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विदाई की बेला/११ ठीक इसीप्रकार चिरविदाई (मृत्यु) भी दो तरह की होती है - १. सुखदायी, २. दुःखदायी।
यदि व्यक्ति ने जीवन भर सत्कर्म किए हैं, पुण्यार्जन किया है, सदाचारी जीवन जिया है, अपने आत्मा व परमात्मा की पहचान करके उनका आश्रय व आलम्बन लिया है, परमात्मा के बताये पथ पर चलने का पुरुषार्थ किया है तो निश्चित ही उसकी वह चिरविदाई की बेला सुखदायी होगी; क्योंकि उसके सत्कर्मों के फलस्वरूप वर्तमान वृद्ध, रोगी एवं जीर्ण-शीर्ण शरीर के बदले में सुन्दर शरीर, सुगति व नाना प्रकार के सुखद संयोग मिलने वाले हैं।
जिसतरह किसी को पहनने के लिए नया सुन्दर वस्त्र तैयार हो तो पुराना, जीर्ण-शीर्ण, मैला-कुचैला वस्त्र उतार कर फैंकने में उसको कष्ट नहीं होता; उसी तरह जिसने नई पुण्य की कमाई की हो, सत्कर्म किए हों, उसे तो नवीन दिव्य देह ही मिलने वाली है, उसे पुराना शरीर छोड़ने में कैसा कष्ट? ऐसी मृत्यु को ही मृत्यु महोत्सव या सुखदायी विदाई कहते हैं।
ऐसी चिरविदाई (मृत्यु) के समय सगे-संबंधी रागवश बाहर से रोते दिखाई देते हैं पर अन्दर से उन्हें इस बात का संतोष व हर्ष होता है कि दिवंगत आत्मा की सद्गति हुई है। जैसे कि अच्छे घर में ब्याही बेटी को विदा करते समय माँ-बाप रागवश रोते तो हैं, परन्तु अन्दर से उन्हें इस बात का संतोष व हर्ष होता है कि मेरी बेटी सुखद संयोगों में गई है।
इसके विपरीत जिसने जीवनभर दुष्कर्म किए हों, पापाचरण किया हो, दुर्व्यसनों का सेवन किया हो, दूसरों पर राग-द्वेष करके संक्लेश भाव किए हों, जो दिन-रात खाने-कमाने में ही अटका रहा हो, विषयकषायों के कंटकाकीर्ण वन में ही भूला-भटका रहा हो, जिसने जीवन भर अरण्य रुदन ही किया हो, उसे तो इन कुकर्मों के फल में कुगति ही होनी है, दुःखदायी संयोगों में ही जाना है। उसकी परिणति भी संक्लेशमय हो
विदाई की बेला/११ जाती है, वह संक्लेश भावों से ही मरता है। उसकी इस चिरविदाई की बेला को दुःखदाई विदाई कहते हैं। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु कभी महोत्सव नहीं बन सकती। जैसे कि दुःखद संयोगों में ब्याही गई बेटी की विदाई तो माँ-बाप को जीवन भर के लिए दुःखद ही होती है।
मृत्यु को महोत्सव बनाने वाला मरणोन्मुख व्यक्ति तो जीवनभर के तत्त्वाभ्यास के बल पर मानसिक रूप से अन्दर में तैयार होता है और विदाई देनेवाले व्यक्ति भी बाहर से वैसा ही वैराग्यप्रद वातावरण बनाते हैं, तब कहीं वह मृत्यु महोत्सव बन पाती हैं।
इस वातावरण में परिवार के मोही व्यक्ति भी क्षण भर के लिए वियोगजनित दुःख भूल जाते हैं तथा सभी सुख व संतोष का अनुभव करने लगते हैं। __वस्तुतः मृत्यु के समय मरणासन्न व्यक्ति की मनःस्थिति को मोहराग-द्वेष आदि मनोविकारों से बचाने, पाँचों इन्द्रियों के विषयों से तथा परद्रव्य पर अटकने-भटकने से भी बचाने तथा आत्मसम्मुख करने के लिए संसार, शरीर व भोगों की असारता को बताने वाला वैराग्यवर्द्धक तथा संयोगों की क्षणभंगुरता दर्शानेवाला और आत्मा के अजर, अमर व अविनाशी स्वरूप का ज्ञान कराने वाला आध्यात्मिक वातावरण बनाना जरूरी है। इसके बिना मृत्यु महोत्सव नहीं बन सकती। __ कभी-कभी परिजन-पुरजन मोह व अज्ञानवश अपने प्रियजनों को मरणासन्न देखकर या मरण की संभावना से भी रोने लगते हैं, इससे मृत्युसन्मुख व्यक्ति के परिणामों में संक्लेश होने की संभावना बढ़ जाती है; जबकि उसे समतापूर्वक निष्कषायभाव से, शांतभावों से देह त्यागने में सहयोग करना चाहिए, तभी मृत्यु महोत्सव बन पाती हैं।" ___इसी बीच एक मुँहफट-बातूनी श्रोता बोला - “जब मृत्यु के समय कान में णमोकार मंत्र के सुनने-सुनाने मात्र से मृत्यु महोत्सव बन जाती है तो फिर जीवन भर जिनवाणी के अध्ययन की क्या आवश्यकता है?"
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