Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 50
________________ विदाई की बेला/१३ के सहारे उपशांत कर लेते हैं, उस द्वन्द्व पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। उस विजय के हर्ष में ही उनकी वह मृत्यु महोत्सव बन जाती है। वह जानता है कि मृत्यु तो सभी की एक न एक दिन होने वाली ही है। इस ध्रुवसत्य से तो कोई कभी इंकार ही नहीं कर सकता। जिन्होंने जन्म लिया है, उन्हें आज नहीं तो कल - कभी न कभी तो मरना ही है और जिनका संयोग हुआ है, उनका वियोग भी अवश्य होना ही है। इस स्थिति को कोई भी टाल नहीं सकता। तो क्यों न हम वह क्षण आने के पूर्व ही दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों की तथा दूसरों पर अपने अधिकारों की समीक्षा करलें, कर्त्तव्यों एवं अधिकारों की यथार्थता को अच्छी तरह समझ लें; ताकि बाद में किसी को कोई पछतावा न रहे। आज तक हम मुख्यतः इन्हीं दो बातों से सर्वाधिक प्रभावित रहे हैं। हम अपने अज्ञान से अब तक ऐसा मान बैठे थे कि परिवार का पालनपोषण करना, उन्हें पढ़ा-लिखा कर चतुर बनाना और उन सबके लिए जैसे भी हो वैसे धनार्जन करना हमारे प्रमुख कर्तव्य हैं। इसके बदले में कुटुम्ब-परिवार हमारी भरपूर सेवा करें, हमारी आज्ञा में रहे, जैसा हम कहें वही करें - यही हमारा उन पर अधिकार है।' इन कर्तव्यों एवं अधिकारों की अनधिकार चेष्टाओं से हम अब तक परेशान रहे हैं, पर जिनागम के अध्ययन-मनन एवं अभ्यास से आज हमें यह पता चला है कि वस्तुतः सब अपने-अपने ही कर्ता-भोक्ता हैं, सब मात्र अपने ही भाग्यविधाता हैं। कोई भी किसी के सुख-दुःख का, जीवन-मरण का, उन्नति-अवनति का कर्ता-धर्ता नहीं है, कोई किसी का भला-बुरा कुछ भी नहीं कर सकता। अपने ये कर्तृत्व के विकल्प सब निरर्थक हैं। अतः अब हम घरगृहस्थी के कर्त्तापने के भार से पूर्ण निर्भर होकर तथा दूसरों के भला-बुरा विदाई की बेला/१३ करने की चिन्ता से मुक्त होकर, निश्चिन्त होकर क्यों न अपने स्वरूप में जमने-रमने का प्रयत्न करें? संयोग न सुखद है न दुःखद । दुःखद तो केवल संयोगी भाव होते हैं, अतः संयोगों पर से दृष्टि हटा कर स्वभाव सन्मुख दृष्टि करना ही श्रेष्ठ है। ___सम्यग्दृष्टि की दृष्टि से मृत्यु इतनी गंभीर समस्या नहीं है; क्योंकि उसे मृत्यु में अपना सर्वस्व नष्ट होता प्रतीत नहीं होता। वह यह बात अच्छी तरह जानता है कि मृत्यु केवल पुराना झोंपड़ा छोड़कर नये भवन में निवास करने के समान स्थानान्तरण मात्र है, पुराना मैला-कुचैला वस्त्र उतार कर नया वस्त्र धारण करने के समान है। यदि वह नूतनगृह प्रवेश के उत्सव की तरह मृत्यु को महोत्सव के रूप में मानता है तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है और यदि बहुत समय से रह रहे झोंपड़े के प्रति सहज अनुराग वश थोड़ी खिन्नता भी दिखाई दे जाय तो यह भी असंभव नहीं है। ऐसा होना भी स्वाभाविक ही है। मिथ्यादृष्टि की दृष्टि इसके विपरीत होती है। एक तो उसकी स्थिति उस दरिद्री के समान होती है, जिसने जीवन में कुछ नहीं कमाया। अपने रहने के लिए भवन तो दूर, एक झोंपड़ा भी नहीं बना पाया । यदि मकान मालिक ने उसे अपने मकान से निकाल दिया तो दर-दर की ठोकरें खाने के सिवाय अन्य कोई चारा नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में उसका दुःखी होना स्वाभाविक ही है। जिसने जीवन भर पापाचरण ही किया हो, नरक-निगोद जाने की तैयारी ही की हो, उसका तो रहा-सहा पुण्य भी अब क्षीण हो रहा है, उस अज्ञानी और अभागे के दुःख को कौन दूर कर सकता है? अब उसके मरण सुधरने का तो प्रश्न ही नहीं रहा, उसकी तो आगामी गति के अनुसार मति बिगड़ना ही है। (50)

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