Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 38
________________ विदाई की बेला/९ आचार्य अमितगति ने सामयिक पाठ में स्पष्ट रूप से कहा है - स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते। करें आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते।। अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी। पर देता है यह विचार तज, थिर हो छोड़ प्रमाद बुद्धि ।” जब मैंने उन्हें संक्षेप में यह समझाया तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भारी संतोष व्यक्त किया। मानों उन्हें कोई निधि मिल गई हो अथवा उनके हरे-भरे घावों पर शीतलता प्रदान करने वाली मलहम लगा दी गई हो। विदाई की बेला/९ ऐसे उपदेश तो हमने बहुत बार सुने कि कषाय मत करो, शान्ति रखो, विषयों से बचो आदि; पर उनसे कुछ भी काम नहीं बना, इन उपदेशों से कषायें किंचित् भी कम नहीं हुईं। जब तक हमारे मनोविकारों को जन्म देने वाली सांसारिक समस्याओं का समुचित समाधान नहीं होता, तब तक इन क्रोधादि मनोविकारों का अभाव कैसे हो सकेगा? अत: जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में हमें कोई ऐसा मार्गदर्शन दीजिए - ऐसा उपाय बताइए कि हमें सर्वप्रथम क्या करना चाहिए; ताकि हम अपने जीवन में उन उपदेशों को सार्थक कर सकें।" मैंने उन्हें जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धांत वस्तुस्वातंत्र्य और कर्ता-कर्म के स्वरूप के माध्यम से मनोविकारों की उत्पत्ति न होने के उपाय समझाते हुए बताया कि - "तीन लोक में जितने भी पदार्थ हैं, वे सब अपनेअपने स्वभाव से स्वतंत्र रूप से मिलते-बिछुड़ते हैं, स्वयं ही आते-जाते हैं। उनमें परस्पर कर्ता-कर्म संबंध नहीं है, मात्र निमित्त-नैमित्तिक संबंध हैं। कहा भी है - होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जग का करता क्या काम? जब संयोग के मिलाने में या अलग करने में, किसी का भला-बुरा होने में, सुख-दुःख पाने में किसी अन्य का कुछ हस्तक्षेप ही नहीं है तो कोई किसी पर बिना कारण क्रोधादि क्यों करें? खेद-खिन्न क्यों हो? हर्षविषाद क्यों करें? संक्लेशित भी क्यों हों? __ वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धांत की श्रद्धा वाले व्यक्ति तो केवल ज्ञाता-दृष्टा रहकर सब परिस्थितियों में साम्यभाव ही धारण करते हैं, उन्हें संयोगों में सुखबुद्धि नहीं रहती; क्योंकि वे जानते हैं कि संयोगों में सुख है ही नहीं। पुण्य-पाप के सिद्धांतानुसार भी कोई किसी को सुखी-दुःखी नहीं कर सकता । अतः पुण्य-पाप का यथार्थ श्रद्धान होने से भी पर के प्रति राग-द्वेष की परिणति कम हो जाती है। महादुर्लभ मनुष्य भव खोने में कुशलता कैसी? जोई दिन कट, सोई आयु में अवश्य घटै; बूंद-बूंद बीते, जैसे अंजुलि को जल है। देह नित छीन होत, नैन तेजहीन होत; जीवन मलीन होत, छीन होत बल है। आवै जरा नेरी, तकै अंतक अहेरी; आबै परभौ नजीक, जात नरभौ निफल है। मिलकै मिलापी जन, पूछत कुशल मेरी; ऐसी दशा मांहि, मित्र काहे की कुशल है। भूधर शतक : कविवर भूधरदासजी (38)

Loading...

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78