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विदाई की बेला/१२ रूप में सम्यग्दर्शन, संन्यास एवं समाधि का संक्षिप्त सारांश बता दिया जाय।
एतदर्थ मैंने एक संक्षिप्त भाषण तैयार किया। भाषण तैयार करते समय मुझे यह विचार भी आया। “पता नहीं इनका पुनः आना बने या न बने, इनसे मेरा मिलन हो या न हो, इस क्षणभंगुर काया का क्या ठिकाना? मैं भी इस लायक रहूँ न रहूँ कि इनसे कुछ कह सकूँ । संभव है हम में से किसी के शरीर की स्थिति ही ऐसी न रहे, जिससे पुनर्मिलन हो सके। अत: भविष्य की आशा में वर्तमान को खोना कोई समझदारी की बात नहीं होगी।"
यह सोचकर मैंने उनकी 'विदाई की बेला' पर एक दीक्षांत भाषण देने की घोषणा कर दी।
घोषणा करते तो कर दी, पर भाषण का विषय क्या हो? उसका प्रस्तुतीकरण कैसे किया जाय? मेरे लिए यह एक समस्या बन गई।
चार जने बैठकर परस्पर चर्चा करना अलग बात है, और भाषण देना अलग। भाषण देना हर एक के वश की बात नहीं है। भाषण तो अपने विचारों की, अपने चिन्तन की एक कलात्मक अभिव्यक्ति है। मंच पर खड़े होकर बिना सोचे-समझे जोशीली भाषा में कुछ भी कह जाना भाषण नहीं हैं। ___ अच्छे भाषण के लिए पूर्वाग्रह से रहित किसी निर्धारित विषय पर, गंभीरतापूर्वक, सुविचारित, व्यवस्थित विचारों को विषय के अनुरूप भाषा देना अत्यावश्यक है।
विषय के सही संप्रेषण के लिए भाषा का सरल, सुबोध, परिमार्जित और देश-काल के अनुरूप होना भी आवश्यक है।
मेरा सोचना था कि कितना भी परिश्रम क्यों न करना पड़े पर श्रोताओं को पूरा-पूरा लाभ मिलना चाहिए। यह सोचकर मैं लिखित भाषण बोलने की तैयारी में जुट गया।
विदाई की बेला/१२
मैंने सुन रखा था कि “लेखकों को जब तक फाडू रोग नहीं लगता, तब-तक वे सफल लेखक नहीं बन पाते। इस फाडू रोग की भी एक रोमांचक कहानी है - एक व्यक्ति लेखक बनने की धुन में रात में दो-दो बजे तक लेख लिखता और प्रातः उठकर जब वह स्वस्थ चित्त में - फ्रेस माइन्ड में अपने ही लिखे लेखों को पढ़ता तो स्वयं के लिखे लेख स्वयं को ही पसंद नहीं आते और वह उन्हें फाड़ कर फैंक देता।
ऐसा करते हुए जब उसे कई दिन हो गये तो उसके माता-पिता को चिन्ता हुई कि इसे यह क्या हो गया है? यह रोज देर रात तक जागजागकर इतने परिश्रम से तो लिखता है और सवेरे पढ़कर स्वयं ही सब फाड़कर फैंक देता है। इसे जरूर कोई मानसिक रोग हुआ है।
वे घबराये और उसे एक मनोचिकित्सक के पास ले गये। उन्होंने उसका हाल सुनाते हुए कहा - डाक्टर साहब! इसे फाडू रोग' हो गया
चिकित्सक उसके लक्षणों से सब कुछ समझ गया। उसने कहा - "भाई! वैसे तो यह रोग सभी उदीयमान लेखकों को होता है और होना ही चाहिए, अन्यथा लेखक नहीं बना जा सकता। फिर भी यदि आपको इष्ट न हो तो इसकी रामबाण औषधि भी मेरे पास है।
उसके माता-पिता ने कहा - "रोग तो कोई भी भला नहीं होता। आप तो इसका उपचार कर ही दीजिए।"
चिकित्सक ने कहा - "ठीक है, आप लोग, इसे प्रतिदिन प्रातः शाम भैंस का दूध पिलाया करो और भैंस का ही दहि खिलाया करो। सायंकाल भैंस के दूध-घी से बने तथा नाना प्रकार के मधुर व्यंजन भी खूब मना-मना कर खिलाया करो। इस तरह स्वादिष्ट गरिष्ठ भरपेट भोजन कराने से कुछ ही दिनों में इसका यह रोग ठीक हो जायेगा।"
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