Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ विदाई की बेला / ८ भी द्रव्य किसी परद्रव्य के अधीन नहीं है, एक द्रव्य का कर्त्ता भोक्ता भी नहीं है। ऐसे श्रद्धान व समझ से ही समता आती है, कषायें कम होती हैं, राग-द्वेष का अभाव होता है। ५८ बस, इसी प्रकार के श्रद्धान- ज्ञान व आचरण से आत्मा निष्कषाय होकर समाधिमय जीवन जी सकता है।" दूसरा नया जिज्ञासु बोला, "इस समाधि की चर्चा का अभी क्या काम? यह तो मरते समय धारण करने की वस्तु है न ?” मैंने कहा - "ऐसी बात नहीं है, मरते समय तो समाधिरूप वृक्ष के फल खाए जाते हैं, बीज तो अभी ही बोना होगा; तभी तो उस समय फल मिलेगा । सुनो! ध्यान से अनुभवियों की बातें सुनों! क्या कहते हैं ज्ञानीजन? ' दर्शन - ज्ञान - चरित्र को, प्रीतिसहित अपनाय । च्युत न होय स्वभाव से, वह समाधि को पाय ।।' सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की समृद्धि वृद्धि ही समाधि है। महापुराण के इक्कीसवें अध्याय में कहा है कि 'उत्तम परिणामों में चित्त को स्थिर करना ही यथार्थ समाधि है। अथवा पंचपरमेष्ठियों के स्मरण को समाधि कहते हैं।' भगवती आराधना में समाधि के संबंध में ऐसा लिखा है कि सम शब्द का अर्थ है एक रूप करना, मन को एकाग्र करना । शुभोपयोग में मन को एकाग्र करना समाधि शब्द का अर्थ है। नियमसार गाथा एक सौ बाईस में समाधि की चर्चा करते हुए कहा है। कि - 'वचनोच्चारण की क्रिया का परित्याग कर वीतरागभाव से जो आत्मा को ध्याता है, उसे समाधि कहते हैं।' परमात्मप्रकाश की एक सौ नब्बे वीं गाथा में परम समाधि की व्याख्या करते हुए ऐसा कहा है कि 'समस्त विकल्पों के नाश होने को परमसमाधि कहते हैं।' - (34) विदाई की बेला / ८ इसी कारण साधक समस्त शुभाशुभ विकल्पों को छोड़ने की भावना भाते हैं, उन्हें हेय मानते हैं। " तीसरे जिज्ञासु ने पूछा - "क्या ध्यान, योग और समाधि में कुछ अन्तर है?" मैंने कहा - "ध्यान से सुनो, नए-नए प्रश्नों के चक्कर में पहला प्रश्न अधूरा रह जायेगा। ध्यान के प्रकरण में ऐसा कहा जाता है कि - " ध्येय और ध्याता का एकीकरण रूप समरसीभाव ही समाधि है।" योग और समाधि में अन्तर स्पष्ट करते हुए स्याद्वादमंजरी की टीका में ऐसा कहा है कि - 'बाह्यजल्प और अन्तर्जल्प के त्यागस्वरूप तो योग है तथा स्वरूप में चित्त का निरोध करना समाधि है।' तुम्हारे प्रश्नका उत्तर इसी में आ जायेगा। इसप्रकार जहाँ भी आगम में समाधि के स्वरूप की चर्चा आई है, उसे जीवन की साधना, आत्मा की आराधना और ध्यान आदि निर्विकल्प भावों से ही जोड़ा है, न कि मरण से। अतः समाधि प्राप्त करने के लिए मरण की प्रतीक्षा करने के बजाय जीने की कला सीखना जरूरी है, जो सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा की यथार्थ समझ से ही संभव है। तत्त्वज्ञान के अभ्यास के बल से जिनके जीवन में ऐसी समाधि होगी, उनका मरण भी नियम से समाधिपूर्वक ही होगा । एतदर्थ हमें अपने जीवन में जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों का अध्ययन और सतत अभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक है, उनकी श्रद्धा से हमारे जीवन में यह समाधि की दशा प्राप्त हो सकेगी एवं राग-द्वेष से मुक्त होकर निष्कषाय अवस्था को प्राप्त कर सकेंगे। जगत में जितने भी जीव जन्म लेते हैं, वे सभी मरते हैं। इस तरह प्रतिपल असंख्य अनंत जीवों की मृत्यु होती रहती हैं; पर सभी जीवों की मृत्यु को महोत्सव की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। जिन्होंने अपना जीवन समाधिपूर्वक जिया हो, मरण भी उन्हीं जीवों का समाधिपूर्वक होता है।

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