Book Title: Vasunandi Shravakachar Author(s): Hiralal Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 9
________________ सम्पादकीय वक्तव्य सन् १६३६ के प्रारम्भमै डॉ० श्रा० ने० उपाध्याय धवला-संशोधन-कार्यमे सहयोग देनेके लिए अमरावती आये थे। प्रसंगवश उन्होंने कहा कि 'वसुनन्दि-श्रावकाचार के प्रामाणिक संस्करणकी आवश्यकता है और इस कार्यके लिए जितनी अधिकसे अधिक प्राचीन प्रतियोंका उपयोग किया जा सके, उतना ही अच्छा रहे । मेरी दृष्टिमे श्री ऐलक पन्नालाल-सरस्वती-भवन झालरापाटन और ब्यावरकी पुरानी प्रतियां थी, अतः मैंने कहा कि समय मिलते ही मै इस कार्यको सम्पन्न करूँगा। पर धवला-सम्पादन-कार्यमै संलग्न रहनेसे कई वर्ष तक इस दिशामें कुछ कार्य न किया जा सका। धवला-कार्यसे विराम लेनेके पश्चात् मैं दुवारा उज्जैन आया, ऐलक-सरस्वती भवनसे सम्बन्ध स्थापित किया और सन् ४४ मे दोनों भंडारोंकी दो प्राचीन प्रतियोंको उज्जैन ले आया । प्रेसकापी तैयार की और साथ ही अनुवाद भी प्रारंभकर आश्विन शुक्ला १ सं० २००१ ता० १८-६-४४ को समाप्त कर डाला। श्री भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशनके विषयमें प्रारम्भिक बात-चीत भी हुई, पर मैं अन्य कार्यों में उलझा रहने से ग्रन्थ तैयार करके भी ज्ञानपीठ को न भेज सका। सन् ४८ मे एक घरू-कार्य से प्रयाग हाईकोर्ट जाना हुआ। वर्षों से भारतीय ज्ञानपीठ काशी के देखने की उत्सुकता थी, अतः वहाँ भी गया । भाग्यवश ज्ञानपीठ मै ही संस्था के सुयोग्य मंत्री श्री अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय से भेंट हुई। चर्चा छिड़ने पर उन्होने कोई ग्रन्थ संस्था को प्रकाशनार्थ देने के लिए कहा। बसुनन्दि-श्रावकाचार की पांडुलिपि मेरे साथ थी, अतः मैंने उनके हाथों में रख दी। संस्था के नियमानुसार वह पांडुलिपि प्राकृत-विभाग के प्रधान सम्पादक डॉ श्रा• ने. उपाध्याय के पास स्वीकृति के लिए भेज दी गई। पर प्रस्तावना लिखनी शेष थी, प्रयत्न करने पर भी उसे मैं न लिख सका । सन् ५१ के प्रारम्भ मे उसे लिखकर भेजा। डॉ० सा० ने प्रो० हीरालाल जी के साथ इस वर्ष के ग्रीष्मावकाश मे उसे देखा, और आवश्यक सूचनाश्रो वा सत्परामर्शके साथ उसे वापिस किया और श्री गोयलीयजीको लिखा कि पं० जी से सूचनाओं के अनुसार संशोधन कराकर ग्रन्थ प्रेस में दे दिया जाय । यद्यपि मैंने प्रस्तावना व परिशिष्ट आदि मे उनकी सूचनाओं के अनुसार संशोधन और परिवर्तन किया है, तथापि दो-एक स्थल पर अाधार के न रहने पर भी आनुमानिक-चर्चा को स्थान दिया गया है, वह केवल इसलिए कि विद्वानों को यदि उन चर्चाओं के आधार उपलब्ध हो जाये तो वे उसकी पुष्टि करें, अन्यथा स्वाभिप्रायो से मुझे सूचित करें । यदि कालान्तर में मुझे उनके प्रमाण उपलब्ध हुए या न हुए ; तो मैं उन्हें नवीन संस्करण में प्रकट करूँगा। विद्वजनों के विचारार्थ ही कुछ कल्पनाओ को स्थान दिया गया है, किसी कदाग्रह या दुरभिसन्धि से नहीं। स्वतंत्रता से सहाय-निरपेक्ष होकर ग्रन्थ-सम्पादन का मेरा यह प्रथम ही प्रयास है। फिर श्रावक-धर्म के क्रमिक-विकास और क्षुल्लक-ऐलक जैसे गहन विषय पर लेखनी चलाना सचमुच दुस्तर सागर में प्रवेश कर उसे पार करने जैसा कठिन कार्य है । तथापि जहाँ तक मेरे से बन सका, शास्त्राधार से कई विषयों पर कलमPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 224