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श्री वीरवर्धमानचरित
पट्टपर वि. सं. १६५६ में बैठे थे । ऐ० पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवनमें इसकी एक प्रति है जो कि वि. सं. १७४० की लिखी हुई है । दूसरा हिन्दीमें छन्दोबद्ध महावीर पुराण श्री नवलशाहने वि. सं. १८२५ में रचा है, जो कि सूरतसे प्रकाशित भी हो चुका है ।
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यद्यपि सकलकीर्तिने प्रस्तुत चरितके प्रत्येक अधिकारके अन्त में 'श्रीवीर - वर्धमानचरित्र' यह नाम दिया है, तथापि सुविधाकी दृष्टिसे हमने इसका नाम 'वर्धमानचरित' रखा है।
३. वर्धमान चरितका आधार - दि. परम्परामें उपलब्ध उक्त सभी महावीर चरितोंका आधार गुणभद्राचार्यका उत्तरपुराण रहा है, ऐसा उक्त ग्रन्थोंके अध्ययनसे स्पष्ट ज्ञात होता है। हाँ, अपभ्रंश कवियोंने एक-दो घटनाओंके उल्लेखोंमें श्वे० परम्पराके महावीर चरितका भी अनुसरण किया है ।
४. वर्धमान चरितके रचयिता -- भ० सकल कीर्ति - प्रस्तुत चरितके निर्माता भ० सकलकीर्ति हैं । इन्होंने प्रस्तुत चरितके अन्तमें अपने नामका इस प्रकार उल्लेख किया है
वीरनाथगुणकोटिनिबद्धं पावनं वरचरित्रमिदं च । शोधयन्तु सुविदश्च्युतदोषाः सर्वकीर्तिगणिना रचितं यत् ॥
( अधिकार १९, श्लो. २५६ ) इस पद्य में सकलकीर्तिने अपने नामका उल्लेख 'सर्वकीर्ति गणी' के रूपमें किया है । 'सकल' पदके देनेसे छन्दोभंग होता था, अतः अपनेको 'सर्वकीर्ति' कहा है ।
प्रश्नोत्तर श्रावकाचारके अन्त में आपने अपना उल्लेख 'समस्त कीर्ति' के रूपमें भी किया है । यथाउपासकाख्यो विबुधैः प्रपूज्यो ग्रन्थो महाधर्मकरो गुणाढ्यः । समस्त कोर्त्यादिमुनीश्वरोक्तः सुपुण्यहेतुर्जयताद् धरित्र्याम् ॥
( परिच्छेद २४,
श्लो. १४२ )
पुराणसार संग्रह ग्रन्थके अन्तमें आपने अपना उल्लेख 'समस्तकीतियोगी' के रूपमें किया है । यथा - पुराणसारः किल संग्रहान्तः समस्तकीर्त्याह्वययोगिनोक्तः । ग्रन्थो धरित्र्यां सकलैः सुसंवृद्धि प्रयात्वेव हि यावदार्याः ॥
( अधिकार १५, श्लो. १८ ) किन्तु मूलाचार प्रदीप में आपने अपने 'सकलकीर्ति' नामका स्पष्ट उल्लेख किया है । यथा - रहित सकलदोषा ज्ञानपूर्णा ऋषीन्द्रा
त्रिभुवनपतिपूज्याः शोधयन्त्वेव यत्नात् । विशदसकलकीर्त्याख्येन चाचारशास्त्र
मिदमिह गणिना संकीर्तितं धर्मसिद्धये ॥
( अधिकार १२, श्लो. २२४ )
इस प्रकार यद्यपि पद्य रचना में यथासम्भव भिन्न-भिन्न शब्द - विन्यासके द्वारा आपने 'सकलकीति' नामको सूचित किया है, तथापि प्रत्येक ग्रन्थके अधिकार या परिच्छेदके अन्तमें आपने प्रस्तुत ग्रन्थके समान ' इति भट्टारकश्री सकलकीतिविरचिते' लिखकर अपने नामका स्पष्ट निर्देश किया है, जिससे कि उसे उनके द्वारा रचे जाने में किसी भी प्रकारका सन्देह नहीं रह जाता है ।
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५. सकलकीर्तिका समय - 'भट्टारक-सम्प्रदाय' के लेखानुसार सकलकीर्ति नामके तीन भट्टारक हुए - एक पद्मनन्दिके शिष्य, दूसरे पद्मकीर्तिके शिष्य और तीसरे सुरेन्द्रकीर्तिके शिष्य । इनमें प्रथमका समय सं. १४३७ से १४९९ है ( देखो -- भट्टारकसम्प्रदाय लेखांक ३३० से ३३४ ) | दूसरे सकलकीर्तिका समय सं. १७११ से १७२० है ( देखो - भ. सं. ले० ५३३ से ५३७ ) । तीसरे सकलकीतिका समय सं. १८१६ का पाया जाता है (देखो - भ. सं. ले. ७६३ ) ।
इन उक्त तीनों में से प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता प्रथम सकलकीर्ति हैं । यद्यपि इन्होंने अपने किसी भी