Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ विदाई की बेला / २ ६ का ही रहा। पहली गलती तो मुझसे यही हुई कि मैंने अपने परिवार नियोजन पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया और एक के बाद एक करके सात संतानें हो गईं। इस कारण एक का भी न ढंग से लालन-पालन ही हो सका और न देख-रेख ही। भला कोई अकेला आदमी सात-सात संतानों को कैसे संभाल सकता है? धंधा-पानी देखे या उनकी देख-रेख करें? और घरवाली तो बेचारी घर के काम से ही नहीं निबट पाती, चूल्हे-चक्की में ही अटकी रहती है। दूसरे, मैं स्वयं भी अधिक नहीं पढ़ सका और अपनी संतानों को भी कोई विशेष पढ़ाया-लिखाया नहीं । धंधा भी चुना तो ऐसा कि जीवन भर मरने को ही फुरसत नहीं मिली। हलवाई और होटल का धंधा भी कोई धंधा है? यद्यपि इस धंधे में धरम के दूने होते हैं, पर ऐसी कमाई काम की, जिसमें हिंसा ही हिंसा हो और लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना पड़े?" सदासुखी ने पूछा- “स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कैसी?" विवेकी ने उत्तर दिया - "अरे भाई! यह धंधा ही खोटा है, जब बासी-सड़ी-बुसी मिठाई बच जाती है, तो हम लोग फिर से उसी मिठाई में कुछ ताजा मिष्टान्न मिलाकर पुनः नया रूप देकर उसे थालों में सजाकर रख देते हैं और ताजे मिष्टान्न के नाम पर उसे बेच देते हैं, महीनों का मैदाबेसन तथा सस्ते से सस्ता घटिया घी तेल वगैरह काम में लेना पड़ता है। कम्पीटिशन का जमाना है न? अतः इस पापी पेट के लिए सब उल्टेसीधे काम करने पड़ते हैं। सच पूछा जाए तो भले आदमियों के तो खाने लायक ही नहीं होती ये मिठाइयाँ; पर क्या करें? अन्य कोई उपाय भी तो नहीं । प्रातः पाँच बजे से रात्रि के ग्यारह बारह बजे तक दुकान पर इतनी कठिन ड्यूटी देनी पड़ती कि न सुबह पूजा-पाठ को समय और न शाम (8) विदाई की बेला / २ को स्वाध्याय एवं मनन-चिन्तन की फुरसत । सारा जीवन यों ही कोल्हू के बैल की तरह काम-काज में जुते-जुते निकाल दिया । ७ चाहे इसे मानवीय मनोविज्ञान कहो या मानवीय कमजोरी, पर यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अधिकांश व्यक्ति दूसरों की घटनायें सुनतेसुनते स्वयं अपने जीवन की घटनाएँ सुनाने को उत्सुक ही नहीं, आतुर तक हो उठते हैं और कभी-कभी तो भावुकतावश न कहने योग्य बातें भी कह जाते हैं, जिनसे वाद-विवाद बढ़ने की संभावना हो, झगड़े की संभावना होना, ऐसी बातें कहने से भी अपने को रोक नहीं पाते। सदासुखी के साथ भी यही हुआ। वह भी विवेकी की बातें सुनकर अपने जीवन की एक दुःखद घटना सुनाने से स्वयं को नहीं रोक सका । घटना की भूमिका बनाते हुए उसने कहा- “इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्रहित, परिवार - कल्याण और आत्मोद्धार की दृष्टि से परिवार बढ़ा लेने और आजीविका के चुनाव करने में तुम से भूल हुई है; पर पारिवारिक और आर्थिक परिस्थितियों वश ये भूलें होना अस्वाभाविक नहीं है, इनसे तुम्हें पश्चाताप और दुःख तो हो सकता है, पर ये लोकनिंद्य व दंडनीय अपराधों की श्रेणी में नहीं आतीं। भाई! मुझसे तो जीवन में एक ऐसा अक्षम्य अपराध बन गया है, जिसे स्वयं मैं भी युगों-युगों तक नहीं भूल सकूँगा और उस अपराध के लिए मेरे बेटे मुझे कितना भी कष्ट क्यों न दें, मैं उसे अपने अपराध का प्रायश्चित्त मानकर खुशी-खुशी सहता रहूँगा। बस, इसी कारण मुझ पर हो रहे अपने बेटों के दुर्व्यवहार का मुझे कोई दुःख-दर्द नहीं है। " मैं सोचता हूँ – “अच्छा हुआ, मेरे अपराध का दंड मुझे इसी जन्म में मिल रहा है। जिन लोगों ने मेरे माता-पिता की एवं मेरी दोनों पीढ़ियाँ देखीं हैं, उन्होंने मेरी इस घटना से अवश्य ही शिक्षा ली होगी। -

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78