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विदाई की बेला/२
से यहाँ इसी प्रकार बैठा देखते हैं, यह कौन है? ___ पहले एक-दो दिन तो मैं यों ही बातों-बातों में टाल गया, पर प्रतिदिन कोई न कोई पूछे तो कहाँ तक टाला जा सकता था? और उनके ग्रामीण रहन-सहन के कारण मेरे हृदय में हीन भावना तो जागृत हो ही गई थी, अतः मैंने यह कहना प्रारंभ कर दिया कि - यह हमारे पिताजी के पुराने जमाने का नौकर है, बूढ़ा हो गया सो अब बेचारा जाए तो कहाँ जाए? इस कारण दोनों समय घर पर भोजन करता है और आराम से यहाँ बैठा रहता है। इसने जिन्दगी भर हमारी सेवा की तो अपना भी तो कुछ कर्तव्य बनता है न?"
यह बात जब पिताजी ने सुनी तो वे मन ही मन बहुत दुःखी हुए और उन्होंने कारखाने के ऑफिस में आना ही बंद कर दिया।
इधर घर पर घरेलू कामों में माताजी के हस्तक्षेप से मेरी पत्नी भी परेशान थी। अतः एक दिन जब उसने मेरा मूढ़ अच्छा देखा, मुझे प्रसन्न चित्त देखा तो भोजन करते समय वह बोली - "क्योंजी, क्यों न माताजी व पिताजी की खटिया ऊपर के कमरे में डाल दी जाये, ताकि उनकी यह रोज-रोज की चिक-चिक ही समाप्त हो जाये। 'फिर न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।' ___ मैं तो उनकी बिना काम की बातों से परेशान हो गई हूँ। दिन भर कुछ न कुछ कहती ही रहती हैं।
और हाँ, सुनो! कुम्हार से कह दिया जाय कि वह मिट्टी के चौड़े से दो बर्तन प्रतिदिन दे जाया करे, जिनमें इन्हें दोनों समय का भोजन पप्पू के हाथ से भेज दिया करूँगी। उनके जूठे बर्तन रोज-रोज कौन साफ करें? पप्पू से कह देंगे सो वह उनके जूठे बर्तन फैंक दिया करेगा।" ___ मुझे प्रश्नसूचक गंभीर मुद्रा में देखकर मेरी पत्नी ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा - "मुझे एक सबसे बड़ी समस्या यह भी है कि यहाँ
विदाई की बेला/२ बैठक में एक तो इनके कारण पूरी सफाई नहीं रह पाती, दूसरे, जो भी मिलने-जुलने आता है, वही पूछता है - यह देहातिन-सी बूढ़ी औरत कौन हैं? आप ही बताइए - मैं रोज-रोज क्या जवाब दूं? मैं तो यह कहते-कहते थक गई हूँ कि यह हमारी सासूजी के जमाने की नौकरानी है, जिन्दगी भर यहाँ रही, अब कहाँ जाए? यद्यपि इससे अब काम करते नहीं बनता, फिर भी बेचारी से जो भी बनता है, दिन भर करती ही रहती है। चार रोटियाँ, चार कपड़े और चार हाथ जगह ही तो चाहिए इसे।" इस तरह बातें बनाकर उनसे बड़ी मुश्किल से जान छुड़ा पाती हूँ।"
उसकी बात सुनकर मुझे जीवन में उस दिन पहली बार ऐसा लगा कि "वाह! इसमें भी कुछ अकल तो है ही, जो उपाय मैंने सोचा, वही इसने भी..."
सदासुखी ने अपनी आपबीती कहानी सुनाते हुए आगे कहा - "उस समय उसकी यह बात मुझे भी अँच गई और हम दोनों ने मिलकर यह व्यवस्था कर दी। ___इस घोर अपमान का धक्का वे सह नहीं सके और उन्हें सीवियर हार्ट अटैक हो गया, गंभीर दिल का दौरा पड़ गया। हम तो अपने स्वार्थ से उन्हें बेडरेस्ट कराने के बहाने एक कमरे में कैद करने की योजना बना ही चुके थे, प्रकृति ने भी उन्हें परमानेन्ट कम्पलीट बेडरेस्ट करा दिया। उन्होंने इसे भी अपने कर्मोदय का फल मानकर सहज होने का बहुत प्रयत्न किया, पर वे संपूर्णतः सहज रह नहीं पाये। वे जीवन के अन्त तक उस विषम परिस्थिति को संसार का स्वरूप जानकर एवं अपने पापोदय का फल मानकर धैयपूर्वक झेलते रहे।
जब पेट जाये सगे बेटे-बहू ने मिलने वालों के सामने अपनी झूठी आन-बान रखने के लिए, अपना मिथ्या अहंकार पुष्ट करने के लिए अपने देहाती माता-पिता को माता-पिता मानने से इंकार करते हुए उन्हीं
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