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विदाई की बेला/१२ सभी अपने को अपने-अपने कामों में व्यस्त रखते; जब किसी को मरने की फुरसत ही नहीं मिलती तो भला कोई मरता ही क्यों!
सदासुखी व विवेकी का भी यह सौभाग्य ही था कि उस पहाड़ी क्षेत्र में जहाँ वे रहते थे, वर्षाऋतु में दो-तीन माह तक पानी कुछ अधिक ही बरसता था। इसकारण उन दिनों वहाँ कुछ दिनों तक पर्यटकों का आवागमन पूरी तरह बंद रहने से व्यापारियों को व्यापार से फुरसत ही फुरसत रहती थी। अतः उन्होंने यही दो माह का समय सपरिवार धर्म लाभ के लिए चुना।
सपरिवार आने के कारण यद्यपि उन्होंने यहाँ केवल दो माह ठहरने का ही संकल्प किया था, पर इस दौरान उन्हें ऐसा लगा कि इस आशातीत धर्मलाभ को छोड़कर, सतत प्रवाहित ज्ञानगंगा की अमृतमय मधुर धारा को छोड़कर फिर राग की आग में जलने के लिए घर जाना ठीक नहीं है। ऐसे दुर्लभ संयोग भी तो सातिशय पुण्य के योग से ही मिलते हैं। इस धर्म लाभ को अभी तो किसी कीमत पर छोड़ना ही नहीं है। भविष्य में भी वर्ष में कम से कम दो तीन माह का समय अवश्य ही निकाला करेंगे।"
तब से वे अपने संकल्प के अनुसार प्रतिवर्ष मेरे पास आते रहे और चार-चार माह रह कर तत्त्वाभ्यास करते रहे।
इस बीच उन्होंने मोक्षमार्ग प्रकाशक को तो आद्योपांत अनेक बार पढ़ा ही; समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि अनेक छोटे-बड़े ग्रंथों का भी उन्होंने सूक्ष्मदृष्टि से स्वाध्याय किया।
इनके सिवाय वे विविध कवियों की बारहभावनाओं का तथा वैराग्यभावना, छहढाला, कुन्दकुन्दशतक, शुद्धात्मशतक, जैनशतक और नाटकसमयसार का नियमित रूप से पारायण (पाठ) भी किया करते थे, इससे ये तो उन्हें कंठस्थ ही हो गये थे।
जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धांत वस्तुस्वातंत्र्य, भेदविज्ञान, क्रमबद्धपर्याय, सर्वज्ञता, पुण्य-पाप, निमित्तोपादान, निश्चय-व्यवहार, अनेकांत-स्याद्वाद
विदाई की बेला/१२ चार अभाव, पाँच समवाय, षट्कारक आदि विषयों पर गंभीर चर्चा करके अपनी सम्यक् श्रद्धा को दृढ़ करके कर्त्तव्य के भार से निर्भार होकर निराकुल रहते और आत्मसम्मुख होने का अपूर्व पुरुषार्थ भी किया करते।
उनका मानना व कहना था कि “यही सुखी होने का सच्चा उपाय है और यही जीवन जीने की सही कला है।" जिसने इस विधि से जीवन जीना सीख लिया है, उसी का मरण समाधिपूर्वक हो सकता है।
सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की पृष्ठभूमि कैसी होती है, इस पर न केवल उन्होंने चर्चा की, बल्कि अपने जीवन को वैसा ही जीने का प्रयत्न भी किया। चर्चा को चर्या में बदलने का पुरुषार्थ भी किया। ऐसा करके उन्होंने महसूस किया कि वस्तुतः जैनदर्शन और कुछ नहीं, मात्र सुखद जीवन जीने की अद्भुत कला है। "जो जैनदर्शन के अनुसार जीवन जीना सीख लेता है, वह वर्तमान में तो पूर्ण निराकुल, अत्यन्त शांत और पूर्ण सुखी रहता ही है, उसका अनंत भविष्य भी पूर्ण सुखमय, अतीन्द्रिय आनंदमय हो जाता है।"
चार माह तक सतत लाभ मिलने पर भी विवेकी व सदासुखी का मन अभी भी नहीं भरा था। तत्त्वज्ञान की तो प्यास ही कुछ ऐसी होती है, जो जल्दी नहीं बुझती। पर गृहस्थावस्था में रहते हुए अपने घर-परिवार की भी तो अधिक उपेक्षा नहीं की जा सकती। तथा ये लोग अपने परिजन-पुरजनों को भी धार्मिक संस्कार देना चाहते थे, जो उचित भी था; क्योंकि जिनको जो वस्तु अधिक प्रिय प्रतीत होती है, हितकर लगती है, वह अपने प्रियजनों को भी भरपूर बाँट देना चाहते हैं। अतः वे घर से पूर्णनिर्वृत्त होने पर भी कुछ समय अपने परिजन-पुरजनों के साथ रहकर उन्हें भी तत्त्वज्ञान का लाभ दिया करते थे।
इस बार जब उन्होंने घर जाने का कार्यक्रम बनाया तो मुझे यह विचार आया कि क्यों न इन्हें जाते-जाते एक बार पुनः जैनदर्शन के निचोड़ के
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