Book Title: Vidaai ki Bela
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ विदाई की बेला/३ नियम से मरने वाला है। क्षण भर बाद चले जाने वाले मनोविकारों के चक्कर में फंस कर अपने आत्मा का घात क्यों करें?" मैंने आगे कहा - "आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि यह मनुष्य पर्याय, उत्तमकुल व जिनवाणी का श्रवण उत्तरोत्तर दुर्लभ है। अनन्तानन्त जीव अनादि से निगोद में हैं, उनमें से कुछ भली होनहार वाले बिरले जीव भाड़ में से उचटे बिरले चनों की भाँति निगोद से एकेन्द्रिय आदि पर्यायों में आते हैं। वहाँ भी वे लंबे काल तक पृथ्वीजल-अग्नि-वायु एवं वनस्पतिकायों में जन्म-मरण करते रहते हैं। उनमें से भी कुछ बिरले जीव ही बड़ी दुर्लभता से दो-इंद्रिय, तीन-इंद्रिय, चारइंद्रिय एवं पंचेद्रिय पर्यायों में आते हैं। यहाँ तक तो ठीक, पर इसके बाद मनुष्यपर्याय, उत्तमदेश, सुसंगति, श्रावककुल, सम्यक्दर्शन, संयम, रत्नत्रय की आराधना आदि तो उत्तरोत्तर और भी महादुर्लभ है। अतः इस तरह वर्तमान दुःखों से घबड़ाकर बेमौत मरने की भूल कभी नहीं करना । अन्यथा अपघात करने का फल जो पुनः नरक निगोद में जाना है, उससे कोई नहीं बचा पायेगा।" मेरी ये प्रेरणाप्रद बातें सुनकर वे दोनों मित्र गद्-गद् हो गये। अश्रुपूरित नयनों से विवेकी ने कहा - "धन्य हैं आप! हम लोग आपके बारे में क्या सोचकर आये थे और आप क्या निकले। आप तो वस्तुतः बहुत सुलझे हुए विचारवान चिन्तक पुरुष हैं। आपने तो हमारी आँखें ही खोल दी हैं। कहिए, यहाँ आप कहाँ ठहरे हैं? वहाँ आपको कोई कष्ट तो नहीं है, सब कुशल मंगल तो है न? ___ मैंने उन्हें अपना सामान्य परिचय देते हुए कहा - "भाई! यदि रहीम कवि की नीति पर मैं चलूँ, उनकी नेक सलाह मानूँ तो मुझे यही कहना चाहिए कि - 'नहीं-नहीं मुझे कोई कष्ट नहीं है, आप लोगों के आशीर्वाद से मैं पूर्णतः सानन्द हूँ।' वस्तुतः हर किसी के सामने अपने दिल का दर्द या मन की व्यथा कहने से कोई लाभ नहीं है। इस मशीनी युग में किसी को न तो किसी के विदाई की बेला/३ कष्ट सुनने की फुरसत है और न उन्हें सहयोग करने व सहानुभूति प्रदर्शित करने का ही समय है। अतः किसी से कुछ कहना, 'भैंस के आगे बीन बजाना' है, अरण्य-रुदन करना है। आज कुशल-क्षेम पूछना भी मात्र औपचारिकता बन कर रह गया है, एक रिवाज-सा हो गया है, किसी को किसी की वास्तविक कुशलक्षेम से कोई लेना-देना नहीं है। अतः औपचारिक तौर पर तो यही उत्तर उत्तम है। पर, वास्तविकता इससे बिल्कुल जुदी है, जिसे हम भूधर कवि कृत जैनशतक की निम्नांकित पंक्तियों में देख सकते हैं : जोई दिन कट, सोई आयु में अवश्य घटै; बूंद-बूंद बीते, जैसे अंजुलि को जल है। देह नित छीन होत, नैन तेज हीन होत; जीवन मलीन होत, छीन होत बल है। आवै जरा नेरी, तकै अंतक अहेरी; आबै परभौ नजीक, जात नर भौ निफल है। मिलकै मिलापी जन, पूछत कुशल मेरी; ऐसी दशामांही मित्र! काहे की कुशल है ।।३७ ।। यदि इस संसार में पुण्यात्मा से पुण्यात्मा जीव भी कुशल-मंगल से होता, पूर्ण सुखी होता तो यहीं मोक्ष होता; फिर मोक्ष के लिए कोई प्रयत्न ही क्यों करता? ___ इस प्रकार हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि तत्त्वज्ञान के बिना संसार में कोई सुखी नहीं है। अतः हमें हर हालत में मात्र तत्त्वज्ञान प्राप्त करने का ही प्रयत्न करना चाहिए।" मेरे इन विचारों को सुनकर विवेकी एवं सदासुखी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अनुरोध किया कि जब तक आप यहाँ रहें, तब तक अपने सत्समागम का लाभ अवश्य देते रहें। (16)

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78