Book Title: Vrat Katha kosha
Author(s): Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 15
________________ ARRANXXINRNAMIRRRRRRRRRRRRRRINTIN. लक्ष्य बनाकर मानव जीवन को सफल करें इस ससार में भटकते हुये जीव ने अपना लक्ष्य ही नहीं बनाया कि मुझे ऐसा क्या कार्य करना चाहिये जिससे मुक्ति की प्राप्ति हो। लौकिक कार्यों के लक्ष्य बनाने में तो निपुण रहा किन्तु अात्म कल्याण के कार्यों को करने की सुध आज तक न ली। ___ दिशाहीन पतवार जैसे भटकती रहती है वैसी ही दशा इस संसारी प्राणी की है। एक बार सच्चे हृदय से जिनवाणी माँ व अरहंत देव की बात स्वीकार करके, अपनी संसार यात्रा का अन्त करने में जुट जा। मनुष्यगति में मुक्ति प्राप्ति का मौका मिला किन्तु उसे व्यर्थ ही खाने-सोने में बिता दिया। आगे किस गति में जायेंगे इसकी चिन्ता ही न की। प्राचार्यों ने बता दिया है कि जैसे भाव जीवों के होंगे वैसी ही गतियां इसे मिलती रहेंगी। स्वयं किये कर्मों का फल अवश्य ही भोगना होगा। लौकिक में भी नीम बोय और आम की इच्छा करे असंभव है उसी प्रकार कार्य पाप के करे और पुण्य प्राप्ति की इच्छा करे सर्वथा असंभव कार्य है । भावों की विशुद्धता पाकर ही निगोदिया जीव बाहर आता है। __ मानव जोवन पाकर तो लक्ष्य बनाकर ही कार्य करना है । जिस गति से आये हैं व जिस गति का बन्ध हो चुका है वैसे ही इस जीव के अच्छे बुरे भाग्य होते हैं फिर भी लक्ष्य पूर्वक बुरे कार्यों का त्याग करके, अच्छे कार्यों का करना जरूरी है। मानव जीवन की सफलता लक्ष्य बनाकर कार्य करने में ही है। उपवास की मल भावना को समझें व्रत उपवास भी मानव जीवन में कार्यकारी तभी है जब प्रात्मसम्मुख होकर किये जायें अन्यथा वे लंघन जैसे हैं । गरीब भिखारी भी भूखा रह जाता है किन्तु उसकी इच्छा असीम होने के कारण उसका उपवास नहीं कहलायेगा। उपवास का शब्दार्थ तो यह है उप याने आत्मा के बास याने समीप पहुचना । जो जितना अधिक प्रात्मा के समीप जायेगा उतना ही अधिक दृढ़ता पूर्वक उसका बाह्य उपवास भो सार्थक होगा। मात्र पाहार-पानी का त्याग कर देना ही उपवास नहीं है। बीमारी की दशा में भी इनका त्याग हो जाता है । अन्तरंग में इच्छाय न हों, भोजनपान सबंधी तभी बाह्य का भी त्याग उपवास है । अन्तरंग इच्छाओं का सीमित करना ही सच्चा उपवास है। अन्तरंग परिणामों की सभाल करना ही सच्चा उपवास है। जैन धर्म की नींव भी भावों पर ही निभर है । भाव बिगड़ते रहें और उपवास होता रहे वह तो मात्र दिखावे का उपवास होगा । बंध मोक्ष की दशा भावों के अनुसार होगी। अात्म सन्मुख होकर, बाह्य भी भोजन पानादिक का किया गया त्याग ही सच्चा जपतामहै।

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