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विदाई की बेला/९ त्रिभाग चौवन वर्ष की उम्र में आयेगा, तब आगामी (वध्यमान) आयु का बंध होगा। यदि उसमें आगामी (वध्यमान) आयु का बंध नहीं हुआ तो शेष बचे वर्तमान आयु के सत्ताईस वर्षों का दूसरा त्रिभाग बहत्तर वर्ष की उम्र में आयेगा, उसमें आगामी आयुकर्म का बंध होगा। तब भी न हुआ तो वर्तमान आयु के नौ वर्षों का तीसरा त्रिभाग अठहत्तर वर्ष की उम्र में आयेगा, जिसमें आगामी आयुकर्म का बंध होगा।
इसके बाद चौथा त्रिभाग अस्सी वर्ष में, पाँचवाँ त्रिभाग अस्सी वर्ष आठ माह में छठवाँ त्रिभाग अस्सी वर्ष दस माह बीस दिन में, सातवाँ त्रिभाग अस्सी वर्ष ग्यारह माह सोलह दिन व सोलह घंटे में, और आठवाँ त्रिभाग अस्सी वर्ष ग्यारह माह पच्चीस दिन बारह घंटे व चालीस मिनट में आयेगा जिसमें आगामी आयु का बंध होगा।
इस प्रकार बध्यमान आयुबंध के आठ अवसर आते हैं। यदि इन आठों बार भी आगामी आयुकर्म का बंध नहीं हुआ तो आवली का असंख्यातवाँ भाग भुज्यमान आयु का शेष रहने पर तो आगामी आयु का बंध अवश्य होता ही है।
संभवतःअभी आप बासठ-तिरेसठ वर्ष से अधिक नहीं होंगे। इस दृष्टि से विचार करें तो अभी आपकी आयु के विभाग का केवल एक अवसर ही ऐसा निकला है, जिसमें आयुबंध की संभावना थी, सात अवसर फिर भी शेष हैं। अतः अभी आपको सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा आत्मानुभूति प्राप्त करने का सुअवसर है, निराश होने जैसी कोई बात नहीं है; पर इतना अवश्य समझ लीजिए कि अब ‘शुभस्य शीघ्र' की उक्ति के अनुसार शुभ काम में देर नहीं होनी चाहिए।
ध्यान रहे, आजकल निर्व्यसनी, उच्चवर्गीय स्वस्थ शाकाहारी मनुष्यों की औसत आयु सत्तर-पचहत्तर से अस्सी-पचासी वर्ष तो होती ही है, जिसका प्रथम त्रिभाग लगभग पचास से पचपन वर्ष की उम्र में आता है। दूसरा बहत्तर से पचहत्तर वर्ष की उम्र में, इसके बाद तो लगभग अठहत्तर से अस्सी वर्ष की उम्र में आगामी आयु का बंध हो सकता है।
विदाई की बेला/९
कदाचित् किसी का आयु बंध हो भी गया हो तो भी निराश होकर बैठने के बजाय यदि तत्त्वाभ्यास द्वारा परिणाम विशुद्ध रखा जाय तो आयुकर्म की स्थिति में उत्कर्षण-अपकर्षण तो हो ही सकता है तत्त्वाभ्यास निरर्थक नहीं जाता।
अतः आपको अब तक की हुई भूल या लापरवाही से घबराने की बात तो बिल्कुल ही नहीं है, पर दुनियादारी के झमेलों में अब एक मिनिट भी खराब करना आपके हित में नहीं है।" ___मेरी बात से पूर्ण सहमत होते हुए सदासुखी ने कहा - "हाँ, आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, मैंने भी एक बार एक उक्ति सुनी थी। किसी ने कहा था कि 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' अच्छे कामों में विघ्नों की अधिक संभावना रहती है। ऐसे विघ्न-संतोषी लोगों की भी दुनिया में कमी नहीं है, जिन्हें दूसरों के अच्छे कामों में विघ्न डालने में ही सुख मिलता है। अतः हम आपके निर्देशों का पूरी तरह पालन करने का प्रयत्न करेंगे। पर यह तो बताइए कि इसके लिए हमें सर्वप्रथम क्या करना चाहिए?"
उन्हें मार्गदर्शन देते हुए मैंने कहा - "जिनके जीवन में मानसिक शान्ति रहेगी, जिनका जीवन विषय-कषायों से संक्लेशित नहीं होगा, जिनके जीवन में विशुद्ध परिणाम रहेंगे, उन्हें अशुभ गतियों में जाने की कारणभूत नरक-तिर्यंच आयु का बंध ही नहीं होगा। ऐसी स्थिति में उनका कु-मरण कैसे हो सकता है? वे जो जब भी देह छोड़ेंगे समता और समाधिपूर्वक ही छोड़ेंगे। ___पर ध्यान रहे, जिनका जीवन सुख-शान्ति एवं निराकुलता में बीतता है, उन्हीं का मरण समाधिपूर्वक होता है। अतः हमें मरण सुधारने के बजाय जीवन को सुधारने का ही प्रयत्न करना होगा।"
विवेकी ने कहा - "यह तो ठीक है, पर मानसिक शान्ति कैसे रहेगी? उसका क्या उपाय है? हमारा जीवन विषय-कषायों से कैसे बचे? हमारे परिणाम विशुद्ध कैसे रहें? इन सबकी विधि भी तो बताइए।
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