________________
विदाई की बेला/५ तत्त्वज्ञान के अभाव में भला कोई संन्यास की ओर अग्रसर कैसे हो सकता
मेरे आत्मीय व्यवहार से उन्हें ऐसा लगा, मानो मैं उनसे चिरपरिचित हूँ। अतः उन्होंने आत्मीयता दिखाते हुए कहा - "भाई! क्षमा करना, हमें याद नहीं आ रहा कि हम आपसे इसके पहले कब/कहाँ मिले? पर मिले कहीं अवश्य हैं।" ___मैंने उनसे कहा – “मैं आप लोगों की बातें पिछले चार दिनों से सुन रहा हूँ बस, उन्हीं बातों से मैं आपके नाम, व्यक्तित्व एवं विचारों से परिचित हुआ हूँ। मेरे ध्यान से तो मेरा आप लोगों से संभवतः यह प्रथम परिचय ही है। पर आप लोग मुझे भी चिर-परिचित से ही लगते हैं।
यद्यपि लोकनीति के अनुसार प्रथम परिचय में मुझे आपसे उपदेश की भाषा में किसी प्रकार की बात नहीं करनी चाहिए, पर आप लोगों के प्रति मुझे सहज धर्मस्नेह हो गया, अतः मैं दुःसाहस करके कुछ कहना चाहता हूँ, इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ।" ___मेरी बात सुनकर सदासुखी ने अत्यन्त विनम्रता से कहा - "आप कैसी बातें करते हैं। यह तो हमारा परम सौभाग्य है जो हमें आप जैसे सत्पुरुष का सहज समागम हो गया है। आप जो भी कहना चाहें, अवश्य कहें। हमें तो आपकी सलाह से कुछ न कुछ लाभ ही होगा।"
मैंने कहा - "आप लोग अपने जीवन में हुई भूलों पर पश्चाताप करके अपने पापों का प्रक्षालन करने एवं दोषों को दूर करने का जो प्रयास कर रहे हैं, वह तो बहुत अच्छी बात है, पर अभी तक आपने केवल अपने पारिवारिक जीवन की ही समीक्षा की है, अपने परलोक की दृष्टि से भी तो अपनी सम्यक् समालोचना कीजिए। उसके बिना संन्यास व समाधि की प्राप्ति होना कैसे संभव है?"
साथ ही जब मैंने उन्हें अपना सामान्य-सा परिचय दिया तो विवेकी ने कहा - "ओह! आप तो लेखक भी हैं? मैंने आपकी कई पुस्तकें पढ़ी
विदाई की बेला/५ हैं। तभी तो मैंने मन ही मन सोचा कि “मैंने आपको पहले भी कहीं देखा है। अब याद आया कि मैंने आपको प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष रूप में पुस्तकों में देखा है। __भाई! अब तो आप हमारे परोक्ष गुरु भी हैं, हमने तो आपकी पुस्तकों से बहुत कुछ सीखा है। पर प्रत्यक्ष गुरु के बिना ज्ञान नहीं होता। पुस्तकें कोई कितनी भी क्यों न पढ़ लें, पर प्रत्यक्ष चर्चा से जो स्पष्टीकरण होता है, वह स्वयं पढ़ने से नहीं। यह बात अवश्य है कि गुरु तो कभीकभी ही मिल पाते हैं और जिनवाणी तो नित्यबोधक हैं, सदा अपने साथ है, जब मन में आये पढ़ो। मैं गुरु की महिमा बताकर जिनवाणी की उपयोगिता से इंकार नहीं कर रहा हूँ। फिर आपका लिखने का ढंग तो समझाने जैसा ही सरल होता है। अतः पढ़ने का महत्त्व अलग है और सुनने का अलग। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं।
जब आपसे प्रत्यक्ष परिचय हो ही गया है तो अब तो आप हमें यह बता कर ही जाइए कि हमें अपने शेष जीवन को कैसे जीना चाहिए?
हमने अपने जीवन में इस जगत के स्वरूप को अच्छी तरह देखपरख लिया है, अतः अब हमारा जी इस जगत से ऊब गया है। सारा जगत स्वार्थी है, कोई किसी का नहीं है। चाहे वह जीवन भर साथ निभाने की कसमें खाने वाली पत्नी हो या भाई-भतीजे हों । क्या पत्नी और क्या पुत्र-पौत्र, सभी अपने-अपने सुख के संगाती हैं, स्वार्थ के साथी हैं। शास्त्रों में भी जगह-जगह यही सब कहा है। देखिये वैराग्य भावना की कुछ पंक्तियाँ -
कमला चलत न पैंड जाय मरघट तक परिवारा ।
अपने-अपने सुख को रोवें पिता-पुत्र-दारा ।। प्राणांत होने के बाद कमला (धन-दौलत) जीव के साथ एक कदम भी तो नहीं जाती। जहाँ की तहाँ पड़ी रहती है। परिजन-पुरजन भी केवल मरघट तक जाकर लौट आते हैं। पुत्र-पौत्रादि कुटम्बीजन तीन दिन बाद अपने-अपने धंधे में लग जाते हैं और तेरह दिन बाद तो मानो उन सबके
(21)