Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 63
________________ विदाई की बेला/१६ उसको समझा-समझा कर कैसे थक गए थे, पर उसने उनकी भी कहाँ सुनी? ११६ विदाई की बेला/१६ मैंने कहा - “नहीं, महाभाग! दुःखी न होइए। तुम्हारे प्यारे भाई को कुछ नहीं हुआ, उसे हो भी क्या सकता है? लोगों की मौत जिसकी मुट्ठी में हो, वह जब/जिसको मृत्युलोक भेजना चाहे भेज सकता हो, भला उसको क्या हो सकता है? उसकी बड़बोली बातों से तो ऐसा लगता है मानो वह अमरता का पट्टा लिखाकर ही आया है। पर ध्यान रहे, इस संसार में अमर भी अमर नहीं होते। एक न एक दिन तो उन्हें भी भगवान का प्यारा होना ही पड़ता है, मौत के शिकंजे से कोई नहीं बच सकता। अरे! यहाँ आँसू बहाने के बजाय एक बार वहाँ जाकर उस भले आदमी से कहो कि कभी भूले-भटके भगवान का नाम तो ले ही लिया करे। उसके लिए तो आजकल पैसा ही परमेश्वर बन बैठा है। दिन-रात पेट के नाम पर पेटी भरने के चक्कर में ही पड़ा रहता है। न नीति-अनीति का ख्याल, न सच-झूठ का ठिकाना। नेतागिरी के नाम पर दादागिरी करता है, सो अलग। दया नाम की वस्तु तो उसके पास है ही नहीं। शायद वह समझता है, उसकी दादागिरी से यमराज भी डर जाएगा, पर ऐसा नहीं होगा। जिस दिन मौत का पैगाम आ जाएगा, यह सब कुछ यही ऐसे ही छोड़कर सदा-सदा के लिए चला जाना होगा। केवल भलीबुरी करनी ही उसके साथ जाएगी। जिसका नतीजा नरक निगोद में जाकर भोगना पड़ेगा। अतः उसे समझाओ कि वह इन सब धंधों को छोड़कर थोड़ा धरम-करम में ध्यान लगाए। पैसे की क्या कमी है उसके पास? पर वह आदत से मजबूर है। जितना वह ऊपर से धौला (सफेद) रहता है, उतना ही अन्दर से काला है। उसने तो गाँधी टोपी को कलंकित ही कर दिया है। उसने राजनैतिक नेतागिरी के नाम पर दादागिरी की दुकान चला रखी है।" पत्नी पुनः बोली : “तुम उसके लिए इतने परेशान न हुआ करो। वह इस जनम में तो सुधर नहीं सकता। क्या तुम्हें पता नहीं, पिताजी __ तुम एक ओर तो सबको यह समझाते-समझाते नहीं थकते कि - कोई किसी का भला-बुरा नहीं कर सकता और दूसरी ओर भला करने का इतना तीव्र विकल्प? अरे ! छोड़ो भी उस नालायक की चर्चाएँ। मुझे तो उसकी चर्चा से भी चिढ़ होने लगी है।" ____ मैंने कहा - "भागवान! तुम्हारे उस इकलौते भैया की चर्चा मैंने छेड़ी थी या तुमने? तुम्हीं तो मेरी धूमिल स्मृति के घावों को हरा-भरा करती हो और जब मेरा मन भड़क उठता है तो तुम ही उसकी चर्चा छोड़ने को कहने लगती हो । ठीक है, छोड़ देता हूँ, पर क्या करूँ, अपनापन होने से कभी-कभी यह विकल्प आ जाता है कि - काश! वह सन्मार्ग पर आ जाता तो उसका मानव जीवन सार्थक हो जाता।" पत्नी भावुक होकर बोली - “आप ठीक कहते हो, राग का स्वरूप ही कुछ ऐसा है जो आप जैसे ज्ञानियों को भी कभी-कभी विचलित कर देता है तो हम तो बिसात ही क्या हैं? बहिन होने के नाते मुझे भी कभीकभी उसका राग बहुत ही परेशान कर देता है, मेरी तो कई रातें उसके विकल्प में खराब हो जाती हैं, रात-रात भर नींद नहीं आती। यह कहतेकहते पत्नी की आँखें डबडबा आईं।" आँसू पोंछते हुए उसने कहा – “एक बार आपने यह भी तो कहा था कि जो कुकर्म करने में जितना शूरवीर-दुस्साहसी होता है, यदि वह सुलट जावे तो धर्म के क्षेत्र में भी वह वैसा ही शूरवीरपना दिखा सकता है, धर्म के क्षेत्र में भी उतना ही सफल सिद्ध हो सकता है। संभव है आपका विकल्प कभी सार्थक हो जावे और यह भी हो सकता है कि उसका भविष्य उज्ज्वल बनना हो, इसी कारण आपको उसके प्रति ऐसी करुणा आती हो। मैं तो यही कामना करती हूँ कि आपका विकल्प सार्थक हो जावे।" (65)

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