Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 62
________________ ११४ विदाई की बेला/१५ धैर्य से सहन करना सीखना चाहिए। ताकि पूर्वबद्ध कर्म खिर जावें और नवीन कर्मबंध न हो।" यह ज्ञानपरक चर्चा सुनकर विवेकी बहुत प्रसन्न हुआ तथा और भी जो उपसर्ग विजेता समाधि में सफल रहे, उनके बारे में भी जानने की जिज्ञासा प्रगट की, परन्तु उस समय मुझे फुर्सत भी नहीं थी और वे भी घर वापिस जाने की जल्दी में थे। अतः मैंने उन्हें अन्य पुराण प्रसिद्ध सुकौशल, राजकुमार, सनतकुमार, पाँचों पांडव आदि अनेक महान उपसर्गजयी मुनिराजों का नामोल्लेख करते हुए इनके जीवनचरित्रों एवं पुराणों को पढ़ने की प्रेरणा देकर उस दिन के अन्तिम वक्तव्य से विराम ले लिया। सदासुखी व विवेकी अपनी मित्र-मण्डली के साथ अपने घर वापिस चले तो गये, पर उनके आये दिन आने वाले पत्रों से ऐसा लगता था कि उनके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो रहा है। प्रथम पत्र में ही उन्होंने लिखा ता कि उन्होंने घर पहुँचते ही उन सभी समाधि साधक महान तपस्वियों के जीवन चरित्रों को आद्योपांत पढ़ लिया है, जिनको पढ़ने की प्रेरणा मैंने दी थी। यह जानकर मुझे भारी प्रसन्नता हुई, मेरे हर्ष का ठिकाना न रहा। मैंने भावना भायी सभी जीव इसी प्रकार सन्मार्ग में लगाकर अपना कल्याण करें। स्त्री-पुरुष-कुटुम्ब-परिवार के प्रति हुआ अनुराग तो दुःखद होता ही है, पर धर्मानुराग भी कम कष्टकारक नहीं होता। सदासुखी व विवेकी से मेरा धर्मानुराग के सिवाय और संबंध ही क्या था? कुछ भी नहीं। पर, जब से सदासुखी की चिट्ठी से विवेकी के बीमार होने का समाचार ज्ञात हुआ, तभी से पता नहीं क्यों, मेरा मन भारी-भारी हो गया। मैं स्वयं को सहज व सामान्य स्थिति में नहीं रख पाया। साधर्मी वात्सल्य में भी इतना गहरा आघात लग सकता है, इसका मुझे उस दिन पहली बार अनुभव हुआ। सदासुखी का पत्र पढ़ते-पढ़ते पहले तो मैं उसकी याद में ऐसा खो गया कि अन्य कुछ सुध-बुध ही न रही। फिर उसके विषय में मन ही मन अन्तर्जल्प करते-करते पता नहीं कब/कैसे मैं जोर-जोर से बोलने लगा, ऊँची आवाज में कहने लगा कि - "सर्वज्ञ भगवान के सिवाय कोई नहीं जानता कि - किसको/कब/क्या हो जाए? बेचारा यहाँ से भला-चंगा गया था। अभी उसे गये पूरे दो सप्ताह भी नहीं हुए कि यह अनर्थ हो गया।" __ अन्दर से मेरी श्रीमतीजी की आवाज आई - "अरे! वहाँ अकेले बैठे-बैठे किससे-क्या कह रहे हो? इतने जोर-जोर से क्या दीवारों से बातें कर रहे हो? अरे! किसको/क्या हो गया? मैं भी तो सुनूं! किसके बारे में कह रहे हो? मेरे भैया को तो नहीं हो गया कुछ? ले-देकर एक ही तो मेरा भाई है और वह भी ...... । खैर! जैसा भी है ........।" कहते-कहते उसका गला भर आया और आँखों में आँसू झलक आए। जीना सीखाने की कला मैं एक शाश्वत सत्य हूँ, ध्रुव-धाम हूँ चैतन्यमय। मैं हूँ अनादि-अनंत जब, तब क्यों सतावे मृत्यु भय।। बोधि-समाधि द्वार है, निजरूप पाने की कला। संन्यास और समाधि है, जीना सीखाने की कला॥ - रतनचंद भारिल्ल (62)

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