ति अट्ट छ अट्ठमण्णं णव पाय पब चतु अट्ठति दो अट्ठ णव ति चतु सुष्ण णव पण सुणं तिण्णि य ठवेज्जा२० उतंगे सुष्णसतं पंचहियं ततो चतु अट्ट सत्त मुण्णं सत्त मुण्णां सत्त मुण्णं दो अट्ट पण नव पण दो ति चउ ति नव सत्त ति नव सत्त ति नव दो ति दो नव नव ति ति सुण्ण दो पण पउ नब छ नव पण छ पण दो य ठवेज्जा २१ णउते सुण्णसतं दसाहिय | ततो छ पण अट्ट पण चतु णव ति व अट्ठ चतु मुचं अट्ठति तिअट्ट चतु छ अदु सत्त छ अह सत्त छ छ पण पण ति पण पण अहसुण्णं सच णव ति ति चतु एको छ चतु अन्न पण एको दोनिय ठवेज्जा २२ पउतंगे पण्णारसुत्तरं मुण्णसतं ततो चतु सुण्ण णव एको पण चउ एको पब सुणं एको एको छ णव ति सुण्णं छ चतु छ सुण्ण सुण्ण णव सुण्ण सुण्ण एको छ सत्त अहणव चतु का अट्ट एका पण पण ति पण चतु सुण्ण छ सत्त सुण्ण एको ति एको अट्ठ एग च ठवेज्जा २३ पउते बीसुत्तरं सुष्णसतं ततो छ ति ४ ॥३९॥ णव णव पण पब एको अढ छ एको ति ति सत्त दो ति सत्त छ दो चतु पण छ पण सत्त चतु दो णव पण णव अट्ठति पण पण ति दीप अनुक्रम [१३७ १३८] ~43 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११४ ११५] गाथा दीप अनुक्रम [136 १३८] श्री अनुयोग चूर्णां ॥ ४० ॥ stock "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .मूलं [११४-११५] / गाथा ||१५...|| 10000 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: अट्ठ णव सुष्णं अट्ट सत्त अड्ड ति सुष्णं एको सुण्णं ति दो पण एकं च ठवेज्जा २४ चूलियंगे पणवीसुत्तरं सुण्णसतं ततो चतु दो छ चतु ति छ चतु अट्ठ दो एको छ अड्ड पण गव चतु पण पण चतु अट्ठ पण णव चतु पण णव सत्त छ सत्त पण दो सत्त दो पण अड्ड एको छ दो सुष्णं छ सत्त पण दो सत्त अड्ड दो तिष्णि णव सच दो एवं च ठवेज्जा २५ चूलियाए तीमुत्तरं सुण्णसतं ततो छ एको चतु अट्ट सुण्णं ति नव सुण्णं णव सत्त चतुति दो पण छ एको छ दो सुष्णं एको छ पण एको दो अट्ठ सुष्णं पण चतु छ व अड़ दो छ पण जब गव एको छ अट्ठ ति छ णव दो एको छ ति छ चउ सत्त मुण्ण एकं च ठवेज्जा २६ सीसपहेलियंगे पणतीमुत्तरं सुण्णसतं ततो चंड चर णव छ सुण्ण गव एको अड्ड ति चतु दो दो सत व सत अट्ठ सत्त णव एको छ अड्ड छ अड्ड एको सुण्णं णव छ अट्ठ एको सुण्णं ति ति अट्ठ दो ति छ सप्त सुण्णं च चतु छ णव अट्ठ अड्ड चतु ति चतु णव छ दो सुष्णं णव य ठवेज्जा २७ सीसपहेलियाए चत्तालं मुण्णसयं ततो छ णव दो ति अड्ड एको सुण्ण अट्ठ सुष्ण अड्ड चतु अट्ठ छ छ णव अट्ठ एको दो छ सुष्णं चतु च णव छ पण सत्त पाव णव छ पण ति सप्त व सत्त पण एको एको चतु दो सुष्णं एको सुष्णं ति सत्त सुण्णं ति पण दो ति छ दो अट्ठ पण सत्त व ठवेज्जा २८ एवं सीसपहेलियाए चतुणतुयं ठाणसयं जाव ताव संववहारकालो, जाव संववहारकालो ताब संववहारकाळ विसए, तेण य पढमपुढविणेरइयाणं भवणवंतराण भरहेरवतेसु य सुसमद्समाए पच्छिमे भागे णरतिरियाणं आऊ उबमिज्जति, किं च-सीसपहेलियाए य परतो अस्थि संखज्जो कालो सो य अणतिसईणं अववहारिउत्तिकाउं ओम्मि पक्खित्तो, तेण सीसपहेलियाए परतो पलितोयमादि उवण्णत्था, सेसं कंठयं । उक्कित्तणापुपुव्विसुत्तं-उक्कित्तणत्ति गुणवतो श्रुती जहत्थणामुक्कित्तणं था, तं च जहाकमेणुप्पण्णाण तित्थकरण चक्किवलदेववासुदेवकुलगरगणधराण य थेरावलि -- ~ 44~ उत्कीर्त्तनाद्यानुपूर्व्यः ॥ ४० ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .......................मूलं [११६-१३०] / गाथा ||१६-८२|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [११६ अनुयोग | चूणों १३० गाथा ||१६ ८२|| याकमेण दिट्ठवं, सेस कंठ्यं । गणणाणुपुविसुत (११६-१०१) गणणत्ति-परमाण्वादिराशेः [अपरिज्ञाने संख्यानं गणणा, संठा- संहनना णाणुपुब्धि सुत्तं (११७-१०१) तत्थ संठाणं दुविहं-जीवमजीवेसु, जीवेसु सरीरागारणिव्वति, मणुयाणं जस्स उस्सेहे अट्ठसयंगुलु- धानुपूव्यः विद्धो तावतिय चेव आययपुहुत्तविच्छिण्णा तं चतुरंसं, उस्सनमेव समा सव्वाश्यवा, जस्स णाभीतो उवरिं समचतुरंससी अंगोवंगादा नाम च नेव अहो तं नग्गोहपरिमंडलं, जंमि अहो समा अवयवा उवरि विसमा तं साति, जस्स बाहुग्रीवाशिरंणाभीए य अधो समचउरंसं विसमेसु वा अंगुवंगेसु पट्ठीहि तयं अतीव संखित्तं सुण्णयं च तं च खुज्ज, सव्वे अंगुबंगावयवा अतीव हस्सा जस्स तं वामणं, असमर्ग अंगोवंगा यज-13 धुत्तपमाणतो ईसि अधिया अ ऊणा वा जस्स तं हुंडं संठाणं, अजीवसु संठाणाणुपुव्वी-परिमंडले य चट्टे तैसे चतुरंसमायए य, एते जहा विणयसुते, संघयणाणुपुच्चीवि एत्थेव वत्तब्बा, सामायारियाआणुपुव्वीसुत्तसरूवं [११८-१०२] से जहा आवस्सगे तहा। वत्तव्यं, भावाणुपुब्बिसुत्तं कंठ्य, आणुपुब्बिपदं गतं । इदाणिं णाम, तस्सिम णिरुतं-ज वत्थुणोऽभिहाण पज्जबभेदाणुसारित णामं । पतिभेतं यण्णमते पडिभेदं जाति जं भणितं ॥ १ ॥ तं च दसविध-एगनामादि, तत्थ एगनाम एगरस भावो एगत्तं तेण जमते एगणाम, एगं वा दवं गुणं पज्जवं पामेति-आराधयतित्ति जं तं एगनाम, अभेदभावग्रदर्शनं एगनाम इत्यर्थः, एत्थ सुत्त गाहा ‘णामाणि जाणि' (*१७-१०५ ) इत्यादि, दब्बाण जहा जीवो, तस्स गुणो णाणादि पज्जवो णेरइगाइ, अजीबदव्याण परमाणुमादिण गुणो वनादि पज्जयो एगगुणकालकादि, सेसं कंट्यं । दुणामं जहाभेद उबउज्जिय सुत्तसिद्धं भाणितव्वं गाम, तत्थ चोदक आइ-कि धम्मादियाण गुणपज्जवा गत्थि जतो पुग्गलस्थिकाएणं देसेइ, ण दा॥४१॥ धम्मादिएसु?, आचार्याह-सव्वदवाण गुणपज्जवा अस्थि, किं तते?, उच्यते, गतिगुणं धम्मदवं ठितिगुणो अधम्मो अवगाहगुणमा दीप अनुक्रम [१३९ २३४] ~45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ........................मूलं [११६-१३०] / गाथा ||१६-८२|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: श्री प्रत सूत्रांक [११६१३०] गाथा ||१६ 18 गासं उचजोगगुणा जीवा बत्तणागुणो कालो, अगुरुयलहुयपज्जया अर्णता एतेसि, इह पोग्गलत्थिकाए इंदियपच्चक्खत्तणतो सुह-पविधनान पनवणगहणत्थं । छांदसत्ता ग दोसो णामाभिहाणं तं पायतसीलीए पाययलक्खणेण वा इमं तिहा भण्णति,इत्थी पुरिसोणपुंसगं च सेस विचूणों णामे कंठ्यं, चउणाममुक्त, पमानि पयांसि अत्र 'आगम उदनुबन्धः स्वराईत्यात्परः आगच्छतीत्यागमः, आगम उकारानुबंधः स्वराद-12 ॥४२॥ तात्यात्परो भवति, ततः सिद्धं पद्मानीत्यादि, सेतं आगमेण, लोपनादपि तेऽत्र इत्यादि, अनयोः पदयोः संहिताना ' एदोत्परः पदान्ते | है लोपमकार (का. ११५) पदांते यो एकारौकारौ तयोः परः अकारो लोपमापद्यते, ततः सिद्ध तेऽत्र, पटोत्र, से तं लावणं, से कितं शापयतीए?, यथा अनी एतौ इत्यादि, एतेषु पदेषु द्विवचनमनी' (का.६२) द्विवचनमौकारान्तं यन्न भवति तल्लक्षणांतरेण स्वरे परतः | प्रकृत्यादि, सिद्ध अग्नी एतौ इत्यादि, विकारे दंडस्य अग्रमित्यादि ' समानः सवणे दीर्घो भवति परश्च लोपमापद्यते' (का. २४) सिद्धं दंडाग्रमित्यादि, सेवं विकारेण | पंचनामसुत्तं कंठं । छबिहनामे सुतं, तत्थ उदइयत्ति उदये भवः औदयिका, अडविहकम्मा पोग्गला संतावत्थातो उदीरणावलियमतिक्रान्ता अपणो विपागेण उदयावलियाए बढमाणा उदिबाओत्ति उदयभायो भभति, उदयदणिफण्णो णाम उदिग्गेण जेण अण्णो निफादितो सो उदयणिफण्णो, सो दुविहो-जीवदग्चे अजीवदव्ये बा, तत्थ जीवे कम्मोदएण जो जीवस्स भावो णिवत्तितो जहा रहते इत्यादि, अजीवेमु जहा ओरालियदग्वबग्गणेहितो ओरालियसरीरप्पयोगे दवे घेत्तूणं तेहिं ओरालियसरीरे णिवत्तेइ णिव्वत्तिए वा तं उदयनिष्फण्णो भावो, ओरालियसरीरं ओरालियसरीरणामकम्मोदयातो भवतीत्यर्थः, ॥४२॥ है शरीरपयोगपरिणामितं वा दवं, एस अजीवोदयणिफण्णो भावो, एवं विउच्चिया आहरगा तेयकम्मावि दुभेदा भाणियब्बा, को पुण सरीरप्पयोगपरिणामो १, उच्यते, वष्णगंधरसभावणिवत्तिकरण, तहा आणापाणभासमणादिया य यच्चा, उपसमि ८२|| कर दीप अनुक्रम [१३९२३४] 25659 नाम्न: द्वि, त्रि, चतुः आदि भेदानां वर्णनं क्रियते ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११६ १३०] गाथा ||१६ ८२|| दीप अनुक्रम [१३९ २३४] श्री अनुयोग चूर्णी ॥ ४३ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) . मूलं [११६ - १३०] / गाथा ||१६-८२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: ए बौवसमिकः, उदयअभावो उवसमो, एस दुविहो सुतं, अत्थ उबसमो उवसमसेढिपडिवनस्स मोहणिज्जमणंता शुबंधिमादिकम्म| उवसमकाले उवसमेन्तस्स उवसमिए वोवसमितो भावो भवति, उवसमणिप्फण्णो पुण स एवोत्तरकालं उवसमिकसम्मो उवसंतकांधे इत्यादि भण्णति, सेसं कंठ्यं, कम्माण खयए व खाइयति, जस्स न रहो संभवति अरहा कम्मारिजित्तणातो जिणो णाण संपुष्णततो केवली गमववहाराभिप्यायतो णाणावरणखयवेक्खचणतो तक्खाइतो, अणावरणादि चउरो एगडिया किंचि विसेसत्थजुचा वा इमेण विधिणा- केवलस्स सव्वगतत्तणतो, आवरणाभावः सतः अणावरणे गगनवत्, अहंवा अणावरणे पटुप्पण्णकालणयबेक्लत्तणओ विसुद्धांवरे चन्द्रविम्बवत् आवरणातो णिग्गतो, आवरणातो वा णिग्गयं जस्स स णिरावरणो सस्सिबिंबंच राहुतो खीष्णावरणेत्ति खीणं खवियं विणङ्कं विद्धत्थं सम्वहा अभावे य आवरणं जस्सेवं तमो व रविणो जहा उदयतो, संगहाभिप्पातातो, णाणावरणं कम्मं विसिद्धं ततो विसुक्को कणगं च किद्वातो चेव, अत्थणुसारा उप्पण्णदंसणादिया उवजुज्ज वत्तब्वा संपुण्णनाणदंसणस, केवलदंसी सव्वं सामण्णयं सव्वधा सव्वायप्पदेसेहिं सव्वग्गेणं सव्वद्धाहि पेकखतो सम्वदंसी, सेसं कंठ्यं । गामकम्मे ' अणेगबों' इत्यादि, अणेगेति बहू बोंदीतो, ता य जहण्णसंजोगे ओरालियतेयकम्मगसरीरा, तेसु ओरालियाइबोंदीए बंद-वृदं, तं च अंगाणं उबंगाणं अंगोवंगाण य, ते य कम्मगेसुवि तग्विभागगतेसु अंगुवंगा बत्तव्वा, एकेक्के अंगोवंगे अनंतपरमाणू संघायात संधाया, एत्थमणतसंभवेवि संववहारतो सतग्रहणं कर्ता, ततो मोंदिबंदसंघातातो विसिद्वेण पगारेण मुक्को विप्पक्को अपुनर्ग्रहणेनेत्यर्थः, सामादिकादिचरणक्रियासिद्धत्वात् सिद्धा, सिद्धत्वात् प्रापणाद्वा सिद्ध:, सुभासुभसर्वक्रियापरिनिष्ठानासिद्धत्वात्सिद्धः, जीवादितत्वं बुध्यत इति बोधात्मकत्वात् बुद्धः, बाह्याभ्यन्तरेण ग्रंथेन बंधनेन मुक्तत्वात् सारीरमा ~47 ~ क्षायिक भावः ॥ ४३ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ........................मूलं [११६-१३०] / गाथा ||१६-८२|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [११६ १३० चूणों गाथा ||१६ ८२|| नसदुःखेनातितापितमात्मानं परिनिर्वातत्वात् समंतात् णिव्ववियदुकखे परिनिव्वुडे, ऊर्द्धक्षेत्रलोकान्ते आत्मस्वरूपावस्थापनात, पारिणादिअन्तकडे सर्वसंसारिभावानां अंतकारित्वात् अंतकडे, उत्तरोत्तरं वा सर्वसुखानां अंतं प्रकर्ष प्राप्त इति अंतकडे, सुखदुःखांतकारित्वा-द मिका व वा अंतकडे, सर्वे दुखःप्रकाराः पहिणा यस्य स भवति सम्बदुःखप्पहीणो, चउहं घातिकम्माण खयोवसमकालकरण एव उभयस-1 भावत्तणतो खओवसमिते भावे, खओबसमणिफण्णे पुण उत्तरकालं 'आभिणियोहियनाणली त्यादि, सेस कंठ्यं, पुरि समंता ४ तिकच हैणामो जं जं जीवं पोग्गलादियं दब जंज अवत्थं पावति तं अपरिचत्तसरूवमेव तथा परिणमति सा किरिया परिणामितो भावो | भण्णति, सो य सादी अणादी दुविहो, तत्थ सादी 'जुण्णासुरे' त्यादी, इह परिणतीरूपः पारिणामिकः अहबा नवा जीर्णेतरा सुराभावः सर्वास्ववस्थासु परिणता इत्यर्थः, निनादोलक्षितो घात इव निर्धातः जूबओ-अमोहो जक्खालित्ता-अग्निपिसाचा धूमिका रूक्षा अविरला सा धूमामा भूमौ पतितैवोपलक्ष्यते महिया, रजस्वला सोरयुग्धातो, अड्डाइयदीवसमुद्देसु चंदसूराण जुगवोवरागभावितणओ बहुवयणं, कविहसियं अम्बरतले ससई लक्खिज्जति, जलिय बा, सादिपीरणामभावो पुग्गलाण चयावचयत्तणया, सेसं कंठ्यं ।। इदाणि सन्निवादितो भावोऽन्यभावेन सह निपात्यत इति संनिपातिकः, अविरोधेन वा द्विकादिनैकत्र मेलकः सनिपातिकः, द्विकसंयोगे उदयोपशमी प्रथमसनिपातिको निष्पन्नः, एवं द्वित्रिचतुःपंचकयोगाः सर्वे पड्विंशतिभंगा उक्ताः । इयाणि दुगादिसंजोग - गपरिमाणप्रदर्शकं सूत्र 'तस्थ ण दस दुगसंयोगा' इत्यादि, कंव्यं । इयाणि अपरिण्णायदुगादिसंयोगमंगभावुकित्तणज्ञापनार्थ सूत्रमाह-'तस्थ णं जे ते दस दुगसंजोगाते णं इमे-अस्थि एगे उदइएउवसमाणिफण्णे' इत्यादि, सव्वं सुत्तसिद्धं, अतो परं ४ ॥४४॥ सनिपातियभंगोवर्दसणा सवित्थरा कज्जति, तत्थ सीसो पुच्छति 'कतरे से णामे उदइएउवसमाणफण्णे?, आचार्या आह-' उदएत्ति || दीप अनुक्रम [१३९ २३४] ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११६ १३०] गाथा ||१६ ८२|| दीप अनुक्रम [१३९ २३४] श्री अनुयोग चूणीं ॥ ४५ ॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) ..मूलं [११६ १३०] / गाथा ||१६-८२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णिः मणूसे ' इत्यादि, सव्वं सुन्तसिद्धं, कंठ्यं, एवं सन्निवाइयभावपरूवणे कते चोदक आह-जति दुगसंयोगे जीवस्स कहि अवस्था- हे स्वरप्रकरणं बिसेसे भावगमेव भवे तो जुतं दुर्गामंगो बोनुं, जतो यदुभावाभावो, संसारिणो य जीवस्स पियमा भावतिगमत्थि उदयखओवसमपारिणामिया, तम्हा दुगभंगो वत्तव्वो, आचार्य आहण तुमं सिद्धताभिप्पायं जाणसि, विचित्तो सुत्तत्थो भगवतां, सुमभंगोचि विकप्पो विविधकुप्पणातो विकप्पो सेति किंचि अत्थविसेसेण निरवेक्खा णिरवेक्खो जघेव विकल्पं पयच्छति तदेव कज्जते ण दोसो, गतं छब्विधं णामं । इदाणि सत्तणामं, तत्थ 'सज्ज' सिलोगो (२५-१२०) कज्जं करणायत्तं जीहा य सरस्स ता असंखेज्जा | सरसंख असंखेज्जा करणस्स असंखयत्तातो ॥ १ ।। सत्त य सुतणिवद्धा कह ण विरोहो गुरू ततो आह । सत्तणुवाई सव्वे बादरगहणंऽवगतव्वं ॥ २ ॥ णाभिसमुत्थो अ सरो अधिकारो परप जं पदेसं तु । आभोगियरेणं वा उवकारकरं सरहाणं || ३ || 'सज्जं च' सिलोगो 'णीसाते ' सिलोगो (*२७-१२९ ) जियजीवणिस्सियत्ताणिस्सारिय अहव पिरिया तेहिं । जीवेसु सण्णिवती पजोगकरणं अजीवेसु ॥ १ ॥ तत्थ जीयणिस्सिता ' सज्जं रवति' दो सिलोया (* -१२८) अजीवेवि दो सिलोगा, गोमुही-काहला तीए गोर्सिगं अन्नं वा मुहे कज्जति तेण गोमुही, गोहाचम्मावणद्धा गोहिया सा व दद्दरिका, आडम्ब रोचि पडहो, 'सरफलमव्यभिचारि बाओदिहं णिमिचमंगेसु । सारे णिव्वत्तिरफला ते लक्खे सरलक्खणं तेणं ॥ १॥ ' सज्जेण लभति वित्त ' 'सत्त' सिलोगा। सज्जादि तिधा गामो ससमूहो मुच्छणाण विनेयो । ता सत्त एकमेके तो सत्तसराण इगवीसा ॥ १ ॥ अण्णोष्णसरबिसेसा उप्पायंतस्स मुच्छणा मणिया । कत्ता व मुच्छितो इव कुणते सुच्छं व सोयत्ति || २ || मंगिमादियाणं इगवीसमुच्छणाणं सरविसेसो पुष्वगते सरपाहुडे भणितो, तन्त्रिणिग्गतेसु व भरहविसाखिलादिसु विष्णेया इति, 'सत्त सरा कतो' एस. ।। ४५ ।। अत्र नाम्नः भेदे स्वर-प्रकरणम् वर्णयते ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .......................मूल [११६-१३०] / गाथा ||१६-८२|| ................... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [११६ स्वरप्रकरणं १३०] गाथा ||१६ ८२|| श्री पुषछासिलोगो, (४३-१३०) 'सत्त सराणाभीतो' उत्तरासिलोगो (*४४-१४१) गीयस्स इमे तिष्णि आगारा 'आइमिउ' अनुयोगद गाथा (४५-१३१) किंचान्यत् * दोसो' गाथा (१४६-१३१) इमे छहोसा वज्जणिया 'भीतदुप' गाहा (१४७-१३१) मीत उत्तवमानसं दुत-चरितं उप्पिच्छ-श्वासयुत त्वरितं वा पाठान्तरेण इस्वस्वरं वा भणियच्च, उत्प्रावल्ये अतिताल वा उत्ताल लक्ष्णस्वरेण | ॥४६॥ काकस्वर सानुनासिकमनुनासं नासास्वरकारीत्यर्थः । अद्वगुणसंपयुक्तं गेतं भवति, ते येमे- 'पुनं रत्तं च ' गाहा (#४८-१३१) स्वरकलाभिः पूर्णगेयरागेणानुरक्तस्य र अण्णोऽण्णसरबिसेसफुडा सुभकरणतणतो अलंकृतं, अक्खरसरफुडकरणचणओव्यक्तं, विस्वरं विक्रोशतीच विघुटुं न विट्ठ अविघुई, मधुरस्वरेण मधुरं कोकिलारुतवत्, तालवंससरादिसमणुगतं समं, ललितं ललतीव स्वरघोलना प्रकारेण सोअईदियसद्दफुसणा मुहुप्पायणतणतो वा सुकुमालं, एभिरष्टाभिर्गुणैर्युक्तं गीतं भवति, अन्यथा बिलम्बना, किंचान्यत्है'उरकंठ' गाहा (४९-१३१) जति उरे सरो विशालो तं उरबिसुद्ध, कंठे जति सरो वट्टितो अफुडितोय तो कंठविशुद्ध सरं पत्तो, जति जाणाणुणासिको तो सिरविसुद्धो, अड्वा उरकंठसिरेसु श्लेष्मणा अव्याकुलेसु विमुद्देसु गीयते, किंविशिष्टं ?, उच्यते, ' मउयं मृदुना स्वरेण मार्दवयुक्तन न निष्ठुरेणेत्यर्थः, स च स्वरः अश्चरेषु बोलनास्वरविशेषषु च संचरन् रंगतीवैरगितः रिभितः, रायनिचढं पदमेवं गीयते, तालसरेण सम समताल मुखकंशिकादिआतोज्जाणाहताण जो धणिपडुक्खेवो पडिपखेको वा तेण व समं नृत्यतो वा पडखेवसर्म, एरिस पसत्थं गिज्जति सचसीभरं व कज्जति, के य ते सत्तसरा सीभरसमा, उच्यते, इम- 'अक्वरसम' गाहा (*५०-१३१) दीहक्वरे दीहं सरं करेति हस्से हस्सं प्लुते प्लुत, दंतादि अंगुलीकोशकः तेनाहततं त्रिस्वरप्रकारो लयः तं लयमणुस्सरने गेय लयसम, पढमतो वंसतंतिमादिए जो सरो गहितो तस्सम गेज्जमाण गहसम, तेहि चेव वंसतंतिमादिएहि जे अंगुलस ॥४६॥ दीप अनुक्रम [१३९ २३४] ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ........................मूलं [११६-१३०] / गाथा ||१६-८२|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [११६१३०] गाथा ||१६ ८२|| SEASEXSEX चारसमें गेज्जति से संचारस, सेस कंठ । जो गेयसयणिबंधो सो इमेरिसो-णिहोस 'सिलोगो (५१-१३१) हिंसालिया-1 कादिवत्तीसमुत्तदोसज्जिय, णिदोसं अत्येण जुत्तं सारवं च अत्थगमककारणजुत्तं हेतुजुत्तं, कन्चालंकारेहि जुर्म अलंकियं. उब-। संथारोक्णएहि जयमुवणीत, जे अणिठ्ठरामिधाणेण अविरुद्धालज्जणिज्जण य पद्धं ते सोवयारं सोत्प्रासं.बा, पदपादाक्षरीमितं 4. नापरिमितमित्यर्थः, महुरंति विधा शब्दे अर्थाभिधामधुरं च 'तिष्णि य बित्ताई' तिजं वुत्तं तस्य व्याख्या ' समं अद्धसम' सिलोमो (०५२-१३१) कंठ्यः, 'दुण्णि य भणितीओ' चि अस्य व्याख्या-'सकेया सिलोगों (०५४-१३१) भणितित्ति भासा, सेस कव्यं । इत्थी पुरिसो केरिसं गायतिचि पुच्छा केसी' गाथा (१५४-१३१) उत्तर-'गोरी' गाहा, (५५-१३२) इमो सरमंडलसंक्षेपार्थः, 'सत्त सरा ततो गामा' गाथा (१५६-१३२ ) तंतीताना ताणो भन्नति। सज्जादिसरेसु एकके सत्त ताणति | अउणपबासं, एते बीणाए सत्ततंतीए संभवंति, सज्जो सरो सत्तहा तंतीण सरेण गिज्जतिति सज्जे सत्तताणता, एवं सेसमुचि ते | चेव, एगतंतीए कंठेण पावि गिज्जमाणे अउणपत्रास ताणा भवति । गतं सत्त णाम । इदाणि अट्ठविहं णाम, तत्थदृविहे वयणविभची 'णिसे पढमा' इत्यादि (१-१३३) दो सिलोगा, ( ) एतेसिं उदाहरणमात्र गाथासिद्धं, वित्थरो सिं सहपाहुडातो णायथ्बो पुज्वणिग्गतेसु या वागरणादिसु, गतं अविधं णामं । इंदाणि णवविधं णाम, तत्थ ण कव्वरसा-'मिउमहुररिभियसुभयरणीतिणिदोसभृसणाणुगतो। सुहद्हकम्मसमा इब कम्म(व्य)स्स रसा भवंति तेणं ॥ १ ॥' बीरो सिंगारो' इत्यादि, (०६३-१३५) इमं वीररसलक्खणं-'तत्थ परिच्चाग' गाथा (६४--१३६) परेण कोपकारणे उदीरिते अनुराय ण ॥४७॥ करोति, सेसं कंम्यं । बीररसे उदाहरण 'सो णाम' गादा (६५--१३६) कंठया, इमं सिंगाररसलक्षण 'सिंगारी गाथा दीप अनुक्रम [१३९ २३४] ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ........................मूलं [११६-१३०] / गाथा ||१६-८२|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [११६ अनुयोग १३०] गाथा ||१६ ८२ (*६६-१३६) कंठ्या, सिंगारे रसे उदाहरणं 'मधुर' गाथा (६७-१३६) अब्भुते रसे लक्षणं 'विम्हय' गाहा (०६८-१३६)| काव्यरसा: ट्र अभुत रसे उदाहरण 'अब्भुतर' गाहा (*६९-१३६) रोहे रसे लक्षण 'भयजणण' गाहा (*७०-१३७) भयुप्पायकं रूब दृष्ट्वा भीमं वा महांतं शब्दं श्रुत्वा अत्यंधकारो वा ग्रामादिदापचिंता वा मरणाध्यवसायचिंता वा परतः कथा या रौद्रां श्रुत्वा संमो॥४८॥ हादि उप्पज्जति, अहवा देहस्य रौद्राकारोत्पद्यते । रौद्रे आकाररसे उदाहरणं 'भिकुडी' गाहा (*७१-१३७) रुपितेन दर्शनेषु | संदष्टोष्ट इति ग्रस्तः ओष्ठ इति इत्येवं गतो रौद्राकार, सेस कंव्यं । वेलणरसलक्षणं 'विणयोवयार' गाहा (*७२--१३७) वेलण रसे उदाहरणं ' किं लोइय' गाहा (*७३--२३७) सहीण पुरतो वधू भणति-कि क्षेपे लौकिककरणी क्रिया चेष्टा ततो अण्णं दिलज्जपतरी, णत्थि, पासठिताबि अम्हे लजिम्मो, इमे कोई वारिज्जमि गुरुजणो इमं मे बसणं पंतिजणपुरतो परिवंदइ लज्जामित्ति, का एसा वधूपुत्ती!, भण्णति-पढमे वासहरे भत्तुणा जोणिभेए कते तच्छोणियण पोति खरंडियं मूरुदये सयणो से परितुट्ठो पडलक | तं तं पोतिं परंपरेण गुरुजणपुरतो परिवंदइ दसति य, णज्जते रुहिरदसणातो अक्खयजोणित्ति, बीभत्सो-विकृतस्तस्य लक्षण| |' असुइ' गाहा (*७४-१३८) कुणिमस्वरूपात् असुचिसरीरं दुईक्षं च विकृतप्रदेशत्वात् तत्र निर्वेदं गच्छति, कथं?, उच्यते, [विकृतप्रदेशत्वात् यद्वा गंधमाघ्राय अविहिंसकलक्षणः, तत्र उदाहरणं-'असुइ' गाथा (*७५-१३८) कंठ्या, हासरसलक्षणं 'रूववय' गाहा (*७६--१३८) रूवादिविवरीयकरणतो मनःप्रहर्षकारी हासो उप्पज्जइ, प्रत्यक्षलिंगमित्यर्थः, तत्थ उदा-181 V ॥४८॥ हरण पासुत्त 'गाहा (*७७-१३९) हीत्येतत् हास्यादौ कंदपवचनं, सेस कंठ्यं । इदाणि करुणरसलक्षणं-'पियविप्पयो । गाहा (*७८-१३९) सोगो मानसो विलवितेति वियोगे विलापः प्रम्लाणत्ति निस्तेजः, कलुणे उदाहरणं 'पद्माणकिलामि दीप अनुक्रम [१३९ ACANCERK २३४] ~52 ~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११६ १३०] गाथा |१६ ८२|| दीप अनुक्रम [१३९ २३४] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .. मूलं [११६- १३०] / गाथा ||१६-८२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र- [ ०२ ] "अनुयोगद्वार" चूर्णि श्री अनुयोग चूर्णी ॥ ४९ ॥ गाहा (७९ - १३९) किलाभिययं विच्छायमांसोपचितं पञ्झाणं अतिचितापवियसुकत भेदेनांगतं च प्रकर्षेण प्लुता अच्छी अंसुपूर्णा बहुवारा - बहुशः तस्येति प्रियजनस्य वियोगे इत्यर्थः । इदाणिं पसंतरसलक्खणं 'जिंहोस ' गाहा ( *८०-१३९ ) हिंसानृतादिदोसरहितस्य क्रोधादित्यागेन प्रशान्तस्य इंद्रियविषयविनिवृत्तस्य स्वस्थमनसः हास्यादिविकारवर्जितः अविकारलक्षणः प्रशान्तो है रसो भवति, प्रशान्तरसे उदाहरणं ' सद्भाव ' गाहा ( *८१-१३९ ) सम्भाव इति निर्विकारता धर्मार्थे न लोकनिमित्तं निष्वियारस्य व्याक्षेपादिवर्जितः इंद्रियादिदोससु उवसंतो कोधादिसु पसंतो पसन्नमणी चिंतेतो जो सो सम्मदिडी, हीत्यत्यर्थं मुनेः प्रशान्तभावातिशयप्रदर्शने पीवरा महती श्री शोभा महाश्रीक इत्यर्थः ' एते व कबरसा (८२-१३९ ) बत्तीसं जे सुत्तस्स दोसा ते बत्तीससुतदोसा जओ बत्तीसदोसवइकरेण एते उप्पन्ना, कथं ?, उच्यते, जधा वीरो रसो संगामादिसु हिंसाए भवति तह तवसंजमकरणादिसुचि संभवईति । एवं सुभवइकरेण उप्पज्र्ज्जति, उदाहरणगाथासु य जहाभिहिया जाणितच्या, मुद्धत्ति कथिद्गाथासूत्रबंध: अन्यतमरसेनैव सुद्धेन प्रतिबंधः कश्चिन्मिश्रः द्विकादिसंयोगेन गतं णवणामं । इदाणिं दसणार्म' से किं तं दसनामे १,' दसणामे पण्णत्ते, दसविहे गोणे ' इत्यादि (१३०-१४०) गुणाज्जातं गौर्ण, क्षमते इति क्षमण इत्यादि, गोगोण्णो अयथार्थ अकुंतः सकुंत इत्यादि, आदिपदमादाणिदं चूलिकेत्यादि, विपरीतः पक्षः प्रतिपक्षः असिवा सिवा इत्यादि, लवतीति लाई आदानार्थेन वा युक्तं ला आदाने इति लाधुं तं अलाबु भण्णति, सुभवर्णकारी सोभयतीति सुंभकस्तथापि कुशुंभकमित्युच्यते, यथावस्थितं अच लितभाषकं विपरीतभाषकं श्रुते असत्यवादिनं, अहवा अत्यर्थ लवनं विब्रुवानं तं विपरीतभाषकं ब्रूते असत्यवादिनमित्यर्थः, ४ ॥ ४९ ॥ प्रधानभावः प्राधान्यं बहुत्वे वा प्राधान्यं ' असेोगवणे त्यादि, जो पितृपितामहनाम्नोत्क्षिप्त उन्नमित उच्यते, ~ 53~ दशनामा धिकारः Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .......................मूलं [११६-१३०] / गाथा ||१६-८२|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [११६१३०] गाथा ||१६ ॥५०॥ 540+ ८२|| 81 सरीरैकदेशेन अवयवनाम, संयोगो युक्तिभावः, स चतुर्विधः द्रव्यादिकः, सचित्ते गोण्यादि, अचित्ते छत्रादि, मिश्रे हलादिकः,181 प्रमाणाखत्तकालभावजोगा जहा सुत्ते इति ॥ इदाणिं पमाणणाम चउब्बिह णामादिक, ठवणप्रमाणं कठ्ठकम्मादिकं, अहबा सनविहणक्ख-| धिकार तादिक, जीविया णाम जस्स जायमित्तं अवच्चं मरति सातं जायमित्तं चेव अवगरादिसु छड्डेइ तं चेव णामं कज्जइ ततो जीवति । अभिप्पायणाम ण किंचि गुणमक्खति किंतु यदेव यत्र जनपदे प्रसिद्धं तदेव तत्र जनपदाभिप्रायनाम, जनपदसंववहार इत्यर्थः, | सेसा णक्खचादिया कंठ्या । इदाणि भावप्पमाणणाम चतुर्विध सामासिकादिकं, येषां पदानां सम्यग् परस्पराश्रयभावेनार्थः अग्श्री-18 यते स समासः ततो जातो अत्यो सामासितो, योऽर्थः येनोपलक्ष्यते स तस्य हेतुकः तद्धितमुच्यते, तद्धितातो अत्थे जाते तद्धितिए, भू सत्तायां इत्यादि धातुभावेनाओं जातः धातुए भन्नति, अभिधाणक्खराणिच्छियत्थोषलद्धिप्पगारेण उच्चरिज्जमाणो णिरुत्तातो अत्थो जातो णेरुत्तिओ, एतं चउब्बिईपि सभेदं सउदाहरणं जहा सुत्ने तहेव कंठ्यं वत्तव्यं, णामति मूलदारं गतं । इदाणि पमाणतिदारं (१३१--१५१) प्रमीयत इति प्रमाणं प्रमितिर्वा प्रमाणे प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाण, तं दबखत्तकालभावभेदतो चतुव्विई, अण्णोअण्णपरिमाणसंखाए ठित प्रमाणं तं पदेसणिफणं, विविहो विसिट्ठो वा भगः विमंगः, भंगोत्ति विकप्पो, जं ततो पमाणं || | णिष्फणं ते विभागाणष्फणं, इमं मागहं घण्णमाणप्पमाण-ओमत्वहत्यमियं जे धनप्पमाणं सा भवे असती, जंधनप्पमाणे असतिप- ५० ४ रिछेदयो असई, मुत्तोली-मोट्टा हेवरिसंकडा ईसि मझे बिसाला, कोडिता मुरवो, दोछप्पण्णपलसयणीप्पज्जमाण, तीसे 18 | चउसद्विभागो चतुसडिया, ते य चउरो पला, माणीए चेव बनीसिया, एवं सोलसियादयोवि, करोडागिती विसालमुही जा कुंडीद सा करोड़ी भण्णति, अद्धकुंडी वा करोडी, सेसं कंख्य, तुलापमाणेणाणुमिज्जइ एत्तियमेतति तं च, आह-' करिसादि' कंठ, मयं + P + + 4 दीप अनुक्रम [१३९ २३४] अत्र 'प्रमाण' अधिकार: कथयते ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ........................मूलं [१३१-१३४] / गाथा ||८३-९९|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१३१ रणी १३४] गाथा ||८३९९|| श्री बजे ते तहड्डियमेव जम्हा अग्नण दंडाइणा उत्तेमि(ओमिाणि)ज्जति तम्हात दंडाइयं ओमाण भण्णति तं च, सोय चउहत्थो दंडो भण्णति, लोकधनीअनुयोग खरी-खातं इङ्गादिणा, चितं करवण करकचितं, सेसं कंय, गणणप्पमाणं गणणा संखेज द य उभयभावो वाण विरोहो. करण, विविहे भितिवेयणस्थे अत्थसब्मावा आयव्वयं निवित्ततित्ति, जे पुवं तं आयव्वयं करेंतस्स जं संसिता, दब्बातो ण णिब्बति॥ ५१ लक्षणं भवति, तुलारोवियतनुभयदव्वकर्मयस्स पडिरूनं अण्णं माणं पडिमाणं, तं च गुंजादि, अहवा गुंजादिणामप्पमाणातो अम्हा मेयस्स पमाणं णिप्फज्जति तम्हा त मेयं पडिमाणप्पमाणं, सपादगुजा काकणी मासचंतुब्भागो वा काकणी, एवं कम्म-10 मासको चतुःकाकणिक इत्यर्थः, अट्ठयालीसं काकिणीउ मंडलतो, संखप्पवालाण उत्तरांपहे पडिमाणबोहिताण कयविक्कयो सिलति गंधपज्जगाती, वर्कति वा रत्तंति वा एगई, ते ककेयणादि रयणं इंदणीलादि सम्वुत्तमं । इदाणि खेचप्पमाण, खर्स जेण मिज्जा ते खेत्तपमाण, तत्थ विमंगणिष्फणं अणेगविहं अंगुलादि, दो हत्था कुच्छी, सेढित्ति अणिः, का एसा सेढी?, उच्यते, सेढी लोगातो &ाणिप्फज्जति, सो य लोगो चोइसरज्जूसितो हेटा देसूणसत्तरज्जुविच्छिण्णो तिरियलोयमझे एग बमलोयमज्झे पंच उरि लोगन्ते एकरज्जधिच्छिण्णों, रज्जु पुण सयंभुरमणसमुहपुरथिमपच्चत्थिमवेन्यता, एस लोगो द्विपरिच्छेतेण संबडेढ घणो कीरति, 18 कह , उच्यते, णालियाए दाहिणिमहोलोयखंडं हेढादेसूणतिरज्जुविच्छिणं उवरि रज्जुअसंखेज्जभागविच्छिणं अतिरित्त सत्तरज्जूसित, एतं पेनुं ओमस्थियं उत्तरे पासे संघाइज्जइ, इदाणि उङ्कलोगे दो दाहिणिल्लाई खंडाई बंभलो यबहुमझदेसभागे 8 विरज्जुविच्छिण्णाई सेसतेमु अंगुलसहस्सदोभागविच्छिण्णाई देसूणअद्भुट्ठरज्जूसियाई, एताई घेत्तुं विवरियाई संघाइज्जति, एवं इकतेसु किं जायं ?, हेडिमलोगई देसूणचतुरज्जुविच्छिणं सातिरितसत्तरज्जूसितं देसूणसत्तरज्जुबाहलं उवरिलम«पि अंगुलसहस्स OCCAXCC G५ दीप अनुक्रम [२३५२६९] द ~55~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ........................मूलं [१३१-१३४] / गाथा ||८३-९९|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१३१ १३४] गाथा ||८३९९|| श्री दोभागहियं तेरज्जुविच्छिणं देसूणसत्तरज्जूसियं पंचरज्जुवाहल्लं, एवं घेत्तुं हेडिल्लस्स अद्धस्स उत्तरे पासे संघाइज्जइ, जं तं अहे-12 अंगुलअनुयागद खंडस्स सत्तरज्जुअहियं उवरि घेत्तुं उत्तरिखडस्स जतो बाहल्लं ततो उड्ढायतं संघाइज्जइ, तहावि सत्तरज्जुतो ण पूरति, ताहे जं माना चूणी दक्खिणिल्लखंडं तस्स जमहिगं बाहल्ले तो तस्सद्धं छित्ता उत्चरतो बाहल्लि संघाइज्जा, एवं किं जायं ?, वित्थारतो आयामओ य* ॥५२॥ | सत्तरज्जुबाहल्लतो रज्जुते असंखभागेणाहियाउ छरज्जू, एवं एस लोगो ववहारतो सत्तरज्जुघणो दिट्ठो, एत्थं जे ऊणातिरित्तं तं 81 बुद्धीए जधा जुज्जइ तहा संघातेज्जा, सिद्धते य जत्थ जत्थ अविसिटुं सेढीए गहणं तत्थ तत्थ एताते सत्तरज्जुआयताए अवर्ग-1 | तब्ब, पयरस्सवि एयस्स चेच सत्तरज्जगहणं, लोकस्स पयरीकते तस्स तुल्लपदेसचणओ ण विसेसगहण कज्जति, अलोगे अति भावप्पमाण आकतित्तणतो अलोगप्पमाण भवति । 'से किं तं अंगुले' इत्यादि, अणवट्ठियमातंगुलं, पुरिसप्पमाणाणवडियत्तणतो, #कह, उच्यते, जतो हु समाणवट्ठीकालवेकखचणतो, जे जत्थ काले पुरिसा तेसि जं अंगुलं तं आयंगुलं, ववहारियपरमाणुउस्से-16 धातो जे णिफण तं उस्सेहंगुलं, तं च अवडियमेगं, उस्सेहंगुलातो कागणिरयणस्स कोडीप्पमाणमाणियं, ततो कोडीतो बद्धमादाणसामिस्स अर्द्धगुलप्पमाणमाणियं, ततो उ पमाणातो जस्संगुलस्स पमाणमाणिज्जइ तं पमाणगुलं, अट्ठसयालेण जं पमाणं ४ णिप्फाईज्जइ तं तेणप्पमाणेण णिफाइयज्जतणउ पमाणजुत्ते पुरिसे भण्णति, दोणीए जलदोणभरणरेयणमाणुवलंभाओ माणजुत्ते भवति, वइरमिव सारपोग्गलोबचियदेहे तुलारोविते अद्धभारुम्मिते ओमाणजुत्ते भवति, चकिमाति उत्तमा ते णियमा तप्पमाण- का॥५२॥ जुत्ता भवंति, जती भणंति 'माणुम्माण गाधा (१९६-१५६) करादिसु संखादिया लक्षणा मसतिलगादिया बजणा अप्पको| धादिया गुणा, सेसं कंख्यं । उत्तिमज्झिमाहमपुरिसे दसयति-'हॉति पुण' गाहा (१९७--१५७) एकेक्कभेददंसगो पुणसहो, अट्ठ दीप अनुक्रम [२३५ २६९] ~56~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .......................मूलं [१३१-१३४] / गाथा ||८३-९९|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१३१ ॥५३॥ १३४] गाथा ||८३९९|| सतमुलप्पमाणतो जे' हीणा वा 'गाथा (४९८-१५७) सचमेव सारः सञ्चसारः अथवा देहे सुभपोग्गलोवचयत्वं सार एवमा- आत्माअनुयागादिपुरिसाणं आयंगुलं, वावी चतुरस्सा, वृत्ता पुक्खरणी पुष्करसंभवातो वा, सारणी रिजु दीहिया सारणी एवं वंझा गुंजालिया सर-II चूर्णी मग तीए पंतिट्टीया दो सरातो सर कवाडयेण उदगं संचरइनि सरपंती, विविध रुक्खलतोवसाभितं कदलादिपच्छण्णघरेसु य | सावीसभियाण रमणट्ठाणं आरामो, पत्तपुष्फफलछायोवगादिरुक्खुवशोभितं बहुजणविविहवेसुण्णयमाणस भोयणढा जाणं उज्जाणं, इत्थीण पुरिसाण वा एगे पक्खे भोज्जं जंतं काणणं, अहवा जस्स परतो पव्वयमडवी वा सब्बवणाण य अंते वणांत काणण, दिशीणों वा, एगजातियरुक्खेहि वर्ण, अणेगजातीएहि उत्तमेहि य वणसंडे, एगजादियअणेगजातियाण बा रुक्खाण पती वणराई, अहो संकुडा उपरि विशाला फरिहा समखाता खाइया अंतो पागाराणं अंतरं, अट्ठहत्थो रायमग्गो चरिया, दुहं दुवाराण अंतरे गोपुरं, तिको णामागासमूमि तिपहसमागमो, संघाडगं तिपहसमागमो चेव, तियचतुरंसं चतुप्पहसमागमो चेत्र चच्चरं छप्पह। समागम वा एवं छच्चर भण्णति, देउलं चतुमुई, महतो रायमग्गो महाप्पधो इतरे पहा, सत् सोभणाबिहुजं भयंते पोस्थगवायणं वा जत्थ सामन्नतो वा मणुयाणं अच्छणहाण सभा, जत्थुदकं दिज्जति सा पवा, बाहिरालिंदो सुकिधी अलिंदो वा सरणं, गिरिगुहा लेणं पब्बयस्सेगदसलीणं वा लयण, कप्पडिआ वा जत्थ लयंति तं लयण, भंडं-भायणं तं च मृन्मयादि मात्रो-मात्रायुक्तो सो य कसभायणादि भोयणभंडिका, उबकरणं पुण अणेगविहं कडगपिडगसुप्पादिकं, अहवा उवकरणं इमं सकडरहादियं, तत्थ रहोत्ति ४ जाणरथो संगामरथो य, संगामरहस्स कडिप्पमाणा फलयवेड्या भवति, जाणं पुण गडिमाईयं, गोल्लविसए जंपाणं द्विहत्थमात्रं चतुर-17 सं सवेदिकमुपसोभितं, जुग्गय लाडाणं थिल्ली जुगर्य, हस्तिन उपरि कोल्लरं गिलतीच मानुषं गिली लाडाणं जै अडपल्लाणं तं अण्ण दीप अनुक्रम [२३५ ॥५३॥ २६९] ~57~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३१ १३४] गाथा ||८३ ९९|| दीप अनुक्रम [२३५ २६९] श्री अनुयोग चूण ॥ ५४ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) . मूलं [१३१-१३४] / गाथा || ८३-१९ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: बिसञेसु गिल्ली भण्णति, उचरिं कूडागारछादिया सिबिया, दीहो जंपाणविसेसो पुरिसस्स स्वप्रमांणावगासदाणतणओ संदमार्णि, लोहेति कवेली, लोहकडाहोनि लोहकडिलं, एते आयंगुलेणं मविज्जति, किं च--अज्जकालियाई च जोयणाई तं तिविद्धं प्रतिमादि, पदेशतो अप्पबहुत्त से कंठ्यं गतं आयंगुलं । इदाणि उस्सेहेगुलं, तं अणेगविहंति भणतो णणु विरोधो, आचार्याह--नो भणामो उस्सेहंगुलमणेगविधं, किंतु उस्सेहंगुलस्स कारणं अणेगविधं पण्णचं, जतो भण्णति 'परमाणु' गाथा (९९--१६०) से ठप्पेति स्वरूपख्यापने न स्थापनीयः, छेदो दुधाकरणं, भेदो अगधा फुटणं, सूक्ष्मत्वात् न तत्र शस्त्रं क्रमते, पुक्खलसंव्यगस्स इमा परूवणा 'वमाणसामिणो गिब्वाणकालातो तिसट्ठीए वाससहस्सेसु ओसप्पिणीए पंचमछट्टारगेसु ओसप्पिणीए व एकवीसाए बाससहस्सेसु बीतिकंतेसु एए पंच महामेहा भविस्संति, तंजहा- पुक्खलसंबट्टए उदगरसे वितिए खीरोदे ततिए घतोदे चउत्थे अमीतोदे पंचमे रसोदे, तत्थ पोक्खलसंवट्टइए इमस्स भरहखेत्तस्स असुभाणुभावं पुक्खलति संबद्धेति-निनाशयतित्ति पुष्कलसंव भवति, पुष्कलं वा-सम्बं भरहखेतं संवट्टेत्ता वरिसतिति पुष्कलसंबद्धते, उदउल्लेति-उदगेन उच्छे न भवति, तथा ग यावि केणइ घातिसि तत्र गच्छतो विधातो न जायते, सोताणुकूलं ण भवति, परियावज्जणं पर्यायान्तरगमनं, ण उद्यागमनादि उदगावतादिणा भावेण प्रशमतीत्यर्थः, अणताणं सुदुमपरमाणूण समुदायो ववहारिए परमाणू भवति, अणंताणं च ववहारिय परमाणूर्ण उस्सेधतो जा णिफ्फण्णा सा उसण्डसण्डिया भवति, उवरिमसहियाहि अक्खतो वा उप्पाबद्दतो सण्हा उसण्हसण्डिया, उद्धरेणुमादि अहेखतो सहसण्डिया, उद्धमहस्तिर्यक् स्वतः परतो वा प्रवर्त्तत इति उर्द्धरेणुः पुरस्तदादि वायुना प्रेरितः त्रस्यति गच्छतीति तसरेणू, रहाहिना गच्छता उद्घातो यः स रथरेणु, रयणप्पभाए जं भवधारणिज्जं उत्तरवेउब्वियं तं सकरपभादिसुदुगुणं ~ 58~ उत्सेधागुलं. ॥ ५४ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३१ १३४] गाथा ||८३ ९९|| दीप अनुक्रम [२३५ २६९] श्री अनुयोग चूण ॥ ५५ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) . मूलं [१३१-१३४] / गाथा || ८३-१९ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: 4 4 , णेयं जाब महातमाए भवधारणिज्जं पंचधणुसया उत्तरखेउब्वियं धणुसहस्सं, एवं उक्कोर्स, जहणं पुण सब्धे भवधारणिज्जं अंगुल असंखभागो, उत्तरवेउच्चिए अंगुलस्स संखेज्जइभागो, भवणवई दसविहा इमे असुराणागकुमारा ( सुवण्णा) विज्जू अग्गी य दीव दही य दिसवायथणियाणामा भवणवई दसवा देवा ।। १ ।।' तेसि देवाणं सरीरोगाहणा भवधारणा उत्तरा य तत्थ असुरकुमाराणं भवधारणा जहण्णा अंगुल असंखभागी उकोसो सत्त रयणी, उत्तरवेउब्बिया जहण्णा अंगुलस्स असंखेज्जतिभागो उक्कोसा जोयलक्खं एवं णागादियाणवि णवणं, णवरं उत्तरवेउब्विया उक्कोसा जोयणसहस्सं गतं उस्सेहंगुलं । इयाणि पमाणंगुलं एगस्स णं इत्यादि, अण्णोष्णकालुष्पण्णाणचि चक्कीणं कागणिरयणस्स अद्वितेगप्पमाणदंसणसणतो एगमेगग्गहणं, सुब्बभप्यमाणं इमं चत्तारि मधुरतिणफला एगो सेतसरिसवो, ते सोलससरिसवा धनमासफलं एगं, दो धन्नमासफला एगा गुंजा, पंच गुंजातो एगो सोलसकम्ममासगो सुवण्णो, असोदण्णियं काकणीरयणं, एतं सुवण्णप्रमाणं जं भरहकाले मधुरतिणफलादिपमाणं ततो आणतव्यं, जतो सव्वचक्कत्रीणं काकणीरयणं एगप्पमाणंति, अस्सिति वा कोडिति वा एगड्डा, तस्स विक्खंभोति वित्थारो तस्स त समचतुरंसभावनणतो सच्चकोटीणायामविक्खभभावत्तणतो विक्खंभो चैव भणितो ण दोसो, तं च उस्सेहंगुलं वीरस्स अर्द्धगुलंति, कहं १, उच्यते, जतो वीरो आदेसंतरतो आयंगुलेण चुलसीतिमंगुलुविद्धो, उस्सेहतो पुण सत्तसगुसतं भवति, अतो दो उस्सेहंगुला वीरस्स आतंगुलं, एवं वीरस्स आयंगुलातो अर्द्ध उस्सेहंगुलं दिई, जर्सि पुण वीरो आरंगुलेण अङ्गुत्तरमंगुलसतं तेसिं वीरस्स आयंगुले एगं उस्सेहंगुलं उस्सेईगुलस्स य पंच णवभागा भवति, जेसिं पुण बीरो आयंगुलेण वीसुत्तर ~ 59~ काकिणी मानं वीरां -गुलं च ।।। ५५ ।। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४ १३७] गाथा ||९९ १०३|| दीप अनुक्रम [२६८ २७४] श्री अनुयोग चूण ॥ ५६ ॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .. मूलं [१३४- १३७] / गाथा ||९९-१०३ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र- [ ०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: मंगुलसयं तेसिं वीरस्स आयंगु लेणेगमुस्सेहंगुलं उस्सेहंगुलस्स य दो पंचभागा भवंति एवमेतं सर्व्वं तेराशियकरणेण दट्ठवं तं चैव उस्सेहंगुलं सहस्सगुणं पमाणगुलं भवति, कह १, उच्यते, भरहो आयंगुलेण वीसुत्तरमंगुलसतं तं च सपादं धणुयं उस्सेहंगुलमाणेण पंचधणुसते लभामि तो एगेण धणुणा कि लभिस्सामि ?, आगतं चत्तारि धणुसताणि सेटीए, एवं सव्वे अंगुल जोयणादयो दट्टव्या । एगंमि सेढिप्यमाणंगुले चउरो उस्सेहंगुलसता भवंति, तं च पमाणंगुलं उस्सेहंगुलप्पमाणअद्धातियंगुलवित्थड जं तो सेढीए चउरो सता अट्ठाइयंगुलगुणिता सहस्समुस्सेहंगुलाण, तं एवं सहस्सगुणं भवति, जे यप्पमाणमंगुलातो पुढवादिष्यमाणा आणिज्जति ते परमाणंगुलविष्कंभेणं आणयच्या, पण सूइयंगुलेण, रयणकंडाइया कंडा भवणप्पत्थडाणि रयणपत्थडतरे, सेसं कंठ्यं । ' से किं तं कालप्पमाणे' त्यादि (१३४-१७५) प्रदेश इति कालप्रदेशः, स च समयः, तेसिं पमाणं पदेसणिप्फण्णं कालप्पमाणं भण्णति, एगसमयठिहआदिक, विविधो विसिट्टो वा भागो विकल्पो तस्से पमाणं विभागणिष्कण्णं कालप्यमाणं तं च समयावलिकादिकं, जतो सब्बे कालप्यमाणा समयादिया अतो समयपरूवणं करेति 'से किं तं समए' इत्यादि (१३७-१७५) यद् द्रव्यं वर्णादिगुणोपचितं अभिनववतं तरुणं बलं च-सामर्थ्य स यस्यास्ति स भवति बलवं यौवनस्थः युगवं यौवनस्थोऽहमित्यात्मानं मन्यते यः भवति जुवाणो सकराति सकृत् अहवा सकराहंति-संववहारात् युगपत् स्याद् भषेतेत्यर्थः, अथवा स पट्टः पटसाटको वा तेन तुनागदारकेन कराभ्यां ओसारेति पाटयति स्फाटयतीत्यर्थः, कहूं ?, अन्नति, परमाणूणभणताणं परोप्परसिणेहगुणपडिवृद्वाणं संघातो भण्णति, संघातः समिति समागम एते एगट्ठा, अहवा इमो विसेसो तेसिणं अणताणं संघायाणं जोगो सो समुदायो, जम्हा समुदायिणो अष्णोष्णागता तम्हा अण्णोष्णाणुगतत्तोवहणत्थं समिती भण्णति, एगदव्त्रं पडुच्च समानेन सच्चे परिणमंतीति समीती, एवं एगदव्वाण अत्र 'समय' अधिकारः वर्णनं क्रियते ~60~ समयादि निरूपणं. ॥ ५६ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ............मूलं [१३४-१३७] / गाथा ||९९-१०३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: मा .............. प्रत सूत्रांक [१३४ अनुयोग चूर्णी क १३७] गाथा ||९९ १०३|| | ब्वत्तिसमागमेण वा भणियब्बंति, समयस्स सुहमलणतो जहा क्रियाबिसेसो से णथि कोई, एसडे, नो, कम्हा ?, भण्णति-एत्तोल पल्योपम बहुमतराए समएत्ति, असंखेज्जसमयसमुदयो चेव आवलियप्पमाणं अणुरुवसमितित्ति भण्णति, ते चेव आवलिववदेसत्ता समा- सागरोपमें गमो भण्णति, ससं पूर्ववत्, थोचे सत्तुस्सासा सत्त थोवा य लवे लवो सत्तथोवेण गुणिते जातो अगुणपबासा मुहुत्ते सत्तत्तरि लवा ते अउणपण्णासेण गुणिया जातं इम-तिनि सहस्सा सत्त सया तेहत्ता, 'से किंतं उवमिते' इत्यादि, अंतोमुहत्तादिया जाव पुथ्वको-12 डीएत्ति, एतानि धर्माचरणकालं पडुच्च परतिरियाण आउपरिमाणकरणे उवजुजंति, णारगभवणवंतराणं दसवरिससहस्सादि उव-13 | जुज्यंति, आउयचिंताए तुडियादिया सीसपहेलियंता एते प्रायसो पुव्वगतेसु जविएमु आउयसेढीए उबउज्जति, अन्यत्र यदृच्छातः | एताव ताव गणिय अंकट्ठवआए, बितियणागारो सुहमुहच्चारणत्थं, जाण ज्ञानविषयोऽपि, अहवा एतावति य अंकट्ठवणा जावयं | अंकट्ठवणट्ठाणा दिवा ताव गणितज्ञानमपि दृष्टं तुडिगादि सीसपहलियंत, उवमाणं जं कालप्पमाणं ण सक्कड घेत्तुं तं उवमियं | भवति, धण्णपल्ल इव तेण उवमा जस्स तं पल्लोवमं भण्णति, अह दस पल्लककोडाकोडीतो एर्ग सागरोवमं, तस्स पलियस्स भागो पलितं भण्णति तेण उवमा पलितोचम, सागरो इब जं महाप्रमाणं तं सागरोवम, वालग्गाण वालखंडाण वा उद्धारत्तणतो उद्धारपलितं मण्णति, अद्धा इति कालः सो य परिमाणतो वाससंयं वालग्गाण खंडाण वा समुद्धरणतो अद्धापलितोवमं भण्णाति, अहवा | अद्धा इति आउद्धा सा इमातो रइयाण आणिज्जति अतो अद्धापलितोवमं, अणुसमयखेत्तपल्लपदेसावहारत्तणतो खेत्तपलितोवम, x ॥५७॥ 51 से किं तं उद्धारपलितोवमे ' त्यादि (१३८-१८०) वालग्गाण सुहुमखंडकरणततो मुहुमं, बादरवालग्गववहारत्तणतो | व्यवहारियं, ववहारमेचत्तणतो वा वबहारियं, ण तेण प्रयोजनमित्यर्थः, से ठप्पेत्ति चिट्ठतु ताण परूविस्स, परिखेवेणं तिष्णि जोयणा दीप अनुक्रम [२६८२७४] ~61~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ....................मूलं [१३८-१४०] / गाथा ||१०३-११२|| .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१३८ १४०] गाथा ||१०३ श्री 13 सतिभागा, समद्वेति कण्णसमं भरितं सन्निचितेत्ति अतीव संघणणोपचतमिता इत्यर्थः, कुत्येज्जेति णो कुत्थेज्जा पल्योषम अनुयोगदाणिस्सारीभवेज्जत्तिवृत्तं भवति, उदगेण वा णो कुथिज्जा, विस्ससापरिणामण प्रकर्षेण स्फुटं प्रतिविध्वंसणं, णोद सागरोपमे चूर्णी प्रतिषेधे, पूतिः-दुर्गन्धः देहेति वालाग्रस्यात्मभावः तं बालग्गं पूतिदेहत्वेन हव्वं भवे, एवं भणितष्पगारेहिं ते ॥५८॥ बालग्गं णो आगच्छेज्जा इत्यर्थः, ' स्वणेि ' इत्यादि एगट्ठिया, अहवा थोवावसेसेसु वालग्गेसु खीणेत्ति भण्णति, तेसुधि उद्धिनेमु णीरए भण्णात, सुहुमवालम्गावयवेसु विउतेसु णिल्लेवे मनात, एवं तिहिं पगारेहिं निहिते भण्णति, एवं रसवतिदिद्रुतं सामत्थतो भावेयवं, 'तणं वालग्गा' इत्यादि, ते बालग्गा असंखखंडीकता, किंपमाणा भवंति ?, उच्यते, जत्थ पोग्गलदव्ये छउमत्थस्स विसुद्धचक्खुदसणदिट्ठी अवगाहति तस्स दध्वस्स असंखभागखंडीकतस्स असंखेज्जतिमखंडप्रमाणा भवंति, अहवा तेसि वालखंडाण खेत्तोगाहणातो पमाणमाणिज्जति-सुहमपणगजीवस्स जं सरीरोगाहणखेच तं असंखेज्जगुणं जतियं भवति तनियखेने एग वालग्गखंड ओगाहति, एरिसा ते वालग्गखडा, पमाणेचि पायरपुढविक्काइयपज्जत्तसरीरप्रमाणा इत्यर्थः, 'उद्धारसमय ' ति प्रतिसमयं बालग्गखद्धरणेहिं पल्लोबममाणित, तेहिदि सागरोयम, तेसु अद्धातिज्जेसु सागरोवमेसु जतिया उद्धारसमया तत्तिया सच्चग्गेणं दुगुणदुगुणवित्थरा दीवोदहिणो भवंति, तत्थ चोदक आह-णणु वालग्गा असंखखंडप्रमाणा एव दीवोदहिणो, जतो बालखंडेहि चेव समयप्पमाणमाणितं किं उद्धारसमयग्गहणेणं ?, आचार्य आह-एगाहसंवट्टियवालग्गखंड| कतप्पमाणा सब्बे दुगादिया वालग्गा कारिया ते पुण अणंतपदेसा खंडा बालग्गखंडणेण विभागत्तणतो अनिधितं प्रमाणं भवति, समयाणं पुण अविभागत्तणतो निश्चितं प्रमाणं, समयग्रहणं अन्योन्यसिद्धिप्रदर्शनार्थ वा, ‘से किं तं अद्धापलितोवमे' ११२|| LASSASSAXXXREELAX Im५८॥ दीप अनुक्रम [२७४ २९२] ~62 ~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ....................मूलं [१३८-१४०] / गाथा ||१०३-११२|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१३८ च्याणि. १४०] गाथा ||१०३ ११२|| इत्यादि, जोगेण कम्मपोग्गलाण गहियाणं णाणावरणादिसरूवेण च परिणामियाण जे अवस्थाण सा ठिती, तहावि आउकम्मपो अजीवअनुयोग ग्गलाणुभवणं जीवणमितिकाउं आउकम्मुदयातो जा ठिती सा इह अधिकता इति, 'अप्पज्जत्ता णेरह ' त्यादि, णारगा करणप- द्रव्य चूणों दज्जत्तीए अप्पज्जत्ता भाणियब्बा, ते य अंतमहत्तं भवंति, लद्धिं पडुच्च णियमा ते पज्जत्ता एव, अपज्जत्तकालो अंतमुहुर्त, तंत्र ॥ ५९॥ सब्याऊतो अवणीय, सेसहिती जा सा पज्जत्नकालो सम्बो भाणेयब्बा, सब्बे णारगदेवा करणपज्जाए अपज्जत्ता भाणियब्बा, IN जम्हा लाई पदुच्च नियमा पज्जत्ता, एवं गन्मवक्कतियपाँचदियतिरियमणुया य जे असंखेज्जवासाउआ तेऽपि करणपज्ज| सीए अपज्जत्ता दहग्वा, सेसा जे तिरियमणुया ते लद्धि पडच्च पज्जता अपज्जत्ता य भाणियब्बा, शेप माणुम्माणमंत्र स्फुट, तस्मादेवानुसरणीयमिति, से कितं खेत्तपलिओवमे त्यादि, वबहारिय खेत्तपलिओवमं कठ्यं, से किंतं सुहुमखेत्तपलिओवमे'त्यादि, एतंपि खेत्तसरुवेण कंठ बनवं, जावइतेहिं वालग्गेहिं अफण्या वा अप्फुण्णावा, अप्फुण्णति व्याप्ता आक्रान्ता इत्यर्थः, इयरे। अणप्फुण्णा, जोयणप्पमाणे बट्टे खेचे सब्बे पदेसा घेत्तव्या, एवं परुबिते तत्थ चोदए पण्ण इत्यादि, कहं ?, जाव एगस्स भवेत परिमाणं' पुनरपि चोदक आह-जति जोयणप्यमाणे खेत्तपल्ले सन्वागासपदेसम्महणं, तप्पदेसाण य सहाणे समयावहारेण खचप-II लितोवमाणतो किं मुहमखत्तपलितोवमम्स वालग्गेहि णिरत्वयं परूवणा कता ?, आचार्य आह--युरी दिडिवाते खेलपलितोवमसा-Ix गरोवमेहिं दबप्पमाणमाणिज्जानि, किंच-जे पालखंडेहिं पदेसा अप्फुण्णा अणफणा वा तेहिवि पत्तेयं दब्बप्पमाणमाणिज्जइचि दि। ५९ ॥ अता वालग्गपरूवणा कता, ण दोसो, 'कतिविहा ण भंते ! दब्बा पण्णत्ता' इत्यादि । १४१-१९३) रइया भवणवासी: चाणमंतर पुढविआउतेउवाउ पनेयं विगलतियं असणि सणि पंचिंदिया सह समुच्छिमेहि मणुया जोतिसिया बेमाणिया एते सम्बे दीप अनुक्रम [२७४ २९२] द्रव्यस्य जीव-अजीवादि भेदा: प्रदर्शयते ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .....................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: श्री प्रत सूत्रांक [१४११४६] गाथा ||११२१२९|| असंखज्जा भाणियव्या, वणस्सइ बादरा मुहुमा णियोतीया अणंता सिद्धा माणियव्वा, 'अजीवब्बा णं भंते' इत्यादि कंख्य शरीराणि द जाव धम्मत्थिकाय, इत्यादि, कंठ, जाब धम्मत्थिकाए इत्येतत्, पर आह-किमेगं धम्मदब्बति धम्मस्थिकाएण उवचरियं , उच्यते | प्रणयाभिपायतो, गेगमो संगहितो संगहं पविट्ठो असंगहो बबहारं अतो संगहणयाभिप्पारण 'एग णिच्चं णिरवयय' गाहा, धम्मत्थि४ कातेत्यनेन सव्वमेवावयवि दवं एगवयणेण निद्दिव, विवहारणतामिप्पायतो धम्मत्यिकायस्स देशे इत्येतत, दुभागतिभागादिया बुद्धिभेदतो गहिया, जम्हा दुभागादीहिं धम्मदेशेहिं दबा गतिमावादिट्ठा तम्हा धम्मस्स देसो दवं भाणितव्वं, ण दोसो, दीणा-18 रदुगभागादिदिद्रुतसामस्थतो य एतं भावेतब्ब, रिजुसुतणयाभिप्पायतो धम्मस्थिकायस्स पदेसा इत्येतव, विकप्पिज्जमाणवयविदब्बस्स णिन्भिज्जसरूवोपदेसो दवाण अप्पणो समत्थत्तणेण गतिमादिपज्जयप्पदाणतोव्य तएव दव्यत्तणमिच्छति, एवमधम्मत्थिकायाकासेऽवि माणितव्या, अण्णं चात्र अवयवावयवीणं अण्णण्णभावो दंसितो भवतीत्यर्थः, ' अद्धा' इति कालाभिधाणं तस्स समयो अद्धासमयो, सो य णिच्छयतो एग एव बमाणो, तस्स य एगत्तणतो कायता नत्थि, अतो तस्स देसपदेसभावकप्प-14 णावि णत्थि, 'से किं तं रूवियजीव' इत्यादि, तत्थ पुग्गलादीण बहुवयणणिद्देसो कम्हा ?, पोग्गलस्थिकाए अणंता खंघदवा || खंधदेसाणं व संखयासंखेयाणतसम्भावतो बहुवयणणिद्देसे कतो, जेर्सि खंधत्तपरिणयाणमेव बुद्धीए गिरवयवकप्पणा कप्पिज्जति ते पदेसा माणितब्या, जे पुण खंधत्तेण अबद्धा प्रत्येकभावठिता ते परमाणू पोग्गलेत्ति भणिता, सेसं कंठ्यं ।। 'कति णं भंते सरीरा इत्यादि (१४२-१९५) 'ओरालितो' इत्यादि, शीर्यत इति शरीरं, तत्थ ताव उदार ओरालं ओरालिय या ओरालियं, तित्थकरगणधरशरीराई पडुच्च उदारं बुच्चति, न ततो उदारतरमण्णमस्थिति का उदारं, उदारं णाम प्रधान, ओरालं णाम विस्तरालं दीप अनुक्रम [२९२३१४] 43 अत्र शरीरस्य औदारिक-आदि भेदानाम वर्णनं ~64~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) सूत्रांक [१४१ १४६] sonal ||११२ १२१|| अनुक्रम [२९२ ३१४] श्री अनुयोग चूण ।। ६१ ।। “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र -२ (चूर्णि:) .मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र- [ ०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: विशालति वा जं भणितं होति, कहं ?, सातिरेगजोयणसहस्समवद्वियप्यमाणमोरालियं अण्णमेहहमेत्तं णस्थि, वेउब्वियं होज्ज लक्खमहियं, अवद्वियं पंचधणुसतं, इमं पुण अवद्वियप्यमाणं अतिरेगजेोयणसहस्तं वणस्पत्यादीनामिति, ओरालं नाम स्वल्पपदेशोपचितत्वात् भिण्डवत्, ओरालियं नाम मांसास्थिस्नाय्वाद्यवयवबद्धत्वाद, वैक्रियं विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया विक्रियायां भवं वैक्रियं विविधं विशिष्टं वा कुर्वन् तदिति वैकुर्विक, आहियते इत्याहारकं गृह्यत इत्यर्थः, कार्यपरिसमाप्तेश्च पुनर्मुच्यते याचितोषकरणवत्, तानि च कार्याप्यमूनि पाणिदयरिद्धिसंदरिसणत्थमत्थाचगहणहेतुं वा संसयवोच्छेयत्थं गमणं जिणपादमूलमि ॥ १ ॥ त्यक्तव्यान्येतानि तेजोभावस्तेजर्स सव्वस्स उण्हसिद्ध रसादिआहारपागजणणं वा । तेयगलद्धिनिमित्तं व तेयगं होति णायव्वं ॥ | १ || कर्म्मणो विकारः कार्म्मणं, अत्राह किं पुनरयमौदारिकादिः क्रमः १ अत्रोच्यते परं २ प्रदेशसूक्ष्मत्वात् | परं परं प्रदेशबाहुल्यात् परं परं प्रमाणोपलब्धित्वात् प्रधित एवौदारिकादिक्रमः, 'केवइयाणं भंते! ओरालियसरीरा पण्णत्ता' इत्यादि, ताणि य सरीराणि जीवाणं बद्धमुक्काई दव्यखेत्तकालभावीह साहिज्जति, द्रव्ये परिमाणं वक्ष्यत्य भन्यादिभिः क्षेत्रेण श्रेणिप्रतरादिना कालेनावलिकादिना, भावो द्रव्यान्तर्गतत्वात् न सूत्रेणोक्तः, सामान्यलक्षणत्वाद्वर्णादीनां अन्यत्र चोक्तत्वात्, 'ओरालिया बद्धा य मुक्केल्लया' य, बर्द्ध-गृहीतमुपात्तमित्यनर्थान्तरं, मुक्तं त्यक्तं क्षिप्तं उज्झितं निरस्तमित्यनर्थंीतरं, 'तत्थ णं जे ते बल्ला' इत्यादि सूत्रम्, इदानीमर्थः, ण संखेज्जा असंखज्जा, ण तीरंति संखातुं गणितुं जहा एत्तिया काम कोडिप्पिभिति ततोवि कालादीहिं साहिज्जति, कालतो वा ते समए २ एकैकं सरीरमवहीरमाणमसंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिण्णीहिं अवहीरतित्ति जं भणितं, असंखेज्जाण उस्सप्पिणिओसप्पिणीण जावइया समया एवइया ओरालियसरीरा बद्वेल्लया, खेततो परिसंखाणं असंखेज्जा ~65~ औदारिक भेदाः ।। ६१ ।। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .....................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४११४६] गाथा ||११२ अनुयोग ॥६२॥ १२१|| 81 लोगा भवंति, अप्पणप्पणियाहिं आगाहणियाहि ठविज्जतेहिं, जइवि एकेके पदेसे सरीरमेक ठापिज्जति तोऽविय असंखा लोगा औदारिक दा भरेन्ति, किंतु अवसिद्धतदोसपरिहरणस्थं अप्पणप्पणियाहि ओगाहणार्हि ठविज्जति, आह-कहमणंताणमोरालसरीरीणं असंखेज्जाईGI भदाः | सरीराई भवंति !, आयरिय आह-पत्तेयसरीरा असंखज्जा, तेसिं सरीराइवि तावइया चेव, ये पुण साधारणा तेसि अणंताण एक्वेक सरीरंति काउं असंखज्जा शरीरा भवंति, एवमोरालिया असंखेज्जा बद्धेल्लया, मुकल्लया अणंता, कालसंखाणं अणताणं उस्सप्पिणिोसप्पिणीणं समयरासिप्पमाणमित्ताई, खत्तपरिसंखाणं अणताणे लोगप्पमाणमित्ताणं खंडाणं पदेसरासिप्पमाणमेचाई, दब्बतो परिसंखाणं अभवसिदियजीवरासीतो अगतगुणाई, तो कि सिद्धरासिप्पमाणमेत्ताई होज्जा १, भणति-सिद्धाणमणतभागमनाई, आह-ता किं परिवडियसम्मद्दिविरासिप्पमाणाई होज्जा ?, तेसि दोण्हवि रासीणं मज्झे पडिजंतित्ति काउं भन्नति-जति तप्यमाणाई होन्नाई ततो तेसि चव निदेसो होति, तम्हा ण तप्पमाणाई, तो कि तेसि हेट्ठा होज्जा?, भण्णति-कताइ हेट्ठाई हॉति कताई उवरि हॉति कयाइ तल्लाई, तेण सब्बया अनियतत्तणेण णिच्चकालं ण तप्पमाणाइति तीरति वोन, आह कह मुकाई अणन्ताई भवंति ओरालियाई, भवति जदि ओरालियाई मुकाई ताई जाव अविकलाई तान घेप्पंति, ततो तेसिं अणतकालावस्थापाभावातो अणंतत्तणं ण पावति, अह जे जीवेहिं पोग्गला ओरालियत्तेण घेनुं मुका तीतद्धाए तेसिं गहणं, एवं सव्वपोग्गला गहणभावावण्णा, एवं जं तं भणति अभवसिद्धीएहितो अणंतगुणा सिद्धाण अणतभागोति तं विरुज्झति, एवं सबजीवहितो बहुहि गुणेहि अणतं 8 ॥ ६२ |पावति, आयरिय आह-ण य अधिकलाणमेव गहणं, एवं ण य ओरालियगहणमुकाणं सब्बपोग्गलाणं, किंतु जे सरीरमोरालियं जीवेण मुकं होति तं अणंतभेयभिण्णं होति जाव ते य पोग्गला तं जीवणिव्वत्तिय ओरालियसरीरकायप्पयोग ण मुयंति ण जाच अण्या दीप अनुक्रम [२९२ ३१४] ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .....................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ १४६] गाथा | बैंक्रिय श्रेणिप्रतरघनाः NACANCP ||११२ १२१|| परिणामेण परिणमंति ताव ताई पत्तेय तस्सरीराई भण्णति, एवमेकेकस्स ओरालियसरीरस्स अर्णतभेदभिण्णचणतो अणंताई अनुयोग ओरालियसरीराई भवंति, तत्थ जाई दबाई तमोरालियसरीरप्पयोगं मुइति तातिं मोनु सेसाई ओरालियसरीरत्तणतोवचरिज्जति, | कह ?, आयरिय आह-लवणादिवत्, यथा लवणस्य तुलाढककुडवादिष्यपि लवणोपचारः यावदेकशर्करायामपि तथैव लवणाख्या | ॥६३ ॥ विद्यते, केवलं संख्याविशेषः, एवमिहापि प्राण्यंगेकदेशेऽपि प्राण्यंगोपचारः लवणकुडवादिवत, एवमतान्यौदारिकादीनि, आइकहं पुनस्तान्यनंतलोकप्रदेशप्रमाणान्यकस्मिन्नेव लोकबगाहत इति, अत्रोच्यते, यथैकप्रदीपार्थिध्यप्येकभवनावभासिन्यामन्यपामप्यत्तिबहूना प्रदीपानामचिषस्तथैवानुविशंति अन्योन्याविरोधादेवमौदारिकान्यपीति, एवं सर्वशरीरेवप्यायोज्यमिति, अत्राह-किमुत्क्रमेण कालादिभिरुपसंख्यानं क्रियते?, कस्माद् द्रव्यादिभिरेव न क्रियते?, अत्रोच्यते, कालान्तरावस्थायित्वेन पुद्गलानां शरीरोवचयाकृतिमन्चात्कालो गरीयान् तस्माद् तदादिभिरुपसंख्यानमिति, ओरालियाई समत्ताई दुविधाई अपि कहेत्ता ओहियओरालियाई, एवं सबेसिपि एगिदियाण माणितब्बाई, कि कारणं?, ओहियओरालियाईपि ते चव पट्टच्च बुच्चंति । 'केवड़या णं भंते ! घेउब्बिया' इत्यादि, वेउब्विया बबेल्लया असंखज्जा असंखेज्जाहिं उम्सप्पिणी नहेब खेचतो असंखज्जाओ सेढीतो, आह-का पुण एसा सेढी, लोकातो णिप्फज्जति, लोगो पुण चोइसरज्जुस्सितो हिट्ठादेसूणसत्तरज्जुबिच्छिण्णो मज्शे रज्जुविच्छिण्णो एवं भलोगे पंच उपरिलागते एगरज्जुविच्छिण्णो, रज्जू पुण सयंभुरमणसमुद्दपुरथिमपच्चत्थिमवेइयंता, एस लोगो बुद्धिपरिच्छेतेण संबड्डेउँ पणो कीरह, कई पुण, पालियाए दाहिणिल्लमहोलोगखडं हेडा देसूणतिरज्जुविच्छिणं उपरिरज्जुअसंखभागविच्छिण्णं | दि अतिरित्तसत्तरज्जुस्सयं, एवं घेत्तुं ओमत्थियं उत्तरे पासे संघाइज्जति, उङ्कलोगे दो दाहिणिल्लाई खंडाई भलोयबहुमज्झदेसभागे 2 - दीप अनुक्रम [२९२ R६३॥ ३१४] ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत DEE सूत्रांक [१४१ १४६] गाथा ||११२ १२१|| दीप अनुक्रम [२९२ ३१४] श्री अनुयोग चूर्णां ॥ ६४ ॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र -२ (चूर्णि:) . मूलं [१४१- १४६] / गाथा ||११२-१२१ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र- [ ०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: जानि. विरज्जुविच्छिष्णा सेसंतेसु अंगुलसहस्सभागविच्छिष्णाई देसुण अधुट्ठरज्जुस्सिताई घेतुं उत्तरपासे विवरीयाई संघाइज्जति, एवं 5 आहारतैजकरहिं किं जाये?, हेट्टे लोग देसूणचतुरज्जु विच्छिष्णं सातिरित्तसत्तरज्जुस्सितं जातं देभ्रूण सत्तरज्जुवाहछं, उवरिल्लमद्वेपि अंगुलसहस्सकार्मदोभागाहियतिरज्जु विच्छिण्णं देवणसत्तरज्जूसितं पंचरज्जुबाहलं, एवं घेत्तुं हेल्लिअद्धस्स उत्तरे पासे संघाइज्जइ, एवं किं जायं, सातिरेगसत्तरज्जुविच्छिष्णं घणं जातं, तं जं तं उवरि सतरज्जुअमहियं तं घेतु उत्तरे पासे उड़ायत संघातिज्जति, एवं एस लोको सत्तरज्जुघणो, जओ ऊणातिरितं जाणिऊण ततो बुद्धीए संघाइज्जा, जत्थ जत्थ सेडिग्गहणं तत्थ तत्थ एताए सत्तरज्जुआयताए अवगंतव्वं, पतरत्तेवि एतस्स चैव सत्तरज्जुस्सिअस्स, एवमणेण खेत्तप्पमाणेण सरीरीणं एकमेकेणं सरीरप्पमाणेणं वेडब्बियाई बल्लगाई असंखेज्जसदीप्पदेसरासिष्यमाणमेत्ताई, मोक्काई जधोरालियाई । 'केवइयाई भंते! आहार' इत्यादि, आहारयाई बद्धाई सिय अस्थि सिय पत्थि, किं कारणं १, तस्स अंतरं, जहणेणं एकं समयं उकोसेणं छम्मासा, तेण ण होंतिथि कयाई, जइ होंति जहणणं एकं च दोऽचि तिष्णि व उकोसेणं सहस्सपुत्ता, दोहितो आढचं पुडुत्तमण्णा जाव णव, मुकाई जधोरालियमुकाई । 'केवइया णं भंते! तेयासरीरा पण्णत्ता ' इत्यादि, तेयावद्वाणं अनंताई उस्सप्पिणीहिं २ कालपरिसंखाणं खेचतो अनंता लोगा दव्वतो सिद्धेहि अणतगुणा सब्वजीवाणंतभागूणा, किं कारणमणताई ! तस्सामीण मणन्तत्तणतो, तो आह-ओरालियापि सामिणो अणंता, आयरिय आह-ओरालिय सरीरमणंताणं एगं भवति, साधारणतणतो, तेयाकम्माई पुण पत्तेयं सव्वसरीरीणं, तेण तेयाकम्माई पच्च पत्ते चैव सव्वसरीरिणो, ताई च संसारीणंति काउं संसारी सिद्धेहिंतो अनंतगुणा होंति, सब्बजीव अनंतभागूणा, के पुण ते?, ते पुण संसारी सिद्धेहिं ऊणा, सिद्धा सव्वजीवाणं अनंतभागे, तेण तेण ऊणा अनंतभागूणा भवंति मुकाई अनंताई ~68~ ॥ ६४ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ...................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ अनुयाग यमान १४६] गाथा ॥६५॥ ||११२ १२९|| | अर्णताहि उस्सप्पिणीहि खेत्ततो अणता दोवि पूर्ववत, दबतो सब्बजीवेहि अणंतगुणा जीवघग्गस्स अणंतभागो, कहं ?, सच्चजीवानार | अणतगुणा जाति ताइ तेयाकम्माई होज्जा, आह-एत्तियं ण पावति. किं कारणं , तेयाकम्माई तहेवणंतभेदभिण्णाई असं-12 खेज्जकालावत्थाई जीवहिंतो अर्णतगुणाई भवंति?, केण पुणाणतएण गुणाई, तं चैव जीवाणतयं तेण जीवाणतएण गुणितं जीव-1 वग्गो भण्णति, एतिया य होज्जा, आह-एत्तियं ण पायति, किं कारणं, असंखेज्जकालावस्थाइत्तणतो तेसि दव्वाणं, तो कित्तियाई पुण होज्जा ?, जीववग्गस्स अणंतभागो, कहं पुण तदेवं घेत्तव्वं , आयरिय आह-ठवणारासीहि, णिदरिसणं कीरइ, सब्बजीवा दससहस्साई बुद्धिए घेप्पति, तेसि वग्गे दसकोडांतो होंति, सरीराई पुण दससतसहस्साई बुद्धीए अवधारिजति, एवं किं जाय, सरीरयाई जीवहितो सतगुणाई जाताई, जीवबग्गस्स सतभागे संयुत्ताई, णिदरिसणमे, इहरहा सम्भावतो एते तिण्णिवि रासी अनंता दगुम्बा, एवं कम्मयाइपि, तस्स सहभावितणओतत्तल्लसंखाई भवंति, एवं ओहियाई पंच सरीराई भणिताई ।।४ मेरइयाण मंते !' इत्यादि. विससिय णारगाणं वेउव्वगा बद्धेल्लया जावइया एव णारगा, ते पुण असंखेज्जा असंखज्जाहि उस्स| प्पिणीहि कालप्पमाणं, खेत्तओ असंखज्जाओ सेढीओ, तासि पदेसमित्ता णारगा, आह--पयरंमि असंखज्जाओ सेढीओ?, आयरिय आह-सयलपयरसेढीओ ताव न भवंति, जदि होतिओ एवं चेव भण्णंति, आह--तो ताओ कि देखणपयरवत्तिणीओ होज्जा', तिभागचउभागवतिणीओ होज्जा, भण्णति, जो अणं सेढीओ पतरस्स असंखेजतिभागो, एयं विससियरं परिसंखाणं कर्य, होति, अहवा इदमण्यं विसेसिततर विक्वंभराईए एएसि संखरणं भष्णइ, 'तासि णं सेढीणं विक्खंभमइ अंगुलपढमवग्गमूल वितियवग्गमूलेण पदुप्पाइयं तावइयं जाव असंखेजाइ समितस्स ' अंगुलविक्खंभखेतवत्तिणो सेढीरासिस्स जं पढमं वग्गमूलं तं वितिएण दीप अनुक्रम [२९२ ३१४] ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ..................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४११४६] गाथा ||११२१२१|| श्री अनुयोग चूणों ॥६६॥ वग्गमूलेण पप्पातिज्जति, एवइयाओ सेढीओ विक्खंभमई, अहवा इयमण्णेणप्पगारेण पमाणं भण्णइ 'अहवा तमंगुलवितियव-18| असुर ग्गमूलघणुपमाणमेत्ताओ' तस्सेवंगुलप्पमाणवेत्तवत्तिणो सेढिरासिस्स जे रितिय बग्गमूल तस्स जो घणो एवतियाओ सेढीओटिकमारादि विक्खेभमई, तासि ण सेढिणं पएसरासिप्पमाणमेत्ता नारमा तस्स सरीराई च, तेसिं पुणे ठवर्णगुले णिदरिसणं-दो छप्पण्णाई मानं दासढीवग्गाई अंगुले बुद्धीए घेप्पंति, तस्स पढम वग्गमूलं सोलस वितियं चत्तारि तइयं दोणि, तं पढम सोलसयं वितिएण चउ-18 कएण वग्गमूलेण गुणियं चउसट्ठी जाया, वितियवग्गमूलस्स चउकयस्स घणा चेव चउसट्ठी भवति, एत्य पुण गणियधम्मो अणुवचितोऽतियहुर्य थोवेण गुणिज्जति तेण दो पगारा भणिता, इहरा तिण्णिवि भवति, इमो ततियपगारो-अंगुलवितियवम्ग-15 मूलस्स पडप्पण्णं भागहार (पढमवग्गमूलपट्टप्पणं पोडशगुणाश्चत्वारः) इत्यर्थः, एवंपि सा चेव चउसड्डी भण्णति, एते सम्बे रासी सम्भावतो असंखा दट्ठव्वा, एताई णारगवेउब्धियाई बढ़ाई, मुकाई जहा ओरालियाई, एवं सम्बसरीराई मुकाई भाणितव्याई, वणस्सतित्याकम्माई मोर्नु, देवणारगाई तेयाकम्माई दुविहाइबि सहाणवेउब्वियसरीराई समाणाई, सेसाणं वणस्सतिबज्जाणं सट्ठाणोरालियसरीराई । इयाणि जे जस्स(न)भणितं तं भणिहामो--'असुरकुमाराणं भंते!" इत्यादि, असुराणं बेउन्चिया बदिल्लया असंखेज्जाहि उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं कालंतो ते चव खेत्तओ असंखज्जाओ सेढीओ पतरस्स असंखज्जतिभागो, तासि ण सेढीणं विक्खंभसूती अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखज्जभागो, तस्स णं अंगुलविखंभखेत्तवत्तिणो सेढीरासिस्स जे तं पढमवग्गमूलं तरथ जातो सेढीतो तार्सिपि असंखेज्जतिभागे उ सम्बणरइएहितो असंखज्जगुणहीणा विकभसइया भवति, जम्हा | महार्डडएवि असंखज्जगुणहीणा सब्वेवि भवणवासी रयणप्पभापुढविणेरहएहितोषि, किमुय सम्बेहितो', एवं जाव थणियकुमा दीप अनुक्रम [२९२ ३१४]] ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४१ १४६] गाथा ||११२ १२१|| दीप अनुक्रम [२९२ ३१४] श्री अनुयोग चूण ॥ ६७ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि:) मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: राणं, पुढविआउतेउस्स उ वाउवज्जकंठा भणियञ्चा। 'वाउकाइयाणं भंते!' इत्यादि, वाउकाइयाणं वेउध्विया बल्लिया असंखेज्जा, समय समय अबहीरमाणा पलितोचमस्स असंखेज्जइभागमेदेणं कालेणं अवहीति, णो चेव णं अवहिया सिता, सूत्रं, कहं पुण पलितोत्रमस्स असंखज्जइभागमेत्ता भवति, आयरिय आह-वाउफाइया चउब्विहा मुहुमा पज्जता अपज्जत्ता, बायरावि पज्जत्ता अपज्जत्ता, तत्थ तिष्णि रासी पत्तेयं असंखेज्जा लोगप्पमाणप्यदेसरा सिपमाणमेत्ता, जे पुण बादरा पज्जता ते पतरासंखज्जतिभागमेचा तत्थ ताव तिन्हं रासीणं वेउब्वियलद्धी चैव णत्थि, बायरपज्जतापि असंखेज्जइभागमेचाणं लद्धी अस्थि, जेसिपि लड़ी। | अस्थि ततेषि पलितोबमासंखेज्जभागसमयमेत्ता संपदं पुच्छासमए वेडब्बियवत्तिणो, केई भर्णति सव्वे वेउब्विया वायंति, अवेउब्वियाणं वाणं चैव ण पवसति तं ण जुज्जति, किं कारणं ?, जेण सच्चेसु चैव लोगागासादिसु चला वायवो चिज्जंति, तम्हा अवेउच्चितानि वार्यतीति घेराव्वं सभावो तेसिं बाइयव्वं । 'वणष्फइ कादियाणं' इत्यादि कंठ्यं, 'बेइंद्रियाणं भंते !' इत्यादि, बेदियोरालिया बद्धेल्या असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीअवसप्पिणीहिं कालप्यमाणं तं चैव खेत्ततो असंखेज्जाओ सेढीओ तहेव पयरस्स असंखेज्जतिभागो केवलं विक्खभसूर्याए विसेसो, विक्खभसूयी असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओति विसेसितं परं परिसंखाणं, अहवा इदमनं विससियतरं असंखज्जसे दीवग्गमूलाई, किं भणितं होति १, एकेकाए सेढिए जो पदेसरासी तस्स पढमं वग्गमूलं वित्तियं जाव असंखज्जाई बग्गमूलाई संकलियाई जो पदेसरासी भवति तप्पमाणा विक्खंभसूयी ' बेइंदियाणं निदरिसणंसेठी पंचट्ठि सहस्साई पंच सवाई छत्तीसाणं पदेसाणं, तीसे पढमं बम्गमूलं विसता छप्पण्णा वितियं सोलस ततियं चत्तारि चउत्थं दोणि एवमेताई वग्गमृलाई दो सता अड्ड सत्तरा भवंति एवइया पदेसा तासि सेढीणं विक्खभसूयी, एतेवि सन्भावओ असं ~71~ वायु वनस्पति द्वीन्द्रियादिमानं ॥ ६७ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .....................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ मनुष्य प्रमाणं १४६] गाथा ||११२१२९|| खज्जा बग्गमूलरासी पत्तेय २ घेत्तव्या, इमा मग्गणा-कि पमाणाहिं पुण ओगाहणाहि रइज्जमाणा बेइंदिया पयर पूरेज्जंतु, ततो इमं 8 अनुयोग सुन बेइंदियाणं ओरालियबद्धल्लएहि पयरं अवहीरति असंखज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि कालतो तं पुण पयरं अंगुलपतरा-1 संखेज्जतिभागमेत्ताहि ओगाहणाहिं रहज्जतीहिं सव्वं पूरिज्जति, तं पुण केवइएणं कालेणं रइज्जइ पूरिज्जइ वा ? भण्णति, असंखज्जाहिं | ॥६॥ उम्सप्पिणीओसप्पिणीहि, किं पमाणेण पुण खत्तकालावहारेणी भण्णति, अंगुलपतरस्स आवलियाए य असंखेज्जइपलिभागेणं जो मो४ | अंगुलपयरस्स असंखेज्जइभागो एवतिएहिं पलिभागेहिं अबहीरंति, एस खेनावहारतो, आह-असंखेज्जतिभागगहणेण चेव सिद्ध कि पलिभागगहणेणं? भण्णति- एकेक बेइंदियं पति जो भागो मो पलिभागो, जं भणियं अवगाहोत्ति, कालपलिभागो आयलियाए असंखेज्जतिभागो, एतेण आयलियाए असंखेज्जतिभागमेनेणं कालपलिभागेणं एकेको खेत्तपलिभागो सोहिज्जमा- | हिं सब लोगप्पयर सोहिज्जति खेचओ, कालतो असंखज्जाहि उम्सप्पिणिओसप्पिणीहि, एवं पाईदियोरालियाणं उभयमभिहियं, संखप्पमाणं ओगाहणापमाणं च, एवं तेइंदियचउरिदियचिदियतिरिक्खजेणियाणचि भाणियब्वाणि, पंचिदियतिरिक्ष-15 बउवियबद्धेच्छया असंखिज्जा २ हि उमप्पिणिोसप्पिणीहिं कालतो तहेव खेत्ततो असंखेज्जाओ सेढीओ पतरस असंखिज्जति| भागो विक्खभनयी णवरं अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जतिभागो, सेमं जहा असुरकुमाराणं। मणुयाणं ओरालिया बद्धेल्लिया | समिय संखिज्जा सिय असंखज्जा, जहण्णपदे मखेज्जा, जहष्णपदं णाम जत्थ सन्चथोत्रा मणुस्सा भवंति, आह-किं एवं समुच्छिमाणं गहणं अहव तब्बिरथियाण?, आयरिय आह-ससमुच्छिमाणं गहणं, किं कारण? गम्भवतिया णिच्चकालमेव संखज्जा, परिमितक्षेत्रवनित्वात् महाकायस्वात प्रत्येकशरीरत्वाच, तस्मात्सेतराणं ग्रहण उक्कोसपदे, जहण्णपदे गम्भव कंतियाणं चव गहणं, किं कारणं?, जेण दीप अनुक्रम [२९२ ॥६८॥ ३१४] ~ 72 ~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ...............मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ १४६] गाथा ||११२१२९|| संच्छिमाण चउकीस बहुचा अजर अंसामुदतं च ठिती, जहण्यपदे संखेजति भणिने न णज्जति कपरंमि संखेज्जए होज्जा ते अनुयोगका पिसेस करेति जहा संखेज्जातो कोडीतो, अहया इणमण्णं विससियतरं परिसंखाणं ठाणणिसं पहच्च घुच्चति, कथा, एस्फूणतीसं| चूणा पठाणाणि, तेंसि सामयिकीए सणाए णिसं करोति जघा तिजमलपदेस्स उबार चतुजमलिपदस्स देहा, कि भणियं होति । अहुई संख्या ॥ ६९ अगुण्डं ठाणाणं अमलपदति सण्णा सामयिकी, तिमि जमलपदाई समुदिमाई तिजमलपदं अहवा ततिय जमलपदं रतस्स तिजमलपदस्स। 18 उपरिमेसु ठाणेसु बद्धृति, जं भणिय-यउयीसह ठाणाणं उपरि वति, गत्तारि जमलपदाई चउनमलपदं अहवा चउत्थं जमलपदंठ चतुजमलषदं, किं पुन? बत्तीस ठाणाई चउजमलपदं, एयस्स चतुजमलपदस्स हेवा वष्टृति मणुस्सा, अण्णहिं तिहाणेहिं ण पावंसि, जति पुण वसीसं ठाणाति पूरंताई तो चतुजमलपदस्स उबरि भणत, त ण पावति, तम्हा हेडा भण्णसि, अहया दोभिवग्गा जमलपदं भण्णति, 18 समुदिया तिजमलपदं, अहया पंचमछट्ठा पग्गा ततियं जमलपदं, अदुवग्गा बचारि जमलपदाई चउजमलपर्द, अहवा सनट्ठ-18 बग्गा चउत्थं जमलपदं, अणं छण्ह बग्गाणं उपरि वदति सत्तट्ठमाणं च हिट्ठा तेण तिजमलपदस्स उपरि चतुजमलपदस्स हेडत्ति । सधण्यति, संखेज्जातो कोडीओ ठाणविससेणाणिवमियाओ । इयाणि विसेसिययरं कुर्ड संखाणमेच णिदिसति, जथा-'अहव णे छट्टो वग्मो पंचमवग्गपडप्पण्णो, ' वग्गा ठपिज्जीत, तंजहा-एकस्स वग्गो एको एस गुणवुड्डीरहितोचि कातुं वग्गो चेव ण भवति, तेष विण्हं बग्गी चचारि एस पढमो वग्गो, एयरस वग्गो सोलस एस पितिओ वग्गो, एयस्स वग्गो दो सता छप्पण्णा, एस वितो वग्मो, एतस्स बग्गो पण्णाडि सहस्साई पंच सबाई छत्तीसाई, एस चउत्थो वग्गो, एयस्स इमो बग्मो तंजहा-चत्तारि कोडीसता बउणतीस च कोडीतो अउगापण्णं च सतसहस्साई सनदि च सहस्साई दो सया छनउताई, इमा ठवणा दीप अनुक्रम [२९२ ३१४] अत्र गर्भज-मनुष्याणां संख्या: दर्शयते ~73~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ...............मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक 54643 [१४१ अनुयाग १४६] गाथा ॥७०॥ ||११२ १२९|| ४२९४९६७२९६ एवं पंचमी वग्गो, एयस्स गाहाओ + चत्तारि य कोडिसता अउणसिं च होति कोडीओ। 31 गर्भज अउणावण्ण लक्खा सचढि चेव य सहस्सा ॥ १ ॥ दो य सया छाउया पंचम वग्गो समासतो होति । एतस्स कतो मनुष्य वग्गो छट्ठो जो होह तं वोच्छं ॥२॥ तस्स पंचमवग्गस्स इमो वग्गो होति-एक कोडाकोडी सयसहस्सं चउरासीति कोडाकोडी संख्या सहस्सा चत्तारि य कोडिसता सत्चट्टि चेव कोडीओ चोतालीसं च कोडिसतसहस्सा सत्त य कोडिसहस्सा तिण्णि य सतरा 8 कोडीसता पंचाणउई सतसहस्सा एकावणं च सहस्सा छच्च सया सोलमुत्तरा, इमा ठवणा १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ल एस छट्टो बग्गो, एतस्स गाहाओ-'लक्खं कोडाकोडी चउरासीती भवे सहस्साई । चचारि य सत्तट्ठा हॉति सता कोडिकोडीण। ॥१॥ चोयालं लक्खाई कोडीणं सत्त चेव य सहस्सा. । तिमि य सता य सत्तरि कोडीणं होंति णायचा ॥२॥ पंचाणउई लक्खा एकावणं भवे सहस्साई । छ सोलमुत्तर सया य एस छट्ठो भवति वग्गो ॥ ३॥ एत्थ य पंचमछडेहिं पयोयणं, एस छट्ठो वग्गो पंचमेण वग्गेण पडप्पाइज्जइ, पडप्पाइए समाणे जं होति एवइया जहण्णापदिया मणुस्सा भवंति, ते य इमे एवढ्या ७९२२८१६ २५१४ २६४३३७५९ ३५४३९५०३ ३६ एवमेताई अउणतीस ठाणाई एवइया जहष्णपदिया मणुस्सा, छ तिष्णिा २] सुण्ण पंचव य णव य तिण्णि चत्तारि । पंचेव तिणि नवपंच सत्त तिण्णेव२॥शाचउ छ दो चउएको पण दो छकेकगो य अड्डेव । दो दोणव सत्तेव व ठाणाई उपरि हुताई।अहवा इमो पढमक्खरसंगहो-छ तित्ति सुपण तिच पति ण प स तित्ति च छ होचएपबेछ। ए अट्ठा विचेण सा पढमक्खरगहियछट्ठाणा ॥१॥एते पुण णिरभिलप्पा कोडीहिं वा कोडाकोडीहि वत्ति काउं तेण पुब्वपुर्यगहि परिसंखाणं कीरति, चउरासीति सतसहस्साई पुवंग भण्णति, एतं एवतिएणं चेव गुणितं पुण्वं भण्णति, तं च इम-सत्तरि कोडीसयसहस्साई | BRECIRRERA दीप अनुक्रम [२९२ ३१४] ~74~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ..................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ ॥७१॥ १४६] गाथा ||११२१२९|| | छप्पन च कोडिसहस्साई, एतेण भागो हीरति, तेण ततो इदमागतफलं भवति-एकार पुथ्यकोडीकोडीतो बावीसं च पुष्चकोडीसत- गर्भज सहस्साई चउरासीतिं च कोडीसहस्साई अट्ठ य दसुत्तरा पुब्बकोडीसया एक्कासीतिं च पुव्वसतसहस्साई पंचाणउई च पुच्चसह- मनुष्य स्साई तिणि य छप्पण्णा पुब्बसता, एतं भागलद्धं भवति, ततो पुव्वेहिं भागं ण पयच्छतित्ति पुल्चंगेहि भागो हीरति, हितेसंख्या इदमागतफलं भवति-एक्कासं पुबंगसतसहस्साई सचरिं च पुवंगसहस्साई छच्च य एक्कूणसट्ठाई पुखसताई, ततो इभण्णं वेगलं भवति-तेसीह मणुयसतसहस्साई पभासं च मणुयसहस्साई तिण्णि यं छत्तोसा मणुस्ससता, एसा जहणपदियाणं मणुस्साणं पुवसंखा, एतेसि गाहाओ तंजहा-' मणुयाण जहण्णपदे एकारस पुन्चकोडिकोडीतो । बावीस कोडिलक्खा कोडिसहस्सा य चुलसीतिर ॥१॥ अद्वेव य कोडिसता पुण्याण सुत्तरा ततो होति । एकासीति लक्खा पंचाणउई सहस्सा य ॥ २ ॥ छप्पण्णा तिष्णि सता पुग्वाणं पुनवण्णिया अण्णे । एत्तो पुव्वंगाई इमाई अहियाई अण्णाई ॥३॥ लक्खाई एकवीसं पुष्वंगाण सत्तरि सहस्सा य । छच्चेबेगूणट्ठा पुन्वंगाणं सता हॉति ॥ ४ ॥ तेसीति सतसहस्सा छप्पण्णा खलु भवे सहस्सा य । तिनि सया छत्तीसं एवश्य! वेगला मणुया ।। ५॥ एतं चेव य संखं पुणो अण्णपगारेण भण्णति विसेसोवल भनिमित्तं, तं०- अहवणं छण्णतुतिछेदणगदाई | रासी' छण्णउति छेदणाणि जो देति रासी सो छण्णउतिछेदणगदायी रासी, किं भणियं होति ? जो रासी दो बारा छेदेणं छिज्ज-18 माणो छण्णउतिबारे छेदे देति सकलरूबे पज्जवसितो ततिया वा जहण्णपदिया मणुस्सा, ततिओरालिया वा बद्धेलया, को पुण| रासी छण्णउपिछेदणगदाई होज्जा, भण्णति-एस चेन छट्ठो बग्गो पंचमवग्गपडप्पण्यो जतिओ भणितो एस छनउति छेद-15 णए देति, को पच्चयो', भण्णति-पढमो बग्गो छिज्जमाणो दो छेदणए देति चितितो चत्तारि ततिओ अट्ठ चउत्यो सोलस दीप अनुक्रम [२९२ ३१४]] ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ..मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| प्रत सूत्रांक [१४१ १४६] गाथा ||११२१२१|| पंचमी बत्तीसं छठ्ठी चउसडिं, एतेसिं पंचमछट्ठाण वग्गाणं छेदणया मेलिया छण्णउति भवंति, कहं पुण ताणि ?, जहा जो बग्गो क्रियादिअनुयोग दाजेण चम्गेण गुणिज्जति तेर्सि दोहवि तत्थ छेदणया लम्भति, जहा वितियवग्मो पढमेण गुणितो छिज्जमाणो छ छेदणए देति, II चूर्णी VIवितिएण ततितो गुणितो पारस, तइएण चउत्थो गुणिओ चउवीस, चतुत्थएण पंचमो गुणितो अडयालीस छेदणते देति, एवं पंचमएणवि छट्ठी गुणितो छण्णउति छेदणते देतित्ति एस पच्चयो, अहवा रूवं ठवेऊण ते छण्णउति वारे दुगुणा दुगुणं कीरति,। सकतं समाण जति पुवमणियं पमाणं पावेति तो छिज्जमाणपि ते चेव य छयणए दाहित्ति पच्चतो, एतं जहण्णपदमभिहितं । उको सपदमिदाणि, तत्थ इमं सुत्त 'उकोसपदे असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो खेचतो रूबपक्खित्तेहि मणुस्सेहिं सेढीए अबहीरति, किं भणिय होति', उकोसपदे जे मणूसा भवति तेसु एकमि मणूसरुबे पक्खिने समाणे तेहिं मणूसेहिं सेढीए अवहीरति, तीसे सेढीए कालखेत्तेहिं अचहारो मग्गिज्जति, कालओ जाव असंखज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि । खेत्ततो अंगुलपढमवग्गमूलं सतियवग्गमूलपडप्पाडित, किं भणितं होति ? तीसे सेढीए अंगुलायते खंडि जो पदेसरासी तस्स। दाजं पढ़म बग्गमूलं तं ततियषग्गमूलपदेसरासिणा पटुप्पातिज्जति, पडुप्पाडिते जो रासी भवति एचतिएहि खंडेहिं सा सेढी16 | अबहीरमाणा २ जाव णिवाइ ताव मणुस्सावि अवहीरमाणा निट्ठति, आह-कहमेका सेढी एहमेचेहि खंडेहिं अबहीरमाणी अस-1 खेज्जाहि उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरति ?, आयरिय आह-खेता अइसुहुमत्तणतो, सुने य मणित-'सुहुमो य होति कालो18M IDI|| ७२ ॥ | तत्तो सुहमयरयं भवति खेत्तं । अंगुलसेढीमेने उस्सप्पिणीओ असंखेज्जा॥शविउब्बिया बद्धिल्या समए २ अबहीरमाणा संखेन्जेणं | कालणं अवहीरति, पाठसिद्धं 'आहारगाणं जहोधियाई, 'वाणमंतर'इत्यादि वाणमंतरचेउव्विया असंखेज्जा २ उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि | दीप अनुक्रम [२९२३१४]] ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ...............मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ अनुयोग चूर्णी १४६] गाथा ॥७३॥ ||११२ १२९|| | अवहीरति तहेव से जातो सेढीतो तहेव, विसेसो तासिणं सेढीणं विष्कमसूयी, किं वक्तव्यमिति वाक्यशेषः, किं कारण, पंचिंदिय- वैमानिक अतिरियोरालियसिद्धत्तणतो, जम्हा महादंडए पंचिंदियणसएहितो असंखेज्जगुणहीणा वाणमतरा पढिज्जति, एवं विष्कंभस्यीवि | का संख्या | तेहितो असंखेज्जगुणहीणा चेव भणियब्वा, इदाणि पलिभागो-संखेज्जजोयणसतवम्गपलिभागो पदरस्स, जे भणिय-संखेज्ज जोयणसतवग्गमेत्ते पलिभागे एकेके वाणमंतरे ठवेज्जति पतरं पूरिज्जति, तंमतपलिभागण चेव अवहारतिवि । 'जोतिसियाण| मित्यादि,जोतिसियाणं वेउब्बिया बद्धेल्लया असंखेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो खेत्ततो असंखेज्जातो सेढीओ पयरस्स असंखेज्जतिभागोत्ति, तहेव विसेसियाणं सेढीणं विष्कंभसूयी किं वक्तव्येति वाक्यशेषः, किं व्यानः (चातः) श्रूयते जम्हा वाणमन्तरेहिं जोतिसिया संखेज्जगुणा पढिज्जंति तम्हा विक्खंभस्यीवि तेसिं तेहितो संखेज्जगुणा चेव भण्णति, णवरं पलिभागे विसेसो जहा ये छप्पण्णंगुलसते वग्गपलिभागो परस्स, एवतिए पलिभाए ठवेज्जमाणो एकेक्को जोतिहै। सितो सव्वेहि सन्चं पतरं पूरिज्जति तहेव सोहिज्जतिवि, जोतिसियाणं वाणमंतरहितो संखेज्जगुणहीणो पलिभागो संखेज्जगुण भहिया सूयी, 'वेमाणिय ' इत्यादि, बेमाणियाण चद्धिल्या असंखेज्जा कालतो तहेव खेत्ततो असंखेज्जाओ सेढीओ, ताओ णं| द्रा सेढीतो पतरस्स असंखेज्जतिभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूयी भवति अंगुलवितियवग्गमूलं ततियवग्गमूलपडप्पण्णं, अहवर्ण ॥७३॥ | अंगुलततियवग्गमूलघणमेत्तातो सेढीतो, तहेब अंगुलविक्खंभखेतवत्तिणो सेढिरासिस्स पढमवग्गमूलं वितियततियचउत्थ जाब | असंखेज्जाईति, तेसिपि चितियं वग्गमूलं ततियवग्गमूल सेढिप्पदेसरासिणो गुणिते जं होति तत्तियाओ सेढीओ विक्वंभसूयी । द्र भवति, ततियस्स वा वग्गमूलस्स जो घणो एवइयातो वा सेढीओ विक्खंभसूयी, णिदरिसणं तहेव बेछप्पण्णसतमंगुलितस्स पढ-14 64G दीप अनुक्रम [२९२३१४] ~77~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ...............मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्री [१४१ अनुयोग चूर्णी व प्रमाण १४६] गाथा ॥७४॥ ||११२ मवग्गमूलं सोलस बितियं चत्तारि ततियं दुण्णि, ततियं चितिएण गुणितं अट्ठ भवंति, ततिय वितिएण गाणयं, ते च अट्ठ, ततियस्स-8 विघणो, सोवि ते चेष अट्ठ एव, मोत्त (एया) सम्भावओ असंखेज्जा रासी ददुब्बा, एवमेयं वेमाणियप्पमाणं णेरइयप्पमाणातो असंखेज्जगुणहीणं भवति, किं कारणं , जेण महादंडए वेमाणिया मेरइएहितो असंखेज्जगुणहीणा चेव पढिजंति, एतेहितो य रइया असंखेज्जगुणभहियत्ति 'जमिहं समयविरुद्धं, बद्धं बुद्धिविकलेण होज्जाहि । तं जिणवयणविहण्णू खमिऊणं मे पसोहिंतु ॥१॥ सरीरपदस्स चुण्णी जिणभइम्बमासमणकित्तिया समत्ता ॥ से किं तं भावप्पमाणे' इत्यादि (१४३-२१०) भवन भूतिर्भावः, तत्र ज्ञान एवं प्रमाणं तस्य वा प्रमाणं ज्ञानप्रमाणे, ‘गुणप्रमाणं' इत्यादि (१४४-२१०) गुणन गुणः12 प्रमितिः प्रमाणं प्रमीयते वाऽनेनेति प्रमाणं गुणः प्रमाणं गुणप्रमाणे, गुणेन च्यं प्रमीयते, ज्ञायते इत्यर्थः, अहवा द्रव्ये गुणाः प्रमी-15 यंत इति गुणप्रमाण, गुणेषु वा ज्ञानं गुणप्रमाण, गुणप्रमाणेनेति एतत्प्ररूपणेत्यर्थः, नीतिनयः नयेषु प्रमाणं नयप्रमाण, नयेषु । ज्ञानमित्यर्थः, अथवा नय एवं प्रमाणं नयप्रमाणं, नयप्रमाणं नयज्ञानमित्यर्थः, नयानां वा प्रमाणं नयप्रमाण नयसंख्येत्यर्थः, संख्या, करणज्ञानं संख्या प्रमाणं संख्याप्रमाणं । 'से किं तं गुणप्रमाणे त्यादि कंठ्य, जाब जीवाजीवगुणप्रमाणं संमत्तं ।। 'से किं तं जीवगुणप्रमाणे ' स्यादि, णाणं जीवस्स गुणो तस्स स्वविषये प्रमाण भेदप्रमाणस्वरूपं वक्तव्यमिति, नाणगुणपमाणेत्यादि भणित, एवं दसणचरणगुणेवि भाणियब्बा, अक्ष इत्यात्मा इंद्रियाणि वा तं तानि च प्रति वर्तते यत् तत्प्रत्यक्षं, धूमादग्निज्ञानबदनुमानं, यथा 13॥७४ ।। गोस्तथा गवय इत्यापम्मे, आगमो याप्तवचनं, आयरियपरंपरागतो वा आगमः, अथैतद व्याचष्टे-अथ किं तत् प्रत्यक्षं', प्रत्यक्षं द्विविध प्रजप्त, तद्यथा-इन्द्रियप्रत्यक्षं च नोइन्द्रियप्रत्यक्ष च, तत्रन्द्रियं श्रोत्रादि तन्निमित्तं यदलैङ्गिकं शब्दादिज्ञानं तदिन्द्रियप्रत्यक्षं व्यावहा १२१|| - दीप अनुक्रम [२९२ ३१४] अत्र भाव-प्रमाणस्य वर्णनं क्रियते ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .....................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ अनुयोग १४६] गाथा ॥७५ ॥ ||११२ १२९|| | रिक, नोइन्द्रियप्रत्यक्ष यदात्मन एवालैङ्गिकमवध्यादीति समासार्थः, अविकलद्रव्येद्रियद्वारोत्पत्रमात्मनी यज्जातमिद्रियप्रत्यक्षं, सेस कंठ्यं । ‘से किं तं अणुमाणे' इत्यादि, जधा घणवंतो अत्र मत्वर्थः तथा पूर्वमस्तीति पुब्बवं भण्णति, पूर्वोपलब्धेनैव साधर्म्य लिंगेण नाणकरणं, पूर्व अविसंवादिनी सृष्टिमघोन्नतेः एवमेतदनुमिती भवति, पूर्ववत् उपलद्धातो सेस अण्णति चुनं भवति, तं च वैधर्म्य च | उवलद्धे अत्थे अव्यभिचारसंबंधेन संबंधनणतो उवलभते धूमाद् बढेरनुमानं, दृष्टोऽर्थों धर्मसमानतया अनुमितो दृष्टसाधानुमान नाम प्रमाणं भवति, सेस कंठ्यं । तस्स समासतो तिविहं गहणं' इत्यादि, तस्य तदनुमानं परिगृह्यते, समासतोति संखेवतो सबभेदेसु बत्तव्वं भवति, वातुन्मामोति उप्यायत्तेण पयत्थस्स भमणं वातुब्भामो भवति, अहवा प्रदक्षणं दिक्षु वातस्य भमणं बातु- म्भामो, सेस कंठ्यं, 'से किं तं उवम्मे' त्यादि, मदरसर्षपयोः मूर्तत्वादिसाधर्म्यात् समुद्रगोष्पदयोः सोदकत्वं चंद्रकुंदयोः शुक्लत्वं | हस्तिमशकयोः सरिरित्वं आदित्यखद्योतकयो आकाशगमनोयोतनादि, बहुसमानधर्मता गोगवययोःणवरं गवयो वृत्तकंठो गौःसकंबल ४ | इत्यर्थः, देवदत्तयज्ञदत्चयोः सरीरतं, सव्यसाधम्मे णत्थि तविहं किंचि तथावि जं सुत्ते भणित तं दट्ठव्वं, अहवा जंबुदीपो आदित्यद्रव्यादिवत् सेसं कंठ्यं ।। से किं तं वेधम्मोवणीते ' त्यादि, साबलेयबाहुलेययोः किंचिद्विलक्षणं तच्च सबलत्वं जन्मादि वा ॥५॥ शेष, पूर्वसमानलक्षण इत्यर्थः, बायसपायसयोः समानं सवत्वं (आयसवत्त्व) लक्षण ययोः, शेष वर्णादि सर्व विलक्षणं सर्वविलक्षणं ।। 'से किं तं सव्ववैधम्मे' त्यादि, सर्वद्रव्यगुणपर्यायाणां यद् विजातीयं तत्तस्य विलक्षणं संव्यवहारात, अतो भण्णति-सर्वमनुष्य| जातिभ्यः पाणो वैधर्म्यस्थानं नचासौ सर्वथावधर्मयुक्तः, सिरोऽवयवादिसदृक्षलक्षणत्वात् अतः सर्ववैधाभावात् पाणसंव्यव-18 दि हारतः सर्ववैधर्म्यस्थो विधर्मस्थ एवोपगीयते पाणेण सरिसं, 'से तं' इत्यादि, 'से किं तं आगमे' त्यादि सूत्र कंठ्यं । दीप अनुक्रम [२९२३१४]] WEREAK ~ 79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ....................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ श्री अनुयाग चूर्णी प्रस्थका दिनयश्च १४६] गाथा ॥७६॥ ||११२ १२९|| से किं तं दसणगुणप्पमाणे त्यादि, भावचबिखदियावरणीयस्स कम्मुणो खयोवसमेण दब्विदिवस्स य णिरुबहयत्तणतो जीवस्स चक्बुदंसणगुणो उप्पज्जति सो चेव प्रमाणति चक्खुदंसणगुणप्पमाणं भण्णति, एवं सेसेंदिएमुवि अचक्खुदंसणं भणितव्वं, चक्खुर्दसणं चक्खुदंसणिस्स घडादिए मुत्ते दब्वभाबिंदियमपत्तमत्थं गिण्हइति ज्ञापितं भवति, अचक्बुदसण आयभावोत्ति दबिदिएमु सद्दादिओ जता पत्तमत्थो तया भाबिंदिया, भारे अप्पणो विष्णाणसत्ती उप्पज्जहीच, एवं सेसिदियाणि पचविसयाणि ज्ञापितं भवति, ओहिदंसणं सव्वदथ्येसुत्ति गुरुवयणाओ जाणितब्वं, सव्वे रूविदव्या, भणियं च 'रूपिष्ववधेः' (तत्वा. अ.१.२८) अहवा धम्मादियाण सय्यदव्याणं रूविदव्याणुसारतो जाणति मणदब्वणुसारतो मणपज्जवणाणिव्य, सेसं कंट्यं । से किं तं चरणगुणप्पमाणे' इत्यादि, सामादियामिनिरियंति पुरिमपच्छिमतित्थकराण णियमेणोवट्ठावणासंभवतो, मज्झिमाणं बावीसाए तित्थकराणं आवकधियं उवट्ठवणाए अभावत्तणतो, मूलतियार पत्तस्स ज छेदोबट्टावणं से तं, सातियारस्सेत्यर्थः, जे पुण सेहस्स पढमताए अतियारवज्जियस्सवि उवट्ठाणं तं, णिरइयारस्सेत्यर्थः, परिहारं तवं वहता णिव्विसमाणा परिहारि तवे णिविट्ठकाया, उबसमगसेढीए उवसमेन्तो सुहुमसंपरागो विसुज्झमाणो भवति, सो चेव परिखंडतो संकिलिस्समाणो। भवति, खबगसेढीए संकिलिस्समाणो णत्थि, मोहखयकाले उप्पण्णकवली जाव ताव छउमत्थो, खीणदंसणणाणावरणकाले जाव भवन्धो ताव अहक्खायचरित्तकेवली, संस कंट्वं । णयाण य विहाणण अणेगभेदभिण्णचा दिद्वैतभेदतो तिबिहभेदत्ति, पत्थगदिट्ठतो पेगमववहाराणं संगहस्स पन्धगो भवति, णेगमबबहारा दोवि एगाभिप्पाया, संगहस्सबि, तानि जता धण्णादिणा |मिज्जति पूर्यत इत्यर्थः, मितात्ति सहा मेज्जस्स पूरितो, एवं मज्जगं समारूढो मेज्जं वा पत्थर समारूढो जता तता संगहस्स दीप अनुक्रम [२९२ मा॥ ७६॥ ३१४] ~80~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ..................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ संख्या प्रमाण चूणों १४६] गाथा ||११२ १२१|| I#पत्थतो भणति, ण सेसावत्थासु, पत्थयकज्जाभावत्तणतो, उज्जुसुत्तस्स लिहणकारणतच्छणादियासु क्रियासु सव्वहा णिस्सवितो अनुयोग | पत्थउति णामंकितो ततो पत्थतो भण्णति, किं च-मितं पत्थएण य मितमिजपि पत्थतो भण्णति, कह, उच्यते, कज्जकर पाणं परोप्परसंबद्धतो चेव देसत्तणतो, सद्दणयाणं जाणतेत्ति, जतो जाणगोवओगमंतरेण पत्थओ ण णिफज्जति अतो जाणगो॥७७॥ वओगोच्चेव णिच्छएण पत्थगो, जस्स वा वसेणति कर्तुः कारयितुर्वा इत्यर्थः। 'से किंतं वसहिदिट्टते' इत्यादि(१४५-२२४)णेगमववहारा कंठ्या, संगहस्स बसमाणो वसतित्ति जता संथारगमारूढो भवति तता वसतित्ति वत्तव्यं, ण सेसकाले, सेस कंठ्यं ।। 'से किं तं पदेसदिढते' इत्यादि, णेगमसंगहववहारऋजुत्ता य सुत्तसिद्धा कंठ्या, ऋजुसुत्तोवीर शब्द आह-सियसहस्स अणेगत्थाभिहाणतणतो अतिप्रसक्तः प्रदेशः प्रामोतीत्यर्थः, तस्मादृजुमतिना वक्तव्यं धम्मे पदेसिति, धर्मात्मकः स च प्रदेशः, नियमात् | धर्मास्तिकाय इत्यर्थः, एवमहमागासेसुषि, जीवात्मकः प्रदेशो भवति स च प्रदेशो णोजीवत्ति भिण्णमणेगजीवदव्वत्तणतो, एवं है पुग्गलदब्बेसुवि, शब्दस्योपरि समभिरूढ आह-धम्मपदेसेत्ति इध वाक्ये समासदयसंभवो भवति, एत्थ जति तप्पुरिसेण भणसि | तो भण धम्मे पदेसो धर्मप्रदेशो, यथा बने हस्ती वनहस्ती तीर्थे काकः, अह कर्मधारएण भणसि तो जघा श्वेतः पटः२, एवं विसर्स तो भणेहिति, एवंभूय आह-सव्वादयो चतुरो एगट्ठा, अहवा सब्बसदेण सव्वं, एवं देशप्रदेशकल्पनावर्जितं कसिणं भण्णति, यदेवा*त्मस्वरूपेण प्रतिपूर्ण भवति तदेवैकत्वात् निरवयवं परिगृह्यते, एगगहणगहियति एगाभिधानेनेच्छतत्यिर्थः, सेसं कठ्यं ॥'से 181 किंतं संखप्पमाणे ' त्यादि (१४६-२३०) णामादि जाव गणणसंखीत ताव कंठ्या, 'से किं तं गणणसंखे' त्यादि । अणुब दरासिपरिमाणस्स परिमाणगणणं गणणसखा भण्णति, गणणपज्जाएण या दुगादिरासीण संखत्ति परि परिमाणकरणं गणण RSSES ॥ ७ ॥ दीप अनुक्रम [२९२ ३१४] ~81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ...............मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि प्रत सूत्रांक [१४१ अनुयोग चूर्णी | AA 11७८॥ १४६] गाथा ||११२१२९|| SROSC संखा भष्णति, सं संखाकरणं विधा इम-संसमसंखमणतंच, तत्थ संखेज्जगं-जहष्णादिकं तिविहमेव संखेज्जगं, असंखेन्जक परिचा-3 अनवदिकं तिहा कातुं पुणो एकेक जहण्णादितिविधविकप्पेण गवविधं भवति, अणतकमवि एवं चेब, गवर अणंतगाणंतगस्स उको- स्थितादि पल्याः सगस्स असंभवत्तणतो अट्ठविधं कायव्वं, एवं भेदे कातुं तेसिमा परूवणा कज्जति-'जहण्णगं संखेज्जग केत्तिय' इत्यादि कंठ्यं, 'से जहानामए पल्ले सिया' इत्यादि, से पल्ले बुद्धिपरिकप्पणाकप्पिए, पल्ले पक्खेवो भण्णाति, सोय हेट्ठा जोयणसहस्सावमाढो रयणकंड जोयणसहस्सावगाढं भेत्तुं वहरकंडे पइडितो, उवरि पुण सवेदिकतो, वेदिकातो य उपरि सिहामयो कायव्यो, जतो असतिपसति सव्वं बीयमिजं सिहामय दिटुं, सेसं सुत्तसिद्धं । दीवसमुदाण उद्धारे घेप्पतिचि, उद्धरणमुद्धारः, तेहि पल्लप्रमाणेहिं सरिसवेहिं दीवसमुद्दा उरिज्जंतीति तत्प्रमाणं गृह्यन्ते इत्यर्थः, स्यात् उद्धरणं किमर्थी, उच्यते, अणवट्टियसलागपरिमाणज्ञापनार्थ, चोदकः पुच्छति-जति पढमपल्ले उक्खित्ते पक्खित्ते णिहिते य सलागा ण पक्खिप्पति तो किं परूवितो?, उच्यते, एस अणवट्ठियपरिमाणदसणस्थ परूवितो, इदं च ज्ञापितं भवति-पढमत्तणतो पढमपल्ले अणवड्डाणभावो णस्थि, सलागापल्लो य अणचडिसलागाण भरेयच्यो जतो मुचे पढमस-15 लागा पढमअणयट्ठियपल्लभेदे दसिया इति, ' एवं अणवडियपल्लपरंपरसलागाण असंलप्पा लोगा भरिया' इत्यादि, असंलप्पत्ति-जद संखेज्जे असंखेज्जे वा एगतरे वक्तुं न शक्यते तं असंलप्पत्ति, कहं ?, उच्यते, उक्कोसगसंखेज्जं अतिबहुतणतो मुत्तम्बबहारीण य अव्यवहारितणतो असंखेज्जामिव लक्खिज्जति, जम्हा य जहण्णपरित्तासंखेज्जयं ण पावति आगमपच्चक्खयवहारिणो य संखे-18 ॥ ७८ यववहारितणतोऽसलप्या इति भणितं, लोगत्ति सलागापल्ला लोगा, अहवा जहा दुगादिदससतसहस्सलक्खकोडिमाइएहिं रासीहिंद अभिलावेणं गणणसंखववहारा कति ण तहा उकोसगसंखेज्जगेण, आदिल्लगरासीहि य ओमत्थगपरिहाणीए जा 12 KC-C दीप अनुक्रम [२९२ 24 ३१४] | अथ संख्यात-असंख्यात-अनन्तानां स्वरुपम् वर्णयते ~82 ~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४१ FUE] गाथा ||११२ १२१|| दीप अनुक्रम [२९२ ३१४] श्री अनुयोग चूर्णां ।। ७९ ।। "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि:) ..मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: सीसपहेलिको परमरासी एतेहि गणणाभिलावणसंववहारे ण कज्जइति अतो एते रासी असंलप्पा, एवइयं कारणमासज्ज भणितं असंलप्पा लोगा भरिया इति । अहवा अणवडियसलाम पडिसला गमहासलागपखाणं सरूवे गुरुणा [क] भणिते सीसो पुच्छति - ते कहं भरेयच्वा १, गुरू आह- एवंविहसलागाण असंलप्पा लोगा भरिया, संलप्प भरिया णाम समाणसंलप्पा, असंलप्पा ससिखा इत्यर्थः तथावि उकोसगं संखेज्जगं ण पावतिति भणिते सीसो पुच्छर, सीसो पुच्छइकथं उकोससंखेज्जमसरूवं जाणियब्धं १, उच्यते से जहानामए मंचे इत्यादि उपसंहारो एवं अणवडियसलागांहिं सलागापल्ले पक्खिप्पमाणीहि तत्तो य पडिसलामापलं ततोषि महासलागापल्ले होहिति सा सलागा जा तं उकोसगंसंखेज्जगं पाविहिति । इदाणि उकोसगसंखेज्जगपरूवणत्थं फुडतरं इमं भ्रष्णति, जहा तंभि मंचे आमलएहिं पक्खिप्यमाणेहिं होहिति तं आमलयं जं तं मंचं भरेदित्ति अण्णं आमलगं ण पडिच्छइत्ति, एवमुकोसयं संखेज्जयं दव्वं, तस्स इमा परूवणा-जंतु दीप्यमाणमेचा चत्तारि पला-पढमो अणवट्टियपो चितितो सलामा पल्लो तहओ पडिसलागापल्लो चउत्थो महासलागापछो, एते चउरोपि रयणप्पभापुढवीए पढमं रयणकंडं जोयणसहस्सावगाढं भित्तॄण चितिए बेरकंडे पतिडिया देठ्ठा, इमा ठवणा, एते ठबिया एगो गणणं णोषेति दुष्पभिति संखत्ति काउं, तत्थ पढने अपवट्टियपछे दो सरिसवा पक्खिता एवं जहष्णं संखेज्जतं, तो एगुत्तरबुड्डीए तिणि चतुरो पंच जाब सो पुणो अण्णं सरिसवं ण पडिच्छति ताहे असम्भावपट्टवणं पडुच्चत्ति तं कोऽवि देवो दाणवो वा उक्खित्तुं वामकरयालि काउं ते सरिसवे जंबुद्दीवादिए दीये समुद्दे पक्खिविज्जा जाव गिट्टिया ताहे सलागापछे एगो सिद्धत्थतो छूढो, सा सलागा, ततो जहिं दीवे समुद्दे वा सिद्धत्थतो निट्टितो सह तेण आरेण जे दीवसमुद्दा तेहि ~83~ अनव स्थितादि पल्याः ॥ ७९ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .....................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ अनुयोग १४६] चूणीं 451525TOR गाथा ॥८॥ ||११२ १२१|| सम्वेहिं तप्पमाणो पुणो अण्णो पल्लो आइ(भरि)ज्जइ, सोवि सिद्धत्थाण भरिते जमिर णिवितो ततो २ परतो दीवसमुदेसु एककं | उत्कृष्ट पक्विविज्जा जाव सोवि णिद्वितो ततो सलागापल्ले वितितो सरिसबो छढो, जत्थ जत्थ विणिहितो तेण सह आतिल्लेहिं दीव- सल्यात, समुद्देहिं पुणो अण्णो पल्लो आइज्जति, सोवि सरिसवाणं भरितो, ततो परयो एक्केकं दीवसमुद्देसु पक्खिवतण णिट्ठवंतो(डिओ) ततो असंख्या सलागपल्ले ततिया सलागा पक्खित्ता, एवं एतेण अणववियपल्लकरणकमेण सलागरगहणं करेंतेण सलागापल्लो सलागाण भरितो, क्रमागतः अणवद्वितो सलागापल्लो य सलाग ण पडिच्छइत्तिकातुं से चेव णिक्खित्तो, णिद्वितढाणा पुरतो पुब्बकमेण पक्खित्तो शिवितो य, ततो पडिसलागापल्ले पढमा पडिसलागा छुढा, ततो अणवहितो उक्खित्तो णिडियठाणा परतो पुब्बकमेण पक्खित्तो णिवितो य ततो सलागापल्ले सलागा पक्खित्ता, एवं अण्णमन्त्रेणं अणवद्वितण आयरणिक्खरं करतेण जाहे पुणो सलागापल्लो | भरितो अणवद्वितो य ताहे पुणो सलगापल्लो उक्खित्तो पक्खिचो णिहितो य पुवकमेण, ताहे पडिसलागापल्ले | जितिया पडिसलागा छुढा, एवं आयरणिक्खरकरणेण जाहे तिनिवि पडिसलागसलागअणवडियपल्ला प भरिता | ताहे पडिसलागापल्लो उक्खिनो पक्खिप्पमाणो णिडिओ य ताघे महासलागापल्ले पढमा महासलागा छूढा, ताहे सलागापल्लो उक्खित्तो पक्खिप्पमाणो णिवितो य ताहे पडिसलागा पक्खित्ता, ताधे अणवद्वितो उक्खिचो ४ परिखत्तो णिडिओ य ताहे सलागापल्ले सलागा पक्खिता, एवं एतेण आयरणिकिरणकमेण ताव कायव्वं जाव परंपरेण महासलागा पडिसलागा सिलागा अणवट्ठिय चतुवि भरिता ताहे उकोसमतिथियं, एत्थं जावतिया अणवडिय- | ता ॥८ ॥ | पल्ल सलागापल्ले पडिसलागापल्ले महासलागापल्ले य दीवसमुद्दा उद्धरिता ये य चतुपल्लडिया सरिसवा एस सम्बोधि एतप्पमाणो SA5%%%54 दीप अनुक्रम [२९२३१४] ~84 ~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ...................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ १४६] गाथा ||११२ १२१|| रासी एगरूवेणोणो उकोसयं संखेज्जयं भवति, जहष्णुकोसयाण मज्झे जे ठाणा ते सव्वे पत्तेयं अजहण्णमणुकोसया भणियब्वा,& अनुयागा सिद्धते जत्थ जत्थ संखेज्जयगहणं कतं तत्थ सम्बं २ अजहण्णमणुकोसयं ददुब्ब, एवं संखेज्जगे परुविते भगवं! किमेतणं अणक-10 भेदाः चूर्णों ट्ठियपल्लसलागपडिसलागादीहि य दीवसमुद्दमुद्धारमहणण य उक्कोसगसखेज्जगपरूवणा कज्जति ?, गुरू भणति-पत्थि अनो ॥८ ॥ संखेज्जगस्स फुडयरो परूवणोवातोत्ति, किंचान्यत्-असंखेजगमणतरासिविकप्पाणि एताओ चेव आधारातो रूतुत्तरकमवि बुडियातो परूवणा कज्जतीत्यर्थः । उक्तं त्रिविध संख्येयक, इदाणिं णवविधमसंखेज्जय भष्मति- 'एबामेव उकोसए' इत्यादि, मुत्तं, असंखेज्जगे परूविज्जमाणे एवमेव अणवट्ठियादिपल्लदीवुद्धारएण उकोसगसंखेज्जगमाणिते एगं सरिसवरूवं पक्खितं ताहेर जधष्णगं परित्तअसंखेज्जगं भवति, 'तेण परं' इत्यादि सुनं, एनं असंखेज्जगस्स जहण्णमणुकोसडाणाण य जाव इत्यादि सूत्र, सीसो पुच्छति-'उकोसग ' इत्यादि सुत्नं, गुरू आह-जहन्नगं परित्तअसंखेज्जगं' ति अस्य व्याख्यानं-जहण्यागं परित्तासंखेज्जग विरल्लिय ठविज्जति, तस्स विरलियट्ठावितस्स एकेके सरिसवट्ठाणे जहणपरिमितसंखेज्जगमेत्तो रासी दायब्वो, ततो तेसिं जहण्णपरिचासंखेज्जगाणं रासीणं अण्णमण्णब्भासोति गुणणा कज्जति, गुणिते जो रासी जातो सो रूचूणोति, स्वं पाडिज्जति, तमि पाडिते उक्कोसग परिनासंखेन्जगं होति, एत्थ दिद्रुतो-जहण्णपरित्तासंखेज्जगं बुद्धिकप्पणाए पंच रूवाणि ने विरल्लिया, इमे ५५५५५, एकेकस्स जहण्णपरितासंखज्जमतो रासी, ठविता इमे ५५५५५, एतेसि पंचगाणं अण्णमण्णं अभा Milan सोत्ति गुणिया जाता एकतीस सता पणुवीसा, एत्थ अण्णमण्णाभासोत्ति जं भणितं, एत्थपणे आयरिया परूवेति-पािय- संवग्गितंति भणितं, अत्रोच्यते, स्वप्रमाणेन रासिणा रासि गुणिज्जमाणो वग्गियंति भण्णति, सो चेव बद्धमाणो रासी पुच्चिल्ल दीप अनुक्रम [२९२ ३१४] ~85~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ...................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४११४६] गाथा ||११२१२१|| _ गुणकारेण गुणिज्जमाणो संवग्गियति भण्णति, अतो अण्णमण्णभत्थस्स वग्गियसंवग्गियस्स नार्थभेद इत्यर्थः, अन्यः प्रकारः, दशासंख्य अनुयोग द अहवा जहण्याग जुत्तासंखेज्जग जे ते रूवूर्ण कज्जति, ततो उकोसगं परित्तासखेज्जग होति । उक्तं तिषिधपि परिचासंखेज्जगं, ट्र चूणों *इदाणिं तिविहं जुत्तासंखेज्जग भण्णति, तस्स इमो समोतारो, सीसो भण्णति-भगवं ! जे तुम्भे जहण्णगं जुत्तासखेज्जग रूवूर्ण * ॥८२॥ 3 करेह तमहं ण याणे अतो पुच्छा इमा-जहण्णगं जुत्तासखेज्जग केत्तिय होति ', आचार्योत्तरमाह-जहण्णगं परित्तासंखेजगं ६ इत्यादि, सत्रं पूर्ववत्कंठ्यं, णवर पडिपुण्णेति गुणिते सर्व ण पाडेज्जति, अन्य प्रकारः 'अहवा उकोसए' इत्यादि सुत्र्त कंव्यं ।। जावइवो जहण्णजुत्तासंखेज्जए सरिसवरासी एगावलियाएवि समयरासी तत्तितो चेव, जत्थ सुते आवलियागइणं तत्थ जहण्ण-1 जुत्तासंखेज्जइपडिपुण्णप्पमाणमेत्ता समया गहेयव्वा, 'तेण परं' इत्यादि, जहण्णजुत्तासखेज्जत्तातो परतो एगुत्तरवटिया असं-18 हीखेज्जा अजहष्णमणुकोसा जुत्तासंखज्जगट्ठाणा गच्छति, जाव उकोस जुत्तासंखेज्जगं ण पावतीत्यर्थः, सीसो पुच्छति-उकोर्स जुत्तासखेज्जगं केत्तिय होति', आचार्य आह-जहण्णजुत्तासंखेज्जगप्पमाणमेत्तेण रासिणा आवलियासमयरासी गुणितो रूवृणो दिउकोसं जुत्तासंखेज्जयं भवति । अत्रे आचार्या भणति-जहण्णजुत्तासंखेज्जरासिस्स वग्गो कज्जति, किमुक्तं भवति ?--आवलिया। आवलियाए गुणिज्जति, रूणितो उकोस जुत्तासंखेयं भवति, अन्यः प्रकार:-'अहवा जहण्णगं' इत्यादि मुरी कंठ्यं । सीसो पुच्छति-'जहण्णगं असंखेज्जासंखेज्जगं' इत्यादि, आचार्य उत्तरमाह-'जहण्णएण' इत्यादि सुतं कंठ्यं, अन्यः प्रकारः | दा'अहवा उकोसय' इत्यादि सुत्तं कंठयं, 'तेण परं' इत्यादि सुत्तं कठयं, जहष्णगस्स असंखेज्जासंखेज्जगस्स परतो अजहण्णमणुकोसादा ।। ८२ ॥ इत्यादि सुत्त कंठय, शिष्यः पृच्छत् 'उकोसगं' इत्यादि सुत्तं, आचार्योत्तरमाह--'जहण्णग' इत्यादि सुत्तं कंठयं, अन्यः प्रकारः दीप अनुक्रम [२९२ ३१४] ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .....................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१४१ १४६] गाथा ||११२ १२१|| MIअहवा जहचग' इत्यादि मुत्तं कंट्य, अने पुण आयरिया उकोसर्ग असंखेज्जअसंखेजग इमेन प्रकारेण पनवेति-जहण्णगअसंखेज्जा-- अनन्त सखेज्जगरासिस्स बग्गो कज्जति, तस्स वग्गरासिस्स पुणो बग्गो कज्जति, तस्स बग्गस्स पुणो वग्गो कज्जति, एवं तिण्णि स्वरूपम् वारा वग्गिय संबग्गिते इमे दस असंखयपक्खेवया पक्खिप्पिज्जति 'लोगागासपदेसा १ धम्मा २ धम्मे ३ गजीवदेसा ४ य । | दवहिया णियोया ५ पत्तेया चेव बोध्धन्वा ६ ॥ १ ॥ ठितिबंधज्झवसाणा ७ अणुमागा ८ योगच्छेद पलिभागा ९ | दोण्हनि समाण समया १० असंखये खेवया दस तु ॥२॥' सबलोगागासप्पदेसा एवं धम्मस्थिकायप्पदंसा अधम्मस्थिकायप्पदेसा एमजीवप्प| देसा दबट्ठिया णियोयति मुहुमवायरअणंतवणस्सतिस्स शरीरा इत्यर्थः, पुढवि जाव चेदिया सय्ये पोयसरीरिणो गहिया, | ठितिबंधझवसाणा हि णाणावरणादियस्स संपरायकम्मस्स ठितिबंधविसेसा जेहिं अज्ञवसाणट्ठाणेहि भवति ते ठितिबंधझवसाणा, हाते य असंखा, कथं ', उच्यते, णाणावरणदसणावरणमोहआयुअंतरायस्स जहण्णय अंतमतं ठिती, सा एगसमयुत्तरखुडीए ताप 81 गता जाव मोहणिज्जस्स सत्तरि सागरोषमकोडीका डीओ सत्त य वाससहस्सत्ति, एते सध्ये ठितिविसेसा तेहि अज्झवसायट्ठाण विसेसेहितो गिफण्णति अतो ते असंसेज्जा मणिता, अणुभागत्ति णाणावरणादिकम्मणो जो जस्स विपाको सो अणुभागो, सो हाय सन्चजहण्णठाणातो जान सकोसमणुभावा, एते अणुभागविसेसे सव्ये अज्झवसाणपिसेसेहितो भवंति, ते अज्झवसाणIXठाणा असंखेज्जलोगागासपदेसमेता अग्रभागठाणावि तत्तिया चव, 'जोगछदपलिभागा' अस्य व्याख्या-जोगोत्ति जो मण 1८३॥ कावतिकायपयोगो तेसिं मणादियाण अप्पप्पणो जहण्णठाणम्ती जोगविससप्पहाणुत्तरखुडीए जाव उकासा मणवतिकायजोगाति, एते एगुत्तरवटिया जोगविसेसटाणा छेदप्पलिभागा भपति, ते मणादिया छेदपलिभागा पत्तेयं पिंडिया वा असंखेज्जा इत्यर्थः, दीप अनुक्रम [२९२३१४]] ACHAR ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ..................मूलं [१४१-१४६] / गाथा ||११२-१२१|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्री [१४१ अनुयोग चूर्णी ॥८४॥ १४६] गाथा ||११२१२९|| दोण्ह य समाण समयत्ति उस्सप्पिणी ओसप्पिणी य एताण समया असंखया चेक, एते दस असंखे पक्खेवया पक्खिबिउँ पुणो रासी अनन्त | तिणि वारा बग्गितो ताहे रूवूणो कतो, एतं उक्कोसं असंखेज्जअसंखेयप्पमाणं भवति, उक्तं असंखेज्जं ॥ इदाणी अणंतयं लाप्रक्षेपाःषद् भण्णति, सीसो पुच्छति--'जहपणगं' इत्यादि सु कंठ्यं, गुरू आह-'जहन्नगं असंग्वेज्जगं' इत्यादि सुतं कंठ, अन्यः प्रकारः 'उकोसए' इत्यादि सुत्तं कंठ्य, 'तेण परं' इत्यादि सुत्तं कंट्य, सीसो पुच्छति 'उकासगं परित्तार्णतयं इत्यादि सुत्तं कंख्य, गुरू आह-'जहण्णगं परित्ते' त्यादि सुत्तं कंठ्यं, अन्य प्रकारः 'अहवा जहण्णगं परित्तार्णतयं' इत्यादि सुतं कंव्यं, 'अहवा उकोसए ' इत्यादि सुत्तं कंट्यं, तत्थ अण्णायरियाभिप्पायओ यग्गितसंवग्गितं भाणियव्यं पूर्ववत्, जहण्णगजुत्ताणतयरासी जावइतो अभव्यजीवरासीवि केवलणाणेण तत्तितो चेव दिट्ठो 'तेण' इत्यादि सुत्तं कंठयं, सीसो पुच्छति 'उकोसगजुत्ताणतग' इत्यादि सुन कंट्य, आचार्य आह-जहण्णएणं' इत्यादि मुत्तं कंट्य, अन्यः प्रकारः 'अथवा जहष्णग' इत्यादि सुत्तं कंठ्यं, एत्थ अण्णायरियाभिप्पायतो अभब्बरासिप्पमाणस्स रासिणो सकि बग्गो कज्जति, ततो उक्कोसगं जुत्ताणतं भवति, सीसो पुच्छइ'जहण्णगं अर्णताणतयं कित्नियं भवति ?' सुत्तं कंठ्य, आचार्य आह-'जहण्णएण' इत्यादि सुत्नं कंघ, अन्य प्रकारः, 'अहवा उकोसए' इत्यादि सुत्तं कंट्वं, 'तेण परं' इत्यादि सुतं कंठप, उकोसयमणताणतयं नास्त्येव इत्यर्थः, अने य आयरिया भणति-जहण्णगं अर्णताणतग तिणि वारा वग्गिय ताधे इमे अणंतपक्खेवा पक्खित्ता, तंजधा-'सिद्धा १णियोयजीचा २ वणरसति ३ काल ४ पोग्गला 1५ चेव । सबमलोगागासं ६ छप्पेते णतपक्खेवा ॥१॥ सब्बे सिद्धा सम्वे सुहमबायरा णियोयजीवा परित्तणंता सब्बवणस्स- ॥८४।। तिकाइया सब्बो तीतानागतवट्टमाणकालसमयरासी सब्बपोग्गलदवाण परमाणुरासी सब्वागासपदेसरासी, एते पक्विविऊण दीप अनुक्रम [२९२३१४]] ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४७] गाथा ||१२२|| दीप अनुक्रम [ ३१५ ३१७] श्री अनुयोग चूर्णां ।। ८५ ।। “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) .मूलं [१४७] / गाथा || १२२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र- [ ०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: तिष्णि बारा बग्गियसंवग्गितो तथावि उक्कोसयं अणंताणंतयं ण पावति, ततो केवलणाणं केवलदंसणं च पक्खित्तं, तहावि उक्कोसयं अनंताणंतयं ण पावति सुत्ताभिप्पायतो, जतो सुत्ते भणितं तेण परं अजहण्णमणुकोसगाई ठाणाई' ति, अण्णायरियाभिप्पायतो केवलणाणदंसणेसु पक्खित्तेसु पत्तं उकोसमणंताणंतयं, जतो सव्वमणतमिह त्थि अण्णं न किंचिदिति, जहिं अणंताणंतयं मग्गिज्जति तर्हि अजहणमणुकोसयं अनंताणंतयं गहेयचं, उक्ता गणणसंखा, इदाणि भावसंखा 'से किं तं भावसंखे' त्यादि, जे इति अणिदिदुणिसे इमेति पच्चक्खणाणिण पच्चवखभावे लोगप्रसिद्धितो वा पच्चक्खभावे, जीवभावडिया जीवा, ते य जलचरा (इ) लोगाभिधाणप्पसिद्धा स्वस्वजातितिरियगतिणाम वेतिंदिया जातिणामं ओरालियसरीरं अंगोवंगवण्णगंधरसफासेवमादि गोचु उच्चाइयं एवमादिकम्मभावा भावभेदका जीवा भावसंखा भष्णंति, उक्तं प्रमाणं, इदाणि वचव्वया, - ' से किं तं वतव्वया इत्यादि (१४७-२४३ ) अज्झयणाइसु सुत्तपगारेण सुतविभागेण वा इच्छा परूविज्जति सा वक्तव्वता भवति सा च त्रिधा ससमयादिका, जत्थ णंति यत्राध्ययने सूत्रे धर्मास्तिकायद्रव्यादीनां आत्मसमयस्वरूपेण परूपणा क्रियते यथा गतिलक्षणो धर्मास्तिकायेत्यादि सा स्वसमयवक्तव्यता, यत्र पुनरध्ययनादिषु जीवद्रव्यादीनां एकान्तग्राहेण नित्यत्वमनित्यत्वं परसमयस्वरूपेण प्ररूपणा क्रियते, सा जहा-संति पंच महन्भूया, इहमेगीस आदिया । पुढवी आऊ तेऊ, बाऊ आगासपंचमा ||१|| | एते पंच महम्भूता, ततो लोगोति आहिया । अह तेसिं विणासेणं विणासो होति देहिणो ॥ २ ॥ इत्यादि, एसा परसमयवक्तव्यता, यद्वा- आगारमावसेतो वा आरण्णा वाचि पव्वया । इमं दरिसणमावण्णा, सव्वदुक्खा विमुच्चति ॥ १ ॥ को गयो कं वत्तव्यं इत्यादि, द्रव्यपर्यायोभयनयमंगीकृत्याच्यते- त्रिविधा प्ररूपणा, तत्थ दव्बद्वितो त्रिविधं वत्तव्ययमिच्छति, अथ स्वसमयादि वक्तव्यता ~89~ स्वसमयादिवक्तव्यता 1144 11 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ..........................मूलं [१४७] / गाथा ||१२२...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: श्री प्रत सूत्रांक [१४७] गाथा ||१२२|| चूर्णी ॥८६॥ जतो स्वसमयवक्तव्यता शब्दाभिधान(मन्तरेण प्रसिद्धिः परसमयवक्तव्यता शब्दाभिधानमन्तरेण न भवति, इतरेतरापेक्ष-18 अर्थास्वाच्छायोष्णयोरिव, एवं उभयसमयवक्तव्यतास्वरूपमपीच्छति जधा ठाणगे 'एगे आता' इत्यादि, परसमयव्यवस्थिता ब्रुवतिहाधिकारः | एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते प्रतिष्ठितः। एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। १ ॥ स्वसमयव्यवस्थिताः पुनःब्रुवंति समंवतारण | उबयोगादिकं सव्यजीवाण सरिसं लक्खणं अतो सब्यभिचारिपरसमयवत्तन्वया स्वरूपेण ण घडति, अग्नेः शीतत्वमुष्णत्वं उदगम्मि इयरे वा, समये इत्यर्थः, 'तिण्हं सहणयाण' इत्यादि, सर्वा स्ववक्तव्यतैव, परसमयवक्तव्यता नास्त्येव, कहं १, संतो परसमयाबि जेण जीवादिवत्थुणो जे अणिच्चादिभावपरूवणं करेंति तं ससमएवि सावयबविकष्पपरूवर्णण कत्थई इच्छतित्ति अतो पत्थि परसमयवक्तव्यतेत्यर्थः, अहवा 'अणट्ठि' त्यादि जो जस्स जीवादिवत्युणो अण्णो ण भवति तं जधा परूवेति तम्हा अणडो सर्वथा नास्त्यात्मादि, अहेतुजुत्तं जम्हा परूवेति तम्हा अचेतनोऽस्त्यात्मा अनुपलभ्यमानत्यादिति, जम्हा अभूयवं परुति | सामाकतंदुलमात्रात्मा इत्यादि, मग्गोत्ति सम्म णाणदंसणचरणा तश्विबारो वा, अण्णाणं अविरती मिच्छत्तं वा तस्स तम्मि व तेण व परूवणा उम्मग्गेत्यर्थः, जे सव्वण्णुवयणं तं सच्च सम्भूयं अविहतं अविसंदिदं अट्ठजुत्तं अणवज्ज सब्बहा दोसवज्जियं, एरिसं| वयणं धम्माभिलासिणो उबदेसो, अणुवदेसी सब्बष्णुवयणविबरीयत्तणतो शाक्योलूकादिवचनवत् जीवादितच्चे नयभेदविकल्पितस्वरूपे या प्रतिपत्तिः सा क्रिया, तस्यैव जीवादितत्त्वस्य सर्वथा देसे वा अप्रतिपत्तिः अकिरिया अक्रियावादिवचनवत्, मोहनीयभेद ॥८६॥ मिथ्यात्वोदयात् विपरीतार्थदर्शन मिच्छादसणं, हत्पूरकफलभक्षितपुरुषदृष्टिदर्शनवत्, एवं परसमयवत्तव्यता अणिट्टातिजुत्तणतणतो अणादेया, अणादेयत्तणतो परसमयबत्तव्बया खरविपाणवत नास्त्येवेत्युपलक्ष्यते, उक्ता वक्तव्यता ।। 'से किं तं अस्थाहिगारे' दीप अनुक्रम [३१५३१६] ASHOCOCCASIK ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .....................मूलं [१४८-१४९] / गाथा ||१२३-१२५|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत श्री सूत्रांक [१४८१४९] गाथा चूणीं Me ||१२३ १२५|| त्यादि सुतं , चोदक आह-अत्याहिकारवत्तव्बयाणं बिसेसं ण बुज्झामो, आचार्य आह--अज्झयणे अत्थाहिगारो आदिपाद भावसमवरद्धो सबपदेसु ता अणुवकृति जाव समत्ती, परमाण्यादिसर्वपुद्गलद्रव्येषु मूर्तवतु, बत्तब्बता पुण पदपादसिलोगद्धसिलोगादिसु तारच निक्षेपाच टू अायणस्स देस एव सव्वहा अणुवकृति, संखेज्जादिप्रदेशस्कंध कृष्णत्वादिवर्णपरिणामवत्, उक्तः अर्थाधिकारः ॥ से किं। समोदारे' इत्यादि, (१४९-२४६) समित्ययमुपसर्गो अबतारयति अबतरण वा सम्म समस्तं वा ओतारयतित्ति समो18 तारे भणिते, सो य गामादि छव्विधो-से कितं णाम' इत्यादि सुत्तं कंठ्य जाव आयपरतदुभयसमोतारेति, जघा जीवदाभावाणं अण्णण्णजीवभावेमु चेव समोतरति, एवं धम्माधम्मागास परमाणुमादि पुग्गलदच्या आयभावे समोतरंति, बदरादिद्र | व्यस्य भावस्य वा कुण्डावतारचिंताए बदरकुंडा, परोप्परभिण्णतणतोपि आयभावे समोतिणं दब्बं जम्हा परे समोतारिज्जति | तम्हा सव्वत्थ ववहारतो परसमोदारो भण्णति, उभतावतारे गृहे स्तंभ इति, स्तंभो अन्येऽपि ये गृहावयवास्ते स्तंभस्य तेषु अवतारो परावतारे, आतभावता तु स्तंभस्य तत्र विद्यत एव, एस तदुभयावतारो, घटे ग्रीवाप्येवं, अहवा दव्यसमोतारों दुविध एव-आतसमोतारो उभयसमोतारो य, चोदको भणति-कथं परसमोदारो नत्थि, उच्यते, जति आतसमोतारबज्जितं दव्वं परे समोतरति तो सुद्धो परसमोतारो लब्भति अन्यथा नास्त्येवेत्यर्थः, चतुसहि' इत्यादि, छप्पण्णा दो पलसता माणी भण्णति, तस्स चतुसविता चतुरो पला भवति, एवं बत्तीसिताए अट्ठ पला सोलसियाए सोलस अट्ठभाइयाए बत्तीस चतुभाइयाए चतुसहि अद्धमाणीए अट्ठावीसुत्तरं पलसतं, सेसं कंयं, खेत्तकालसमोदारा उपयुज्ज कंठा वक्तव्या, ' से किं तं भावसमोदारे' इत्यादि सुत्तं कठ्यं, जाव उदइए पछविधे भावे बेति, इत्थ चोदक आह-क्रोधाचीदपिकभावानां एकभावत्वात् समान-51 दीप अनुक्रम [३१७३२१] ~ 91~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५० ] गाथा ||१२६ १३१|| दीप अनुक्रम [३२२ ३२८] श्री अनुयोग चूर्णी ॥ ८८ ॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र -२ (चूर्णि:) .मूलं [१५०] / गाथा || १२६-१३१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५] चूलिकासूत्र- [ ०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: लक्षणत्वात् अन्योऽन्यानुवर्त्तित्वाच्च उभयावतावतारकरणं युज्जते, जं पुण भणह उदहओ भावो छव्विधे भावे समोतरहति तं ण जुज्जति, विलक्खत्तणतो अण्णोष्णणणुव्यत्तित्तणतो, आचार्याह- भावसामण्णत्तणतो समोतारो, अथवा सरीरादिउदयभावठियस्स णियमा उपसमियखयादयो भावा भवतीति ण दोसो, उक्त उपक्रमः ॥ ' से किं तं णिक्खेवे ' इत्यादि, जो सामनो सव्यज्झयणेसु स ओहोत्ति, तस्स णिक्खेबा ओहणिफण्णो भवति, अहिकतज्झयणस्स जण्णामं तस्स जो णिक्खेवो स णामणिप्फण्णो, सुत्ते उच्चारिते पयत्थादिकते जधासंभव पदाणं जो णिक्खेवो सो सुत्तालावयणिष्कण्णो । 'से किं तं ओहणिफण्णो इत्यादि सुत्तं कंठ्यं, जाव से किं तं भावअज्झपणे इत्यादि चोहसपुच्वधरस्सागमोबउत्तस्स अंतमुत्तमेतावयोगकाले अत्थोवलंभोवयोगपज्जवा जे ते समयावहारेण अणंताहिवि उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं गोवहिज्जेति ते अतो भणितं आगमतो भावअज्झणिं, जाणए उवउत्त इत्यर्थः, णोआगमतो भावज्झीणं वायणायरियस्स उपयोगभावो आगमो, वहकाययोगा अ णोआगमो एवं गोआगमो भवति, सेसं कंठ्यं, 'से किं तं आये' इत्यादि सुतं कंठ्यं जाव संतसारसावतेज्जस्स आपत्ति, संत श्रीघरशीदषु विद्यमानं सावतेज स्वाधीनं दानक्षपग्रहमोक्षभोगेषु, सेस कंठ्यं से किं तं खवणा ' इत्यादि, गाणादीण बड्डी इच्छिज्जति जा पुण तेसिं खवणा सा अप्पसत्था भवति, सेसे कंव्यं । ' से किं तं णामणिप्फण्णे इत्यादि (१५०-२५० ) सूत्रं कंठ्यं । जाव' जस्स सामाणितो ' गाहा (#१२६ - २५५) यस्य ययोः येषां यथा सामाणितोत्ति- अप्रविसरितः ' यो समो गाथा (*१२७-२५५) गयट्ठा 'जहं मम ' गाथा (१२८-२५६) तेण समणो भावसामादियजुत्तो भवति 'णत्थि य से ' गाहा (*१२९ - २५६) भावसामायिकयुक्तस्य अन्यः श्रमणपर्यायः ' उरगगिरि' गाहा (*१३० - २५६) सारयसलिलब्ध सुद्धहियतो परी अत्र निक्षेपस्य वर्णनं क्रियते ~92~ साधोरन्यर्याः निर्युतिथ ॥ ८८ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .....................मूलं [१५१] / गाथा ||१३२-१३४|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१५१] Mसाधार चूर्णी ला गाथा ||१३२ वथा नियुक्तिश्च १३४|| श्री सहोवसग्गवाउणा गिरिच णिपकंपो जलणा इव तवतेयसा सागरो इव गुणरयणपुण्णो णाणादीहि वा अगाहो अगाहत्तणतो चेव । अनुयोग गंभीरो वा गगण व णिरालंबो सयणादिसु त रुचिरविसमेसु सुहदुक्खकरेसु हमरो इव अणियतवृत्ती संसारभावेसु णिच्चुग्विग्गो पूमियो इव धरणिरिव सवफासविसहे जलरुहं व जधा पंके जातं जले वुझं णोपलिप्पति पंकरएण तहा भावसामादियीढतो । ॥८॥ कामभोगेसु संवुड्डो गोवलिप्पति कामभोगेसु, रविरिख अण्णाणविघातकरे पवणोच अपडिबद्धो गामणगरादिसु 'तो समणो' | गाथा (*१३१-२५६) कंठ्या, 'से कितं अणुगम' इत्यादि (१५१-२५८) जावतिया कया कज्जिसति य णामादिद्वाणिस्खेवेण अत्थाणुगमा ते सच्चे णिक्खेवणिज्जुत्ती, एतं णिक्खेवणिज्जुत्तस्विरूपं, ‘से किं तं उवोग्घात' इत्यादि सुत् व्यं, 'से किं तं सुत्तफासिय' इत्यादि, सुत्तस्स उच्चारणमुपलक्षणं इमं, उवलयहुलसिलाए जंगलगमणं व खलियं, ण खलियं अखलियं, अण्णमण्णज्झयणसुतं संमेलिय णाणावण्णसंकररासिव्व अण्णोअण्णअज्झयणसरिससुत्ताण विरइत्तु &आमेडितकरणं वच्चामेलियं, यथा गणधरनिबद्धमित्यर्थः पादबिंदुमत्तादिएहि पडिपुण्णं उदचादिएहि घोसेहिं पडिपुण्णयोस गुरुणा कंठे वडियस्सरेण जीहोट्ठाण उत्तरकरणेण य विप्पमुक सेसेण पडिच्छिय सुचं, ण पुत्थयातिति, सेसं कंठ्यं जाव पदेण पदं च वनइद्रास्सामित्ति, इत्थ पदं २ वनइस्सामीति बत्तव्ये किं पदेण पदत्ति भणिया, उच्यते, णियमा उद्देसज्झयणादिसु जे सुत्तपदा तेसिं सुत्तेण वा अत्येण वा उभएण वा अण्णोण्णसंबद्धाण एस चेव उच्चारणोबाओ, यथा लोए वत्तारो घरेण घरं संवर्द्ध रहो रहेण संबद्धो, अथवा संबद्धप्रदर्शनार्थ णगारेणोच्चरणं कृतं, प्रदेहार्थकरणं वत्तव्बा, अहवा पदेणंति सुत्तपदेणुवलद्धेणं अत्थपदं वत्तिज्जत्ति, पदेण पदं बत्ति| स्सति, अहवा अणुवलद्धत्थपदस्स प्रतिपदमर्थकथनप्रकारः प्रदश्यते पदेण पदं बत्तइस्सामित्ति, कथं', उच्यते 'संधिया य पदं दीप अनुक्रम [३२९३३२] SICS अथ 'अनुगम'स्य वर्णनं ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) ........................मूलं [१५२] / गाथा ||१३५-१४०|| .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्री [१५२] गाथा ||१३५ कल ॥९ ॥ १४०|| - घेव' गाहा (*१३४-२६१) संधिया गया, पदति करेमित्ति पदं भंतेत्ति पदं, सामायिकति पदं, पयत्यो अभ्युपगमे करेमिति,13 व्याख्या भंते ! इत्यामंत्रण, सामाइयं पर्द, सेस फंख्ये, विग्गहोत्ति समासो भाणियब्बो, सुत्तस्स अत्थरस वा दोमुम्भावणा चालणा, दोसपरिहर- भेदाः | पत्थं उत्तरपदाणं अत्थपसाधकं पसिद्धी, वर्द्धनं वृद्धिः व्याख्या इत्यर्थः, जम्हा सुत्तं अत्यो य विक्रप्पेहि अणेगधा वक्खाणकर- नयाश्च | णतो वद्धति, एवं वस्खाणपदेण सुत्पदं वत्तियं भवति, गतो अणुगमो || ‘से किं तं णय' इत्यादि (१५२-२६४) णेग-18 | मादि सत्त मूलणता, तत्थ णेगमे भवति 'णेगेहिं ' इत्यादि (*१३५-२६४) गामवसाहिवत्थगदितेहि गमो भाणियव्यो, | संगहो इमो भवति 'संगहिय' इत्यादि (१३६-२६४) मिम्मयरययसुवण्णतंबयमहप्पकिण्हादिवण्णविसेसणविसिडेसुवि घडेसु एक अविसिटुं घड़मावं इच्छति, भूतेसु कठिणगुणं व । ववहारो इमो 'वच्चई त्यादि, तीतमणागतवट्टमाणेसु सब्बावत्थासु दिढ घर्ड इच्छति लोगसंववहारपरतणतो वबहारस्स, उज्जुसुयस्स इमो 'उजुसुत्तो पढप्पण्ण' इत्यादि (*१३७-२६४) अतीयकालघडं अणुप्पण्याकालघडं च अभावतणतो असंववहारत्तणतो य णेच्छति खरबिसाणं व, 'सद्दणतो इच्छति' इत्यादि सुतं, दतं चेव पडुप्पण्णकालियं अत्थं उजुसुत्ताभिप्यायतो विसेसिययरं इच्छति, जहा तिष्णि णेच्छह णामघडं ठवणापडं शरीरभव्यशरीर द्रव्यघडं च, जलाभरणादिकज्जसाधणसमत्थं रिकमोमंधियं वा जहा कहंचि ट्ठियं इच्छतीत्यर्थः, समभिरूढो इमो-'वत्थूतो' इत्यादि (*१३८-२६४)णेच्छति, इह एगत्थिया, एगट्ठिय एगट्ठिय अक्खराभिलावभिण्णतणतो णियमा अत्थभेदो, अत्यभिण्णतणतो | वत्थुभेदो, एवं समभिरूढो एगट्ठिया णेच्छति, जहा घटः कुटो न भवति, कथी, उच्यते? 'घट चेष्टायां' 'कुट कोटिल्ये एवं अभिधाण| समं अत्थं आरुभतीति समभिरूढो भवतीत्यर्थः, एवंभूतो इमं आह-'बंजण' इत्यादि, बंजणं घटः अत्थो सचेट्टा - CARSHISARDAS - दीप अनुक्रम [३३३ -- ३४०] -45 - ~94 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५२] गाथा ||१३५ १४०|| दीप अनुक्रम [३३३ ३४०] श्री अनुयोग चूर्णी ॥ ९१ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (चूर्णि :) मूलं [१५२] / गाथा || १३५-१४०|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४५], चूलिकासूत्र [०२] "अनुयोगद्वार" चूर्णि: जलाहरणाइया, एवं जया घटो जलाहरणक्रियाजुत्तो भवति तदा उयधरं वा अवत्थं एवं च सदे णातो अत्थो विसेसिज्जति अत्थतो विवक्षति ध्वानं, एवंविहं माणं चत्धुभूतं भवति, अतो एवंभूतो भवतीत्यर्थः, एते गमादि सत्तवि गया दोसु तु अवतरंति-गाणनए चरणनये, णाणणये सत्त णेगमादयो गया इमेरिसं णाणोवदेसं इच्छंति - णातंमि गिहितब्वे ' गाथा ( *१३९ - २६७ ) णायंमि नाम सम्मं परिच्छिन्ने, तओ से दुहा गप्पते, तेसु य णाति जो घेत्तव्यो आदीयब्वो तस्स आसादने गेण्डेयच्वो कज्जसाधकः, उक्तस्य विपक्खभूतो ण घेतब्वो, जतितव्यंति मनोवायकायेहिं घेत्तव्यो अगहणगहियन्वे अघेतब्बे उदासीत्वेन ' एव मित्यवधारणे घेत्तव्वे वा पयतियन्वं इति उवदंसणे, जो एवंविहो उबदेसो सो सब्बो जयणामा भवतीत्यर्थः, णता चैव गमादीया चरणगुणठितमेरिसं पडिवयंति ' सव्वेसिं' गाथा ( *१४०-२६७ ) सब्वेत्ति मूलसाहप्पसाहभेदिणा अप्पणो अभिप्पाएण गप्पगारा एयरस य णयस्स भेदा जे तेसिं वतव्वयां भणितं अहवा एगस्स वत्थुणो पज्जवा वत्तव्वत्ति बच्चा, अहवा वत्तव्या गतिजीवादि तच्च सब्बभेदाण णिसामेत्ता-सोतुं अवधारितुं वा मिसामित्तए तंमि एवंविहणयवत्तब्वयंमि किं सव्वणयविसुद्ध १, उच्यते-' तं सव्व ' इत्यादि चरणमेव चरणं वा चरिओ गुणा खमादिया अणेगविधा तेसु जहडिओ साहू सो सव्वणयसंमतो भवतीति ॥ इति श्रीश्वेताम्बराचार्यजिनदासगणिमहत्तरपूज्जपादानामनुयोगद्वाराणां चूर्णिः ॥ ॥ इति सम्मत्ता अनुयोगद्वारचूर्णिः ॥ अथ 'नय' वर्णनं क्रियते ~95~ ज्ञानक्रियानयाँ | ॥ ९१ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (चूर्णि:) .............मूलं ] / गाथा ||-|| इति सम्मता अनुयोगद्वारचूर्णिः । BREAUCRAKASAGAGRA मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादिता (आगमसूत्र ४५) "अनुयोगद्वार-चूर्णि:” परिसमाप्ता: ~ 96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: [45] 'पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च / ' “अनुयोगद्वार" चूलिकासूत्र चूर्णि:] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “अनुयोगद्वार" चूर्णि: नामेण परिसमाप्ताः Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~97~