Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya,
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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हे केवलश्रीसनाथ तव संबंधिनीमेतां पूर्वोपवर्णितस्वरूपां चमत्कारकरीमलौकिकाश्चर्यचर्याकारिणी प्रातिहार्यश्रियमशोकादिलक्षणां लक्ष्मी दृष्ट्वा विलोक्य तावदासतां सुदृशः किंतु मिथ्यादृशोऽपि तत्त्वदर्शनं प्रति विपरीतदृष्टयोऽपि किंनाम न |चित्रीयंते नाश्चर्यमुदहति । इदमत्र हृदयं । किल यद्यपि तेषामज्ञानोपहतत्वेन भगवतो यथावद्वीतरागतादिरहस्यानवबोधस्तथापि भुवनाद्भुतप्रातिहार्यदर्शनाद्विस्मरविस्मयानाममंदानंदपीयूषपानमनागुपशांतमिथ्याविषाणां भवत्येव बोधेराभिमुख्यमित्यहो स्वामिनः सर्वोपकारितेति ॥
इति वीतरागस्तोत्रे पंचमस्य प्रातिहार्यस्तवस्य पदयोजना ॥
एवं भावार्हद्रूपस्य परमात्मनो भुवनातिशयहेत्वनतिशयानतिशयानभिधाय सांप्रतं तदतिशयलेशेनापि वंचितानचिद्गपान् देवाभासांस्तत्तुलायामारोप्य तस्मिन् भगवति ये विपक्षतामुपक्षिपंति तान्निरसिसिषुर्विपक्षनिरासं स्तुतिकृदाह ॥
लावण्यपुण्यवपुषि त्वयि नेत्रामृतांजने ॥ माध्यस्थ्यमपि दौःस्थ्याय किंपुनषविप्लवः ॥१॥ हे जगदानंदकंद भगवंस्त्वयि लावण्यपुण्यवपुषि निरुपाधिमधुरनिसर्गलवणिमगुणपवित्रगाने तत एव नेत्रामृतांजने सकललोकलोचनामृतवर्तिप्रमेये। कैश्चिदनभिगृहीतमिथ्यात्वमुकुलितविशेषविचारैर्माध्यस्थ्यमितरदेवसाधारणा देवबुद्धिधियते । तदपि तावत्त्वद्गुणज्ञानं दृष्टं श्रुतं च महते दौःस्थ्याय मनःखेदाय जायते । यत्तु तेभ्योऽप्यतिमूढैः कैश्चित्त्वय्यपि |विश्वजनीने द्वेषविप्लवो मत्सरोपप्लवः प्रतन्यते स त्वशेषविशेषविदुषां सुतरामरंतुद इति भावः॥
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