Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 68
________________ विदाई की बेला/१६ १२७ १२६ विदाई की बेला/१६ बेला में उसके पास अवश्य पहुंचूँगा और उसे अंतिम समय में संबोधित करूँगा। पर यह उसका बड़प्पन था । वह अपने आप में इतना अधिक सजग व सावधान था कि अब उसे किसी के संबोधन की आवश्यकता ही नहीं थी।" विवेकी ने निवेदन किया कि - "यद्यपि मैंने अपने रोग को असाध्य मानकर भक्तप्रत्याख्यान नामक व्रत लेने का संकल्प कर लिया है, पर जब आप आ ही गये हैं तो कृपया इसकी विस्तृत जानकारी देकर मेरी धारणा को दृढ़ करने का कष्ट करें।" ___ मैंने भक्त प्रत्याख्यान का स्वरूप समझाते हुए बताया - "भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना में ऐसी प्रतिज्ञा ली जाती है कि - मैं समस्त पापारंभ सावद्य से विरक्त होकर, पाँचों पापों का त्याग करके मन-वचनकाय व कृत-कारित-अनुमोदनापूर्वक विषय-कषाय की रुचि, शोक, भय, अवसाद, अरति आदि कलुश-पाप परिणामों का भी त्याग करके अपने आत्मा में स्थिर होता हूँ। समाधिधारक का मूल प्रतिज्ञा वाक्य इसप्रकार हैं - 'अहं सर्वसावध विरतोऽस्मि भक्त प्रत्याख्यान समाधिमरण अवधारयामि।' 'भक्त' शब्द का अर्थ है आहार और प्रत्याख्यान' शब्द का अर्थ होता है त्याग । इसप्रकार भक्तप्रत्याख्यान का अर्थ है - ‘आहार को कम क्रमक्रमसे त्याग कर देह को कृश करना तथा व्रत-नियम-संयम द्वारा कषायों को कुश करके देह त्यागना।' दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी शारीरिक शक्ति प्रमाण और आयु की स्थिति प्रमाण आहार को घटाकर दूध आदि पेय पीना, फिर क्रम से दूधादि पेय पदार्थों का भी त्याग करके अपनी शक्ति प्रमाण उपवासादि करके आत्मा व परमात्मा के ध्यानपूर्वक विषय-कषायों को कृश करते हुए देह को त्यागना भक्त प्रत्याख्यान समाधि है।' ___ इसका उत्कृष्ट काल बारह वर्ष और जघन्यकाल अन्तमुहूंत प्रमाण हैं, इन दोनों के बीच का काल मध्यम है। सल्लेखना का धारक पुरुष अपने बाह्याभ्यन्तर बल एवं परिणामों को जानकर विषय-कषायों के त्यागपूर्वक शरीरादि बाह्य संयोगों एवं आहारादि का क्रमशः त्याग करता है । तथा जगत के सब प्राणियों के साथ जाने-अनजाने में हुए अपराधों के प्रति हित-मित-प्रिय वचनों के द्वारा क्षमा मांगता हुआ स्वयं भी क्षमाभाव धारण करता है। ___ इस समाधिमरण में ऐसी प्रतिज्ञा ली जाती है कि यदि उपसर्ग, दुर्भिक्ष या रोग आदि भाव से निवारण हो जायेगा तो आहार ग्रहण करूँगा, अन्यथा मरणपर्यन्त अन्नादि आहार का सर्वथा त्याग तो है ही।" इसी उपर्युक्त कथन के अनुसार विवेकी ने संकल्प कर लिया था कि "मैं सर्वपापों का त्याग करता हूँ, मेरा सब जीवों में समता भाव है, किसी के साथ वैर-विरोध नहीं है, मैं सर्व विघ्न-बाधाओं को छोड़कर समाधि ग्रहण करता हूँ, कषाय रहित होने का प्रयत्न करता हूँ तथा स्वरूप में एकाग्रता करके उसी में जमने-रमने का संकल्प करता हूँ। ___ मैं आहार संज्ञा का, संपूर्ण आशाओं का और ममत्वभाव का त्याग करता हूँ तथा क्रमशः अन्नाहार का त्याग कर क्रम-क्रम से दुग्धाहार एवं उष्ण जलपान पर रहूँगा, फिर दुग्धाहार का भी त्याग करके तत्त्वज्ञान के बल पर कषायों को कृश करते हुए देह का त्याग कर दूंगा। - ऐसा संकल्प करके विवेकी समाधि की साधना करने की तैयारी करने लगा। "कोई कितना भी रागी-द्वेषी या वैरागी क्यों न हो; पर जीवन की अन्तिम घड़ियों में चिरविदाई की मंगलबेला में तो प्रायः सभी के अंदर अपने परिजनों एवं सगे-संबंधियों से मिलने, उन्हें संबोधन करने, समझाने तथा उनके प्रति हुए अपने अपराधों की क्षमा याचना करने-कराने की भावना जागृत हो ही जाती है।" (68)

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