Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ ३० विदाई की बेला/४ सभी बातें कोरी-गप-शप नहीं होती थीं। बहुत-सी बातें दूसरों के लिए बहुत उपयोगी, शिक्षाप्रद और प्रेरणादायक भी होती थी। वे कभी-कभी धार्मिक चर्चा भी छेड़ दिया करते थे। पर उनकी धार्मिक चर्चा तत्त्वज्ञान से शून्य होने के कारण अधूरी होती थी। ___इस कारण जब तक मैं वहाँ रहा, प्रतिदिन उनके खट्टे-मीठे अनुभवों को सुनने तथा उनके जीवन में आध्यात्मिक परिवर्तन लाने के उद्देश्य से वहाँ नियम से जाता रहा, जहाँ वे बैठकर बातें किया करते थे। आधि, व्याधि और उपाधि से रहित आत्मा के निर्मल परिणामों का नाम समाधि है। आधि अर्थात् मानसिक चिन्ता, व्याधि अर्थात् शारीरिक रोग और उपाधि अर्थात पर के कर्तत्व का बोझ-समाधि इन तीनों से रहित आत्मा की वह निर्मल परिणति है, जिसमें न कोई चिन्ता है, न रोग है और न पर के कर्तृत्व का भार ही है। एकदम निराकुल, परम शांत, अत्यन्त निर्भय और निशंक भाव से जीवन जीने की कला ही समाधि है। यह समाधि संवेग के बिना संभव नहीं और संवेग अर्थात् संसार से उदासी सम्यग्दर्शन के बिना संभव नहीं। सम्यग्दर्शन के लिए तत्त्वाभ्यास और भेदविज्ञान अनिवार्य है। जिसे समाधि द्वारा सुखद जीवन जीना आता है, वही व्यक्ति सल्लेखना द्वारा मृत्यु को महोत्सव बना सकता है, वही शान्तिपूर्वक मरण का वरण कर सकता है। समाधि और सल्लेखना को और भी सरल शब्दों में परिभाषित करें तो हम यह कह सकते हैं कि “समाधि समता भाव से सुखशान्तिपूर्वक जीवन जीने की कला है और सल्लेखना मृत्यु को महोत्सव बनाने का क्रान्तिकारी कदम है, मानव जीवन को सार्थक और सफल करने का एक अनोखा अभियान है।" वह पहाड़ी प्रदेश प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से तो श्रेष्ठ था ही, अध्ययन-मनन व चिन्तन की दृष्टि से भी बहुत उपयुक्त था । अत्यन्त शांत व एकांत होने से मेरा मन तो वहाँ कुछ दिन और ठहरने का था ही, संयोग से विवेकी व सदासुखी जैसे दुःखी, जिज्ञासु व संसार से उदास-विरक्त व्यक्तियों का संपर्क हो जाने से उनके निमित्त से भी शेष समय का सदुपयोग करने का सुअवसर मिल गया। सदासुखी व विवेकी बुद्धिमान व्यक्ति थे, अतः थोड़े ही दिनों में वे चर्चायें तो बड़ी ऊँची-ऊँची अध्यात्म की करने लगे। वे न केवल गहरी तत्त्वचर्चा करते, संन्यास लेने की बातें भी करने लगे। संन्यास लेने की बातें हैं तो बहुत अच्छी; पर उसे कोई यथार्थ रूप से ग्रहण कर सके तब न! अधिकांश तो ऐसे लोगों का मरघटया वैराग्य ही होता है। अतः मैंने उन्हें और थोड़ा टटोलने की कोशिश की। ____ मैंने सोचा - "कहीं सचमुच ऐसा न हो कि सच्चे वैराग्य के बजाय ये लोग पारिवारिक परिस्थितियों से परेशान होकर कहीं किसी से द्वेष या घृणा करने लगे हों और ये स्वयं भ्रम से उसे ही वैराग्य मान बैठे हों। इन परिस्थितियों में भी लोग सभ्य भाषा में ऐसा ही बोलते हैं। न केवल बोलते हैं, कभी-कभी उन्हें स्वयं को ऐसा लगने भी लगता है कि वे विरागी हो रहे हैं; जबकि उन्हें वैराग्य नहीं, वस्तुतः द्वेष होता है। केवल राग अपना रूप बदल लेता है, वह राग ही द्वेष में परिणित हो जाता है, जिसे वे वैराग्य या संन्यास समझ लेते हैं।" जब मैंने उनके अन्तर्मन को और गहराई से टटोला तो ज्ञात हुआ कि वस्तुतः वे संघर्षों का सामना न करके उनसे घबराकर पलायन कर रहे थे। (20)

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