Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ विदाई की बेला/७ विदाई की बेला/७ करते रहते हैं। जो मुहावरा मौत से सावधान होने के लिए कहा गया हो, उसे ग्राहकों पर घटित करके दुकान न छोड़ने की प्रेरणा देना, किसी चतुर व्यापारी बाप का ही काम हो सकता है, जो अपने बेटों को इसतरह की प्रेरणा देते हैं। ___ पर, अब सदासुखी ऐसे दुकानदारों और व्यापारियों की श्रेणी से बहुत ऊपर उठ गया था। अब उसके सोचने का तरीका बिल्कुल बदल गया था। वह मौत के अर्थ को अच्छी तरह समझने लगा था। अतः वह दुकानदारी को ही तिलांजलि देकर मौत के मुख में जाने के पहले मौत को ही बेमौत मारने के इंतजाम में लग गया था, अमर होने के सम्यक् पुरुषार्थ में लग गया था। वही पहाड़ी प्रदेश, वही हरा-भरा उपवन, वैसा ही सुरम्य वातावरण, पर सदासुखी को अब सब कुछ बदला-बदला-सा लगने लगा था, उसका मन जो बदल गया था। किसी ने ठीक ही कहा है - 'मन के जीते जीत हैं, मन के हारे हार।' सदासुखी का मन अब पहले की तरह विकथाओं में नहीं रमता था। उसकी भावना और विचारों में अब पहले की अपेक्षा जमीन-आसमान का अन्तर आ गया था। उसके द्वारा स्वयं की भूलों को सहज भाव से स्वीकार करना और निरन्तर अपनी आलोचना-समालोचना करते रहना इसका प्रबल प्रमाण है। जहाँ पहले उसकी बातचीत अधिकांश राजनीति व दूसरों की टीकाटिप्पणी पर ही केन्द्रित रहा करती थी, वहीं अब उसकी चर्चा के मुख्य विषय धर्मकथायें और तात्त्विक विषय बन गये थे। ___मुझे उस पहाड़ी प्रदेश के प्रवास में पहुँचे कोई अधिक समय नहीं हुआ था। लगभग दो सप्ताह ही हुए होंगे, जिसमें भी प्रथम सप्ताह तो परोक्ष परिचय में यों ही बीत गया था। सदासुखी के निकट संपर्क में आये तो अभी मात्र सात दिन ही हुए थे। इस बीच उसके जीवन में आये चमत्कारिक परिवर्तन को देखकर मैं स्वयं चकित था। कौन जाने किस जीव की कब काललब्धि आ जावे, किसकी परिणति में कब/क्या परिवर्तन आ जावे? किसका कब/कैसा भाग्योदय हो जावे? यही बात मौत के संबंध में भी लागू पड़ती है। दुकानदारों के श्रीमुख से यह कहते कभी भी सुना जा सकता है कि - 'मौत का और ग्राहक का कोई भरोसा नहीं, कब आ टपके', पर बलिहारी है उन दुकानदारों की जो मौत का इंतजाम न करके ग्राहकों का ही इंतजार पिछले सप्ताह से नियमित चल रही तत्त्वगोष्ठी में कल किसी कारणवश विवेकी उपस्थित नहीं हो सका तो सदासुखी को ऐसा लगा मानों विवेकी ने कोई बड़ी निधि खो दी हो, वह कोई बहुत बड़ी अपूरणीय क्षति कर बैठा हो । उसका मानना है कि विवेकी को किसी भी कीमत पर तत्त्वगोष्ठी जैसा स्वर्ण अवसर नहीं छोड़ना चाहिए। कहाँ मिलते हैं ऐसे मंगलमय प्रसंग? न जाने किस जन्म का पुण्य फला है, जो घर बैठे ज्ञानगंगा में गोते लगाने का सौभाग्य मिल रहा है। ___ अतः दूसरे दिन विवेकी के आते ही उसने उसे आड़े हाथों लिया और ऊँचे स्वर में कहा - "विवेकी! तुम कल तत्त्वगोष्ठी में क्यों नहीं आये? इससे महत्त्वपूर्ण काम और क्या हो सकता है? तुम्हें यह तो ज्ञात ही है कि भाईजी मात्र हमारे-तुम्हारे लिए ही इतने दिनों से यहाँ रुके हुए हैं।" ____ सदासुखी का कठोर रुख देखकर विवेकी सकपका गया। वह अपनी सफाई में कुछ कहना ही चाहता था कि सदासुखी ने पुनः भारी असंतोष की मुद्रा में कहा - "अब तुम्हारा घर-गृहस्थी का कोई भी बहाना मैं

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78