Book Title: Vidaai ki Bela Author(s): Ratanchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ विदाई की बेला/२ मैं अपने उस अपराध को चिल्ला-चिल्लाकर कहना चाहता हूँ, ताकि भविष्य की पीढ़ियाँ भी उससे सबक सीख सकें। फिर कोई भी व्यक्ति अपने पूज्य माता-पिता के साथ मुझ जैसा जघन्य अपराध न करे।" विवेकी ने कहा - "कुछ कहोगे भी या यों ही पहेलियाँ बुझाते रहोगे?" सदासुखी बोला - "हाँ, हाँ, कहँगा; अवश्य कहूँगा और जोरजोर से कहूँगा, ताकि सारा जगत सुने और शिक्षा ले । पर पहले...।' विवेकी समझ गया कि जबतक इसके मन की भड़ास पूरी तरह नहीं निकल जायेगी, जबतक यह अपने मन के गुब्बार निकालकर सहज नहीं हो पायेगा, तबतक वह घटना नहीं सुना पायेगा; अतः उसने जो कुछ कहा, सब चुपचाप सुनता रहा। सदासुखी ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा - "भाई! केवल नाम सदासुखी रखने से थोड़े ही कोई सुखी हो जाता है, सुखशान्ति प्राप्त करने के लिए हमें काम भी ऐसा करना चाहिए, जिससे सुख की प्राप्ति हो। मैंने अपने जीवन में ऐसा कोई काम ही नहीं किया। मैं तो दिन-रात एकमात्र पैसा कमाने के चक्कर में ही पड़ा रहा। वस्तुतः मैं ऐसा मान बैठा था कि पैसा ही सब सुखों का साधन है, पैसे से सब सुख पाये जा सकते हैं, पर अब मेरा यह भ्रम दूर हो गया है; पैसा बहुत कुछ हो सकता है, पर सब कुछ नहीं। अब मैं स्वयं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि आज मेरे पास क्या नहीं है? करोड़ों की चल-अचल संपत्ति, अटूट आमदनी के स्रोत; पर पाप का उदय आते ही वह सब संपत्ति देखते ही देखते विपत्ति बन गई है। कोई एक बात हो तो बताऊँ, क्या-क्या कहूँ? कभी फुरसत में शान्ति से बैठेंगे, तब सब सुनाऊँगा। अभी मेरे मन में हलचल है, अशान्ति है। आज हम अपने बेटों से सेवा की आशा और सद्व्यवहार की विदाई की बेला/२ अपेक्षा रखते हैं, पर हमें यह भी तो सोचना चाहिए कि कभी हम भी किसी के बेटे थे, क्या हमारे माता-पिता भी हमसे यही आशा/अपेक्षा नहीं रखते होंगे? हृदय पर हाथ रखकर हम अपनी अन्तरात्मा से पूछे कि हमने उनके साथ कैसा व्यवहार किया, कितनी सेवा की, उनके किन-किन अरमानों को पूरा किया, हम कितने आज्ञाकारी रहे उनके? यदि उत्तर नकारात्मक रहे तो फिर हमें भी अपने बेटों से ऐसी कोई आशा/अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। बेटे तो प्रायः माँ-बाप का ही अनुकरण करते हैं न? वे जैसा बचपन में देखते रहते हैं, वैसा ही तो सोचते हैं; क्योंकि बालकों का तो स्वभाव ही अनुकरणीय होता है।" सदासुखी के इस लम्बे भाषण ने विवेकी की जिज्ञासा को और भी अधिक जगा दिया। अतः उसने अधीर होकर कहा - "भाई सदासुखी! यह सब तो ठीक है, तुम्हारी एक-एक बात लाख-लाख की है, पर वह मूल बात तो कहो, जिसके लिए तुम यह इतनी लम्बी-चौड़ी भूमिका बना रहे हो। आखिर ऐसा क्या अनर्थ हो गया, जिसका तुम्हें इतना पश्चाताप हो रहा है?" सदासुखी ने कहा - "भाई! यह बात तो पश्चाताप जैसी है ही, साथ ही दूसरा दुःख इस बात का है कि उनके जीते-जी मुझे अपनी इतनी बड़ी भूल समझ में नहीं आई; अन्यथा मैं तभी अपने पश्चाताप के इन आँसुओं से उनके चरण पखार कर अपने उस अपराध को कुछ कम तो कर ही सकता था।" - यह कहते-कहते सदासुखी औरतों की तरह जोर-जोर से फूट-फूट कर रो पड़ा। ___ सदासुखी को अत्यधिक भावुक देखकर विवेकी ने कहा - "भाई! बीती बातों को याद कर-कर के अब इस तरह आँसू बहाने से कोई लाभ नहीं। अब तो उन बीती बातों को भूलने में ही सार हैं। (9)Page Navigation
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