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जब मैंने स्वयं उस उपवन में विवेकी और सदासुखी के मुख से ही उनके वैयक्तिक जीवन की समालोचना सुनी और उन्हें अपनी भूलों पर पश्चाताप करते देखा तो मेरे हृदय में उन्हें और उन जैसे ही अन्यजनों को समझाने की भावना हुई । अतः मैंने कहा – “पुरुषों की बहत्तर कलाओं में केवल दो कलाओं को ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। एक जीविका और दूसरी जीवोद्धार । कहा भी है :
कला बहत्तर पुरुष की, तामें दो सरदार ।
एक जीव की जीविका, दूजी जीवोद्धार ।। जब-जब इस लोकोक्ति पर दृष्टिपात करता हूँ, विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि अधिकांश व्यक्ति तो पहली कला-आजीविका को अर्जित करने में ही अपनी संपूर्ण शक्ति लगा देते हैं और इसमें सफल होने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। दूसरी जीवोद्धार की जो महत्त्वपूर्ण कला है, उस पर तो वे जीवन के अंत तक भी ध्यान नहीं देते।
पर, जहाँ जीविका की कला हमारी वर्तमान आर्थिक समस्याओं का समाधान करती है, वही जीवोद्धार की कला हमारे जन्म-जन्मान्तरों के दुःखों को दूर करके सच्चा सुख प्रदान करती है। अतः जीविका से अधिक महत्त्व जीवोद्धार को मिलना चाहिए।"
मेरी बात पूरी ही नहीं हुई थी कि विवेकी बोले - “भाईजी । आपका कहना सच है; पर जब तक जीविका स्थिर नहीं होती, परिवार के उत्तरदायित्वों से मुक्ति नहीं मिल जाती; तब तक जीवोद्धार की बात सूझती ही कहाँ है? जिससे जीवोद्धार की बात करो, वही कहता है - "भूखे भजन न होय गोपाला, यह लो अपनी कंठी माला।"
विदाई की बेला/४
विवेकी की इस बात को मद्देनजर रखकर मैंने कहा - "यद्यपि स्थिर जीविका के बिना जीवोद्धार की बात संभव नहीं है, आजीविका की भी मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कम से कम रोटी, कपड़ा और मकान की प्राथमिक आवश्यकताओं की समस्याओं का समाधान तो होना ही चाहिए। पर, वह हमारे हाथ में है कहाँ? वह तो अपने-अपने प्रारब्ध के अनुसार ही मिलती है। चींटी को कण और हाथी को मण सुबह से शाम तक अपने-अपने भाग्यानुसार मिलता ही है। इसमें आदमी की बुद्धि अधिक काम नहीं आती।
राजा सेवक पर कितना ही प्रसन्न क्यों न हो जाये, पर वह सेवक को उसके भाग्य से किंचित् भी अधिक धन नहीं दे सकता। दिन-रात पानी क्यों न बरसे, तो भी ढाक की टहनी में तीन से अधिक पत्ते नहीं निकलते हैं। कहा भी है :
तुष्टो हि राजा यदि सेवकेभ्यः, भाग्यात् परं नैष ददाति किंचित् । अहिर्निश वर्षति वारिवाहा,
तथापि पत्र त्रितयः पलाशः ।। यद्यपि उद्योग में उद्यम की प्रमुखता है, पर उद्यम भी तो होनहार का ही अनुसरण करता है, अन्यथा आज सभी उद्यम करने वाले करोड़पति से कम नहीं होते। आज ऐसा कौन है जो बड़ा आदमी बनने का, करोड़पति बनने का उद्यम नहीं कर रहा? पर उनमें कितने करोड़पति हो गये? जब भाग्य साथ नहीं देता तो अच्छे-अच्छे बुद्धिमानों की बुद्धि भी कुछ काम नहीं करती।
वैसे भी 'दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम' इस उक्ति के अनुसार सबकी आजीविका तो भाग्यानुसार पहले से ही निश्चित है। यह न केवल लोकोक्ति है, गोम्मटसार व समयसार जैसे आगम व अध्यात्म ग्रंथ भी इसका समर्थन करते हैं। अतः जीविका में ही सारी शक्ति लगा
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