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विदाई की बेला/१५
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तुम मेरे भानजे कैसे हो सकते हो? फिर भी जब तुम आ ही गये और पढ़ना चाहते हो तो मैं तुम्हें पढ़ा दूंगा, पर तुम्हारे खाने-पीने की व्यवस्था तुम्हें स्वयं भिक्षावृत्ति से करनी पड़ेगी तथा मेरी आज्ञा का अक्षरशः पालन करना होगा।
यद्यपि उनके मामा यशोभद्र को किसी भी विद्याप्रेमी शिष्य को अपने पास रखने में कोई असुविधा नहीं थी, फिर सगे भानजों को अपने पास न रखने का तो प्रश्न ही क्या था? और वह भी पढ़ाने के लिए। जैसे अपने बेटे वैसे ही बहिन के बेटे; पर यशोभद्र को यह भली-भाँति पता था कि ये दोनों माता-पिता के लाड़-प्यार में ही बिगड़े हैं। अतः उन्होंने सोचा - “माँ-बाप की डाँट-डपट तो बेटे एकबार सह भी ले पर मामा का रिश्ता तो बहुत ही नाजुक होता है। माँ से मामा में द्विगुणित स्नेह की मात्रा होती है। देखो न! 'मामा' शब्द में ही दो माँ हैं न?अतः उन्हें पढ़ाने के लिए कुछ दिनों को मुझे मामा का ममत्व तो त्यागना ही होगा।"
यह सोचकर उन्होंने निर्मम होकर कहा - "सोच लो भाई! तुम चाहोगे तो मैं मात्र पढ़ाने की व्यवस्था कर सकता हूँ, भोजन आदि की व्यवस्था तुम्हें स्वयं भिक्षावृत्ति से करनी होगी।"
अग्निभूत व वायुभूत बहुत परेशान थे, अतः उन्होंने गुरुजी की सब शर्ते स्वीकार करली और अध्ययन करने लगे।
जब वे पढ़-लिखकर अपनी पुरोहिताई विद्या में निपुण हो गये और गुरु से विदाई लेकर घर वापिस जाने लगे तो गुरुजी ने अपने दीक्षांत भाषण में रिश्ते का असली रहस्य उद्घाटित करते हुए उनसे कहा कि - "संभवतः अब तुम समझ गये होगे कि उस समय मैंने तुम्हें अपना भानजा मानने से क्यों इंकार किया था? बहुत कुछ संभव था कि जिस कारण तुम माता-पिता के पास नहीं पढ़ सके, उन्हीं कारणों से यहाँ भी पढ़ने से वंचित रह जाते।"
यह बात सुनकर बड़े भाई अग्निभूत ने तो गुरु मामा का बहुत भारी उपकार माना और कृतज्ञता का भाव प्रगट किया; पर वायुभूत जो स्वभाव
विदाई की बेला/१५ से ही अहंकारी, दुष्ट व कृतघ्नी था, उसने उपकार न मानकर उल्टा क्रोध प्रगट किया और नाराज होकर वहाँ से घर चला गया।
वायुभूत ने अपने दुराचार के कारण अल्पायु के साथ थोड़े ही काल में कूकरी, सूकरी व चंडालनी आदि की नाना योनियों में जन्म-मरण के दुःख उठाते हुए नागशर्मा ब्राह्मण के यहाँ नागश्री नामक कन्या के रूप में जन्म लिया और वहाँ जैन साधु के संपर्क में आने से उसका जीवन सुधरना प्रारंभ हुआ। ___ वायुभूत की पयार्य में नागश्री के जीव ने जिन मामा (गुरु) यशोभद्र से विद्यार्जन की थी, संयोग से नागश्री की दिगम्बर साधु के रूप में उन्हीं से पुनः भेंट हो गई। नागश्री को देखते ही यशोभद्र मुनि ने अपने निमित्त ज्ञान से उसके पूर्व भव जान लिए और करुणा कर उसे भेदज्ञान कराने के साथ पंचाणुव्रत भी दे दिये। जिनका उसने दृढ़ता से पालन करते हुए पाप कर्मों का क्षय किया और वही नागश्री का जीव आगे चलकर सुकुमाल हुई।
इस तरह हम देखते हैं कि यशोभद्र मुनि ने वायुभूत की पर्याय से लेकर सुकुमाल की पर्याय तक इस जीव को तीन-तीन बार ज्ञानदान देकर सन्मार्ग पर लगाया । सो ठीक ही है जिसकी होनहार भली होती है उसे निमित्त तो मिल ही जाते हैं।
____ अग्निभूत भरे यौवन से मुनि हो गये तो उनकी पत्नी का उनके वियोग में दुःखी होना स्वाभाविक ही था। मोह की महिमा ही कुछ ऐसी है उसके कारण अज्ञानी जीवों को अपने हित-अहित का कुछ भी विवेक नहीं रहता।
मोही जीवों को किसी कार्य के असली कारण का पता तो होता नहीं है। वे तो निमित्तों पर ही दोषारोपण किया करते हैं और बिना कारण उन पर राग-द्वेष किया करते हैं। ____ यही स्थिति अग्निभूत की पत्नी की थी। वह अपने पति के संन्यासी होने का कारण अपने देवर वायुभूत को मान रही थी। अतः वह वायुभूत
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