Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 57
________________ १०४ विदाई की बेला/१५ बन जाय? वह नहीं चाहती थी कि मेरा बेटा भी साधु बने । जबकि उसी भविष्यवाणी के अनुसार मुनि यशोभद्र की वाणी सुनते ही सुकुमाल का साधु हो जाना भी निश्चित था, पर पुत्रव्यामोह में उसकी माँ सुभद्रा को उस भविष्यवाणी पर पूरा विश्वास नहीं हो पा रहा था । वह संशय के झूले में झूल रही थी। इस कारण वह अपने इकलौते पुत्र सुकुमाल के प्रति और भी अधिक संशकित हो उठी थी। उसे डर था कि कहीं पिता की परछायीं पुत्र पर भी न पड़ जाये और वह भी साधु बनकर कहीं उन्हीं की राह पर न चला जाये? उसके बारे में की गई भविष्यवाणी भी सही न हो जाये? सुभद्रा का सोचना ठीक ही था, उसकी चिन्ता भी स्वाभाविक ही थी, क्योंकि दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है। अतः उसने सुकुमाल को साधु-संतों के प्रभाव से बचाये रखने के लिए भी अनेक उपाय किए। अपने सभी पहरेदारों को पूर्ण सावधान करते हुए कठोर आदेश दिए। “ध्यान रहे, किसी भी साधु का इस महल के आस-पास आवागमन न हो।" स्वयं ने भी साधुओं को आहार के लिए पड़गाहन करना, आमंत्रित करना सर्वथा बंद कर दिया । दूर-दूर तक महल के चारों ओर भी कड़ा पहरा लगा दिया, ताकि कोई साधु उस मुहल्ले में ही न आ सके। पर होनहार तो कुछ और ही थी, तदनुसार सारे कारण-कलाप मिलते चले गये। सुभद्रा के द्वारा की गई इस कार्यवाही के पहले से ही उसी के सगे भाई मुनिराज यशोभद्र उसके महल की सीमा से थोड़ी दूरी पर एक उपवन में ठहरे हुए थे। तथा उन्होंने वहीं पर अपना चातुर्मास भी स्थापित कर लिया था। सुभद्रा के न चाहते हुए भी यह सब उसके अनजाने में सहज हो गया था। जब सुभद्रा को यह ध्यान आया कि अरे! मुनिराज यशोभद्र का चौमासा तो इसी नगर में हो रहा है, और वह भी महल के पीछे के उपवन में ही। इससे वह घबड़ा गई, चिन्तित हो उठी और दौड़ी-दौड़ी उनके विदाई की बेला/१५ पास पहुँची। मुनिराज की वंदना कर नारी की मर्यादा के अनुसार उनसे सात हाथ दूर बैठ गई। जैसे ही मुनिराज की प्रश्नसूचक दृष्टि उसकी ओर मुड़ी तो उसने कहा - स्वामिन्! आप तो स्वयं निमित्तज्ञानी हैं, भविष्यद्रष्टा हैं, और माँ की ममता को भी आप अच्छी तरह जानते हैं। कहीं ऐसा न हो कि मैं पति की तरह पुत्र को भी खो बै? मेरे पतिदेव सेठ सुरेन्द्रदत्त तो संन्यासी बनकर वनवासी हो ही गये हैं। उनके वियोग का मुझे अपार दुःख है, पर पुत्रानुराग वश पुत्र के सहारे पतिदेव के वियोगजनित असह्य दुःख को तो मैंने जैसे-तैसे सह लिया, परन्तु पुत्र के वियोग का दुःख मैं न सह सकूँगी। अतः आप मुझ दुःखिनी पर इतनी कृपा अवश्य करें कि आपके उपदेश या श्लोक पाठ आदि की आवाज मेरे महल तक न पहुँचे। निमित्त ज्ञानियों के कथनानुसार जिस दिन मेरे पुत्र के कान में किसी भी साधु के वचन पड़ जायेंगे, उसी दिन वह विरागी होकर वनवासी बन जायेगा। हे स्वामी! आप भी अपने दिव्यज्ञान में यह अच्छी तरह जानते हैं कि मेरा पुत्र अत्यन्त सुकुमार है। वह रत्नों की ज्योति में तो रहता है, कमल पुष्पों से सुगंधित तंदुलों का सरस भोजन करता है, मखमल पर चलता-फिरता है, उसे सूर्य का प्रकाश सुहाता नहीं, रूखा-सूखा भोजन भाता नहीं, राई के दाने जैसे सूक्ष्म रजकण भी उसके चरणों में चुभते हैं। भला ऐसा सुकुमार बालक वनवासी होकर साधु-जीवन की कठोर साधना कैसे कर पायेगा? नंगे पाँव कंटकाकीर्ण ऊबड़-खाबड़ मार्गों पर कैसे गमन कर सकेगा? सर्दी, गर्मी एवं भूख-प्यास की असह्य वेदना कैसे सहेगा? भयंकर उपसर्गों को कैसे झेल सकेगा? खून के प्यासे डांस-मच्छर और मांसभक्षी हिंसक पशुओं के प्राणलेवा उपद्रवों का सामना कैसे कर सकेगा? और मैं भी उसके वियोगजनित दुःख को सहने की शक्ति कहाँ से लाऊँगी? हे स्वामिन! मैं उसके मोह में पागल हो जाऊँगी। मुझमें उसके वियोग को सहने की शक्ति नहीं है। अतः मेरी यही एकमात्र विनम्र प्रार्थना है कि

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