Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ विदाई की बेला/६ काम छोड़कर मेरे पास आ बैठी और जिनवाणी में से अच्छे-अच्छे स्तोत्र और भजन सुनाने लगी। सुनाते-सुनाते उसकी दृष्टि समाधिमरण पाठ पर भी पड़ी। समाधिमरण पाठ वैराग्य-प्रेरक तो है ही, कर्णप्रिय भी है; अतः वह सहज भाव से समाधिमरण पाठ पढ़ने लगी। मैं भी उस पाठ के वैराग्य-प्रेरक प्रसंगों से प्रभावित होकर भावुकतावश मनोभावों को एकाग्र कर उसी में तन्मय हो अपनी शारीरिक पीड़ा को भूलने का प्रयत्न करने लगा। इसप्रकार उस दिन वे आध्यात्मिक भजन और स्तोत्रादि के पाठ मुझे रामबाण अचूक औषधि' साबित हुए। सचमुच मेरा उपयोग बदल जाने से दर्द की अनुभूति कम होने लगी और मेरी कराहें कम हो गईं। मेरी कराहें कम होती देख मेरी पत्नी को और अधिक उत्साह आया और वह मधुर कंठ से उस समाधिमरण पाठ का जोर-जोर से सस्वर पाठ करने लगी - भव-भव में सुर पदवी पाईं, ताके सुख अति भोगे। भव-भव में गति नरकतनी धर, दुःख पाये विधि योगे।। भव-भव में तिर्यंच योनि धर, पायो दुःख अति भारी। भव-भव में साधर्मीजन को, संग मिल्यो हितकारी ।। भव-भव में जिन पूजन कीनी, दान सुपात्रहिं दीनो। भव-भव में मैं समवशरण में, देख्यो जिनगुण भीनो।। ऐती वस्तु मिली भव-भव में, सम्यक्गुण नहीं पायो। ना समाधियुत मरण कियो मैं, तातै जग भरमायो ।। काल अनादि भयो जग भ्रमतें, सदा कुमरणहि कीनो। एकबार हू सम्यक्युत मैं निज आतम नहिं चीनो ।। जो निज-पर को ज्ञान होय तो मरण समय दुःख काँई। देह निवासी मैं निजभासी, योहिं स्वरूप सदाई ।। विषय-कषायन के वश होकर, देह आपनो जान्यो। कर मिथ्या सरधान हिये बिच, आतम नाहिं पिछान्यो।। ___ (24) विदाई की बेला/६ यों क्लेश हिय धार मरणकर, चारों गति भरमायो । सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चरन ये, हिरदै में नहिं लायो ।। धन्य-धन्य सुकौशल स्वामी, व्याघ्री ने तन खायो। तो भी श्रीमुनि नेक डिगे नहिं, आतम सो चित लायो।। यह उपसर्ग सहयो धर थिरता, आराधन चितधारी । तो तुमरे जिय कौन दुख है, मृत्युमहोत्सव भारी ।। पड़ौसियों ने भी वह आवाज सुनी और उन्हें आश्चर्य हुआ। अरे! यह कैसा स्वर सुनाई दे रहा है? किसका मृत्युमहोत्सव प्रारंभ हो गया है? अरे !! यह तो बहिनजी की आवाज है। कल तो भाईजी अच्छे भले-चंगे हँस-हँसकर बातें कर रहे थे, रात भर में यह क्या से क्या हो गया? एकएक करके सभी अड़ौसी-पड़ौसी मेरा अन्तिम समय निकट समझकर, सहानुभूति की भावना प्रगट करने आने लगे। ___ एक ने कहा - 'अरे! अभी उम्र ही क्या है? पर मौत उम्र देखती ही कब है? अभी-अभी तो सुख देखने के दिन आये हैं, अब तक तो बिचारों ने दुःख ही दुःख देखा।' ___दूसरा बोला - ‘ऐसे सज्जन, संतोषी, परोपकारी विरले ही होते हैं, पर होनहार पर किसका वश चला है? जो जितनी आयु लेकर आया, उतना ही तो जियेगा।' इस प्रकार नानाप्रकार की बातें होने लगीं। जबकि ऐसा कुछ भी नहीं घटा था। न कोई मरा था, न मरणासन्न ही था, मैं मात्र बुखार में था और अपना उपयोग बदलने, पीड़ा-चिन्तन आर्तध्यान से बचने एवं समता भाव से समय बिताने के लिए शान्तिपूर्वक समाधिमरण पाठ सुन रहा था। ____ पर इसमें उन बेचारे अड़ौसियो-पड़ौसियों का भी क्या दोष? उन्होंने तो समाधि पाठ पढ़ने का अर्थ ही यह मान रखा था, उनकी मानसिकता ही यह बन गई थी कि समाधिमरण केवल जीवन के अन्तिम क्षणों में सुनाया जाता है।

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