Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 27
________________ विदाई की बेला/७ नहीं सुनना चाहता । जिनके मोह में तुम इतने पागल हुए जा रहे हो, दुःख के दिनों में ये कोई काम नहीं आयेंगे और अब उन्हें तुम्हारे काम या सलाह की अपेक्षा भी कहाँ है? तुम केवल अपनी कमजोरी के कारण ही अपना अमूल्य समय खराब कर रहे हो । वे तुम्हें न भी छोड़ते हों तो तुम्हें तो अब उनसे एकत्व-ममत्व कम करना ही होगा।" सदासुखी का नाराज होना अनुचित नहीं था, ठीक ही था; क्योंकि मित्र कहते ही उसे हैं, जो अपने मित्र को उसके हित में नियोजित करे, कल्याण के मार्ग में लगाये। सदासुखी ने कुछ नम्र होते हुए पुनः कहा - "देखो भाई! अब अपना दुनियादारी में उलझने का समय नहीं रहा। कल जब भाईजी ने अपने व्याख्यान में एक बात बहुत सटीक कही तो उस समय मुझे तुम्हारी बहुत याद आई। मैंने तुम्हें इधर-उधर बहुत देखा, पर तुम कहीं दिखाई ही नहीं दिए। तुम्हारी कल की अनुपस्थिति से मेरा उपयोग बहुत खराब होता रहा।" विवेकी ने खेद प्रकट करते हुए जिज्ञासा प्रगट की - "क्या कहा था भाईजी ने? कुछ बता सकोगे?" । "हाँ हाँ, क्यों नहीं? तू मुझे समझता क्या है? वैसे भी मैं भाईजी की प्रत्येक बात बड़े ध्यान से सुनता हूँ। फिर कल तो तेरे न आने से मेरी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई थी। अतः मैंने एक-एक बात ध्यान से सुनी और धारणा में ली।" सदासुखी ने मेरे व्याख्यान को अक्षरशः दुहराते हुए कहा - "अरे भाई! स्त्री-पुत्रादि सभी परिजन-पुरजन स्वार्थ के ही साथी होते हैं। कोई कितनी भी मीठी-मीठी बातें क्यों न करे, कैसे भी आश्वासन क्यों न दें; पर समय पर कोई काम नहीं आता, कोई भी दुःख के दिनों में सहभागी नहीं बनता । कदाचित् कोई बनना भी चाहे तो वस्तुव्यवस्था को ही किसी विदाई की बेला/७ में किसी का हस्तक्षेप स्वीकृत नहीं है। वस्तुव्यवस्था में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है कि कोई किसी के सुख-दुःख में सहभागी बन सकें।" शास्त्रों का उल्लेख करते हुए भाईजी ने कहा - देखो न! साफ-साफ लिखा है - 'सुतदारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी।' शास्त्रों की बातें गलत थोड़े ही होती हैं। भाईजी ने एक अन्य भजन की भी कुछ पंक्तियाँ सुनाई थी, जिनके कतिपय बोल इस प्रकार हैं : 'तन कोई छूता नहीं, चेतन निकल जाने के बाद। फैंक देते फूल को, खुशबू निकल जाने के बाद ।। छोड़ देता माँ को बछड़ा, पय निकल जाने के बाद ।' शायद अगली पंक्ति भाईजी भूल रहे थे, जब तक वे सोचने को रुके, तब तक मेरे मुँह से निकल गया – “कह दो, कह दो भाईजी! कह दो कि - बेटे माँ-बाप को भी छोड़ देते, स्वार्थ सध जाने के बाद ।।" मेरा इतना कहना था कि सब श्रोताओं की दृष्टि मेरी और मुड़ गई। अपनी ओर सबकी दृष्टि देखकर पहले तो मैं कुछ झेंपा; क्योंकि मैंने अनाधिकार चेष्टा जो कर डाली थी। मुझे व्याख्यान के बीच में बोलने की धृष्टता नहीं करनी चाहिए थी और मैं यह गुस्ताखी कर बैठा था। पर जब मैंने सबको मुस्कुराते और सराहना के स्वर में वाह! वाह!! करते सुना तो मुझे ऐसा लगा कि - "जैसे मैंने कोई बहुत बड़े विवेक की बात कह दी है, अन्यथा वे व्याख्यान के बीच में वाह! वाह!! क्यों करते?" __वस्तुतः वह बुजुर्गों के दिलों का दर्द था, जो मेरे मुँह से अनायास फूट पड़ा था। अतः सबका प्रसन्न होना तो स्वाभाविक ही था। भाईजी ने भी मेरी बात का ही समर्थन करते हए मेरी वही पंक्ति बार-बार दुहराई। (27)

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