Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ विदाई की बेला/३ छोड़ ही दिया है। मैं आप लोगों के पास इसी इरादे से आना चाहता था, अच्छा है आप पहले से ही सचेत हैं। भविष्य में ऐसा कोई विकल्प आ भी जाये तो आप ऐसी गलती कभी नहीं करना।" ____ मैंने उनसे आगे कहा - "भाई! मैं भी संघर्षों में ही पैदा हुआ, संघर्षों में ही पला-पुसा और बड़ा हुआ हूँ, पढ़ा-लिखा हूँ; मैंने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं, सभी तरह के संघर्ष झेले हैं। अतः अब मैं छोटे-मोटे संघर्षों से नहीं घबराता। यह सब तो पुण्य-पाप के खेल हैं, आती-जातीं क्षणिक अवस्थायें हैं, इनसे क्या घबराना? एक कवि ने तो संघर्षों का स्वागत करते हुए यहाँ तक लिख दिया विदाई की बेला/३ रहेगा। और यदि बेमौत मरने का विचार होगा तो वह विचार भी छोड़ देगा। बेमौत मरने से कोई फायदा नहीं, हमने एक पुस्तक में पढ़ा था कि 'जो कर्म किए हैं, उन्हें तो भोगना ही पड़ेगा, चाहे जीवित रहकर भोगे या मरकर ।' तब से हमने भी यह विचार छोड़ दिया है, अन्यथा परेशानियों में ऐसे विचार तो हमें भी बहुत बार आये थे।" यह तो एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि - “सामाजिक और पारिवारिक प्राणियों को अकेलापन काटने को दौड़ता है। अतः आपको ऐसा अकेले बैठा देखकर हमने यह निश्चय किया कि क्यों न आपको भी अपना साथी बना लें, ताकि आपका समय भी चर्चा-वार्ता में आसानी से कट जाया करेगा।" उन दोनों की बातें सुनकर मैंने कहा - "भला, बेमौत मरना भी कोई मरना है। यद्यपि मैं पहले बहुत बार मरने की सोच चुका हूँ। एक-दो बार तो मैं मरने से बाल-बाल ही बचा हूँ; सद्भाग्य से मुझे एक ऐसे सत्पुरुष का समागम मिल गया, जिनके कारण मेरी अमूल्य मनुष्य पर्याय सार्थक हो गईं। उन्होंने मुझे बताया कि - "भाई! ऐसी भूल कभी मत करना; क्योंकि जिस दुःख के भय से घबराकर तुम बेमौत मरना चाहते हो, उस दुःख से तुम्हें ऐसे बेमौत मरने से भी छुटकारा नहीं मिलेगा। जो पाप-पुण्य हमने किये हैं, उनका फल तो भोगना ही पड़ेगा। इस जन्म में नहीं भोगे तो अगले जन्म में फिर वैसी ही परिस्थितियाँ बनेंगी, और वहाँ फिर यही सब दुःख सहने होंगे।" उन सत्पुरुष ने यह भी बताया कि - "इस तरह की मौत बिना संक्लेश परिणामों के नहीं होती तथा संक्लेश परिणामों के साथ मरने से नियम से कुगति होती है। नरक, निगोद या तिर्यंच गति में जाना पड़ता है, अत: ऐसी गलती कभी नहीं करना । तब से मैंने बेमौत मरने का तो इरादा 'जितने कष्ट-कंटकों में, जिसका जीवन सुमन खिला। गौरव-गंध उन्हें उतना ही, यत्र-तत्र सर्वत्र मिला ।। पर मेरे सद्भाग्य से वर्तमान में मेरी सब पारिवारिक परिस्थितियाँ मेरे अनुकूल हैं। मुझे वर्तमान में अपने परिवारजनों के कारण कोई विशेष कष्ट नहीं है। क्षणिक मोह-राग-द्वेष के कारण जो दूसरों के साथ छुट-पुट घटनायें या द्वंद्व हो जाते हैं, उनको भी मैं संसार का स्वरूप जानकर तथा सामने वाले का क्षणिक मनोविकार मानकर तत्त्वज्ञान के सहारे गौण कर देता हूँ, अपने पर नियंत्रण करके मैं किसी तरह टाल देता हूँ और बाद में जब अपराधी का क्रोधावेश समाप्त हो जाता है और विवेक जागृत होता है तो वह अपने अपराध को स्वीकार कर स्वयं ही मेरे पास क्षमा याचना की मुद्रा में आकर खड़ा हो जाता है।" मेरा यह प्रयोग बहुत ही सफल सिद्ध हुआ है। यदि आप लोग भी यह प्रयोग करें तो मैं समझता हूँ आपकी पारिवारिक परेशानियाँ भी कम हो सकती हैं। अरे! आप ही सोचिए न! “मोह राजा के साम्राज्य में यह सब कषायचक्र नहीं चलेगा तो और कहाँ चलेगा? पर यह सब स्थाई नहीं है, (15)

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