Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 35
________________ विदाई की बेला/८ वस्तुत: आधि-व्याधि व उपाधि से रहित आत्मा के निर्मल परिणामों का नाम ही तो समाधि हैं। समता भाव या निष्कषाय भाव का नाम ही तो समाधि है? इससे मरण का क्या संबंध?" आगम के आधार पर की गई समाधि की इस चर्चा को सुनकर जहाँ विवेकी एवं सदासुखी ने संतोष प्रगट किया, वहीं साथ में उनके मन में और भी अनेक प्रश्न खड़े हो गये। पर समय काफी हो गया था और चर्चा भी गंभीर थी, अतः ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्' की नीति के अनुसार आवश्यकता से अधिक चर्चा करना मैंने ठीक नहीं समझा। ‘बात कितनी भी बढ़िया क्यों न हो, पर एक सीमा तक ही उसका लाभ मिलता है। सीमा का उल्लंघन होते ही अमृत तुल्य षट्रस व्यंजन भी विषरूप परिणत होने लगते हैं" - यह सोचकर बातचीत उस समय बंद कर दी गई। विषम परिस्थितियों में जीने वाले सामान्य वृद्धजनों की भाँति सदासुखी और विवेकी भी अब अपने जीवन से निराश हो चुके थे। अब वे अपने बुढ़ापे के दिनों को गिन-गिन कर काट रहे थे। मानों अब तो उन्हें अपने मरने की ही प्रतीक्षा थी। उनका एकमात्र अन्तिम कार्य 'मरण' ही शेष रह गया था, जिसे वे येन-केन-प्रकारेण - जिस तरह भी संभव हो, सुधार लेना चाहते थे। उन्होंने सुन रखा था कि जिनका ‘मरण' सुधर जाता है, वे ही परभव में अगले जन्म में सुखद संयोगों में पहुँचते हैं, उनको ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है। और जिनका मरण बिगड़ जाता है, वे नरक-निगोद आदि गतियों में जाकर अनन्तकाल तक असीम दुःख भोगते हैं। अतः वे कहा करते थे कि जीवन तो जैसे जिया, जी लिया। अब उसका रोना रोने से क्या प्रयोजन? अब तो बार-बार यही विचार आता है कि कम से कम मरण तो न बिगड़ जावे। उन बेचारों को क्या पता था कि - "जिसने अपना जीवन रो-रोकर जिया हो, जिनको जीवन भर संक्लेश ही संक्लेश और अशान्ति रही हो, जिनका जीवन केवल आकुलता में ही बीता हो, जिसने जीवन में सुखशान्ति कभी देखी ही न हो, निराकुलता का अनुभव किया ही न हो; इस कारण जिनके जीवन भर संक्लेश परिणाम रहे हो, आर्तध्यान ही हुआ हो; उनका 'मरण' कभी नहीं सुधर सकता; क्योंकि जैसी मति वैसी गति । ____ आगम के अनुसार जिसका आयुबंध जिस प्रकार के संक्लेश या विशुद्ध परिणामों में हो जाता है, उसका मरण भी उसी प्रकार के संक्लेश समाधि-साधना और सिद्धि सन्यास और समाधि है जीना सिखाने की कला। बोधि-समाधि साधना शिवपंथ पाने की कला ।। सल्लेखना कमजोर करती काय और कषाय को। निर्भीक और नि:शंक कर उत्सव बनाती मृत्यु को।। - पण्डित रतनचन्द भारिल्ल ऐसे क्या पाप किए - पृष्ठ-८८ १. मानसिक चिन्ता २. शारीरिक रोग ३. पर के कर्तव्य का भार ४. आधि-व्याधि-उपाधि से रहित आत्मा का निर्मल परिणाम । (35)

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