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विदाई की बेला/४
साथ उनका पुण्य भी क्षीण हो चला था। जिसतरह जब सरोवर सूखता है तो सब ओर से ही सूखता है, उसी तरह जब पुण्य क्षीण होता है तो सब
ओर से ही क्षीण होता है। ___ सदासुखी व विवेकी इसी स्थिति में आ चुके थे। अब उन्हें क्या घर पर और क्या दुकान पर - दोनों ही जगह दो हाथ जमीन भी गौरव के साथ बैठने के लिए नसीब नहीं रही थी। दुकान पर जाते तो बेटे घर पर आराम व स्वाध्याय करने का उपदेश देते और जब घर होते तो न केवल बहूबेटियाँ, बल्कि नाती-पोते तक उन्हें भगवान का भजन-पूजन करने और प्रवचन सुनने व सत्संग करने हेतु तीनों समय मंदिर जाने की सलाह दिया करते।
उनके परिवार में किसी को उनके आराम व कल्याण की किंचित् भी परवाह नहीं थी और न स्वयं परिजनों को भी भगवान के भजन-पूजन, स्वाध्याय व सत्संग से कोई सरोकार था। उन्हें तो केवल उन बूढ़ों की घर व दुकान पर उपस्थिति अभीष्ट नहीं थी; क्योंकि एक तो किसी भी काम में उनकी टोका-टाकी पसंद नहीं थी और दूसरे, दुकान में जगह की कमी तो थी ही, अतः बिना काम व्यर्थ में ही कोई थोड़ी-सी भी जगह क्यों घेरे? तीसरी मुख्य बात यह थी कि - बहू-बेटियाँ व नाती-पोते अपने स्वच्छन्द आचरण में उन्हें बाधक मानते थे; अतः वे उन्हें आँख की किरकिरी की तरह खटकने लगे थे।
इस तरह घर व दुकान - दोनों जगह से उपेक्षित वे दोनों अपनेअपने घर के बाहर के बरामदों में बैठे-बैठे ऊब भी जाते थे। अतः शाम होते ही उनका सैर-सपाटे का मन होना स्वाभाविक ही था। सो शाम होते ही वे मन बहलाने और जी हल्का करने के लिए उसी उपवन में पहुँच जाते।
यद्यपि सदासुखी और विवेकी को रहीम कवि का यह दोहा बहुत अच्छी तरह याद था :
विदाई की बेला/४
रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय।
सुन इठिलैहैं लोग सब बांट न लैहें कोय ।। विवेकियों को अपने मन की व्यथा अपने मन में ही रखनी चाहिए। हर किसी से कहनी नहीं चाहिए; क्योंकि दूसरों से कहने से कोई लाभ नहीं होता, अपनी व्यथा को न तो हर कोई समझ ही सकता है और न कम ही कर सकता है। जिससे भी हम अपने दिल का दुःख-दर्द कहेंगे, वह या तो राग-द्वेष व अज्ञानवश हमारा ही दोष बताकर हमें और अधिक दुःखी कर देगा या फिर हमें दीन-हीन दुःखी, मुसीबत का मारा मानकर दयादृष्टि से देखेगा। हमारी और हमारे परिवार की कमजोरियों को यहाँ-वहाँ कहकर बदनामी भी कर सकता है और हमारी कमजोरियों का गलत फायदा भी उठा सकता है।
इन सब हानियों को जानते हुए भी उनसे रहा नहीं जाता था; क्योंकि परिवार की उपेक्षा से उनका मन दिनभर में इतना बोझिल हो जाता कि उन्हें आपस में अपना दुःख-सुख कहे बिना चैन नहीं पड़ती। उन्हें ऐसा लगने लगता था कि यदि वे अपने मन के गुब्बार नहीं निकालेंगे तो कहीं पागल न हो जाएँ। अतः वे शाम को घूमने-फिरने के समय अपने-अपने मन की बातें कहकर मन हल्का कर लिया करते थे। यदि उनके बेटेबहुओं में कोई जरा भी समझदार होता तो संभवतः स्थिति यहाँ तक नहीं पहुँचती कि उन्हें घर की बात बाहर कहने को मजबूर होना पड़ता।
भले ही वे पढ़े-लिखे नहीं थे, विद्वान नहीं थे, पर निरे बुद्ध भी नहीं थे, बल्कि वे बुद्धिमान थे, समझदार थे। जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव देखे थे, अतः लौकिक दृष्टि से अनुभवी भी हो गये थे।
व्यक्ति विद्वान न हो तो भी बुद्धिमान हो सकता है; क्योंकि विद्या अर्जित ज्ञान को कहते हैं और बुद्धि जन्मजात प्रतिभा को, जो उनमें थी; अन्यथा वे अपने जीवन में इतनी उन्नति कैसे कर लेते? इस कारण उनकी
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