Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 67
________________ १२४ विदाई की बेला/१६ तीनों लोकों का संपूर्ण अन्न खाने पर भी भूख नहीं मिट सकती और एक दाना अन्न का मिलता नहीं। आप जो कमरे में अंधेरे व गर्मी की बात करते हो, डांस-मच्छरों की बात करते हो, सो भाई! इस मकान के लगभग सभी कमरे ऐसे ही हैं, पुराने जमाने का बना है न? हम तो यह सोचकर संतोष रखते हैं कि हम अनेक बार चूहे व साँप बनकर बिलों में भी तो रहे हैं, वहाँ कौन से वेन्टीलेशन या खुली खिड़कियाँ थी। और जब मच्छर काटते हैं तब समाधिमरण पाठ की वे पंक्तियाँ स्मरण कर लेते हैं, जिनमें सुकुमारगजकुमार आदि अनेक मुनिराजों का उल्लेख किया गया है। सुख-शान्ति व निराकुलता से रहने का यही एक मात्र उपाय है। आप ही ने तो बताया था कि निराकुल रहने के लिए परिस्थितियों को पलटने की अनधिकार चेष्टा करने के बजाय वस्तुस्वरूप का विचार करके अपने परिणामों को पलट लेने का बहुत सीधा व सरल उपाय जिनागम में है। यह महामंत्र हम आप ही से तो सीखे हैं।" विवेकी के ये विचार सुनकर मुझे विचार आया कि - "धन्य है इसकी धार्मिक श्रद्धा को, सहनशीलता और सहिष्णुता को।" इतनी प्रतिकूल परिस्थितियाँ होते हुए भी मैंने उसके माथे पर कभी सलवट नहीं देखी। मैंने उसे इस बीच सदा प्रसन्न, शांत और हंसमुख मुद्रा में ही देखा है। जैसे-जैसे मित्रों, परिचितों और रिश्तेदारों को उसकी बीमारी का पता चलता तो सामान्य व्यवहार निभाने के नाते लोग मिलने तो आते, पर रोगी के दुःखदर्द में हाथ बटाने का, उसे जिनवाणी के दो शब्द सुनाने का अथवा उसकी पीड़ा को सुनने का किसी के पास समय नहीं होता। आये नहीं कि जाने की सोचने लगते । दस मिनट में तो उनकी दो-चार बार घडी पर दृष्टि चली जाती है। ___ मैं विवेकी के पास बैठा-बैठा आगंतुकों का यही दृश्य देखता रहता। मुझे उनके उस व्यवहार से ऐसा महसूस होता था कि आज के इस मशीनी विदाई की बेला/१६ १२५ युग में मनुष्य भी मशीन की तरह हृदयहीन हो गया है। सहानुभूति केवल शब्दों तक ही सीमित रह गई है। आनेवाला प्रत्येक व्यक्ति बड़े विनम्र भाव से हाथ जोड़कर कहता है कि - "हमारे लायक यदि कोई सेवा हो तो अवश्य बताइए।" पर मरीज उसके लायक उसे कोई सेवा बताये, उसके पहले ही उसकी सुनी-अनसुनी करते हुए 'अच्छा तो चलूं जरा,..' कहकर आंधी की तरह आता और तूफान की तरह चला जाता, उसे कुछ सुनने की न फुरसत ही है और न जरूरत ही। ____ मैं लोगों का अत्यन्त औपचारिक व्यवहार और विवेकी की सहिष्णुता देख-देख कर हैरान हो रहा था। मैं सोचता था कि “यदि विवेकी के पास आज तत्त्वज्ञान का बल नहीं होता, और इस विदाई की बेला में, इन सब परिस्थितियों को ज्ञातादृष्टा भाव से जानने-देखने की सामर्थ्य न होती तो क्या होता? यह तो तत्त्वाभ्यास का ही चमत्कार है, जो यह जिन्दा है; अन्यथा अज्ञानी तो आत्मघात ही कर लेता। अनेक भुक्तभोगी व्यक्ति उसके इस धैर्य की, सहनशीलता व सहिष्णुता की प्रशंसा भी करते, आश्चर्य भी प्रगट करते; पर विवेकी न तो प्रतिकूलता में परेशान दिखाई देता और न प्रशंसा में हर्षित ही होता । साम्यभाव से सब कुछ सहते हुए पूर्व में पढ़े-सुने हुए तत्त्वज्ञान के चिन्तन मनन में ही अपने उपयोग को एकाग्र करने का प्रयत्न करता रहता। विवेकी की देह की दयनीय दशा और उनके चिन्तन के अनुकरणीय आदर्श को देखकर भावुकतावश मेरी आँखें अनेक बार गीली हुईं। मेरी पत्नी भी मेरे आँसुओं के साथ अपने आँसू बहा रही थी। मित्र के अनुराग में जब मैं ही मात खा गया तो नारी तो आखिर में नारी ही है न! वह तो स्वभाव से ही भावुक और कोमल हृदय होती है। हम दोनों को अपने निकट पाकर विवेकी बहुत प्रसन्न था। उसे आशा थी कि समाचार मिलते ही मैं उसकी इस अन्तिम विदाई की मंगल (67)

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