Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 32
________________ ५४ विदाई की बेला/७ विवेकी को ऐसा लगा - "मानो यह उसी के जीवन की कहानी है। अतः उसने भी इस दिशा में सक्रिय होने का संकल्प कर लिया।" सदासुखी के मुख से अपने व्याख्यान को अक्षरशः दुहराते और दोनों के जीवन को इस तरह प्रभावित और परिवर्तित होता देख मुझे अपना सारा श्रम सार्थक लगने लगा। ____ मुझे इस बात से पूर्ण संतोष व भारी प्रसन्नता हुई कि भले ही जीवन के उत्तरार्द्ध में ही सही, पर सदासुखी व विवेकी दोनों ही सन्मार्ग पर आ गये। यही तो मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, जो उन्हें मेरे निमित्त से उस पहाड़ी प्रदेश में भी मिल रही थी। इसी से तो यह कहा जाता है कि - जब भली होनहार होती है तो विपत्ति भी सम्पत्ति बन जाती है और निमित्त भी आकाश से उतर आते हैं। देखो न! मैं भी तो उस वन प्रदेश में आकाश से उतर कर ही तो गया था। इसमें मेरा क्या है, उनकी योग्यता से ही यह सब सहज बनाव बन गया था। अब मैं अवसर पाते ही उन्हें 'समाधि, साधना और सिद्धि' विषय को अच्छी तरह समझाने का प्रयास करूंगा। "जगत में सदासुखी और विवेकी जैसे जिज्ञासु जीव भी विरले ही होते हैं, जो जगत के स्वरूप को जानकर - संसार, शरीर और भोगों की असारता को पहचान कर अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को, धर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रगट करते हैं। अपना शेष जीवन समता से, निष्कषायभाव से समाधिपूर्वक जीना चाहते हैं। ___ अधिकांश व्यक्ति तो ऐसे होते हैं जो प्रतिकूल परिस्थितियों से घबड़ाकर, जीवन से निराश होकर जल्दी ही भगवान को प्यारे हो जाना चाहते हैं, दुःखद वातावरण से छुटकारा पाने के लिए समय से पहले ही मर जाना चाहते हैं। सौभाग्य से यदि अनुकूलतायें मिल गईं तो आयु से भी अधिक जीने की निष्फल कामना करते-करते अति संक्लेश भाव से मर कर कुगति के पात्र बनते हैं। ___ ऐसे लोग दोनों ही परिस्थितियों में जीवन भर जगत के जीवों के साथ और अपने-आपके साथ संघर्ष करते-करते ही मर जाते हैं। वे राग-द्वेष से ऊपर नहीं उठ पाते, कषाय-चक्र से बाहर नहीं निकल पाते । मुझे सदासुखी व विवेकी की अतृप्त जिज्ञासा को तो शांत करना ही चाहिए, इनकी शंकाओं का समाधान तो होना ही चाहिए, अन्यथा ये भी कहीं भी भटक सकते हैं। इनके लिए मुझे भले ही कुछ भी त्याग क्यों न करना पड़े, मैं अवश्य करूँगा। मुझे अभी घर जल्दी जाकर करना भी क्या है? और यदि कुछ करना भी हो तो इससे बढ़िया काम और क्या हो सकता है?" इस प्रकार सोचते-विचारते थोड़ी देर तो मैं असमंजस में रहा, अनन्तः मैंने एक सप्ताह और वहाँ रुकने का कार्यक्रम बना ही लिया। (32)

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