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इसमें जल पूजा का या अष्ट प्रकारी पूजा का कोई उल्लेख नही है। इससे यह सिद्ध होता है कि उस समय प्रति दिन जलाभिषेक आवश्यक नहीं था । और वृद्धवादानुसार इस ग्रंथ को महावीर प्रभु के हस्तदीक्षित शिष्य द्वारा रचित माना जाय तब उस समय भी श्रावक के कर्तव्य में जिन पूजा मुख्य प्रधान कर्तव्य माना
जाता था।
इस ग्रंथ में आराधकों के लिए मार्ग दर्शाया है वैसे विराधक साधुओं को करारी चोट से प्रहार भी किये हैं। विराधक साधु को अनंत संसारी दर्शाया है। इस ग्रंथ का अध्ययन किसे करवाना किसे न करवाने पर भी विस्तृत एवं अतीव उपयोगी मार्गदर्शन दिया है।
संघण बल की कमी के कारण पूर्ण रूप से आगमोक्त चारित्र का पालन न हो तो आराधक के तीन वर्ग बताकर संविग्न पाक्षिक नामक तीसरे वर्ग में रहकर आराधक बनने का मार्ग बताया है।
उपदेश मालाकार का मूल लक्ष्य यही दिखता है कि पूर्व पूण्योदय से चारित्र मिला हैं तो उसे जघन्य कोटी की आराधना से भी सफल बनावें। इस चारित्रावस्था को निष्फल न जानें दे।
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मैंने तो इस ग्रंथ का व्याख्यान में कई बार वांचन किया है। इस पर मनन चिंतन भी किया है। इस पर चिंतन मनन से चारित्रिक शिथिलताओं को दूर करने के लिए प्रयत्नशील भी हूँ। फिर भी कई प्रकार की मानसिक विकृतियाँ को सर्वथा नष्ट करने में सर्वथा सफलता नहीं मिली। फिर भी प्रयत्न सतत चालु है।
इसका हिन्दी अनुवाद करना प्रारंभ किया और मुनि श्री पद्मविजयजी कृत · हिन्दी अनुवाद नजर में आया इससे अनुवाद करना बंद कर इसी अनुवाद को सुधारकर छपवाने का निर्णय किया। हेयोपादेय टीका से मूल गाथाएँ सुधारने का प्रत्यन किया है। फिर भी अशुद्धि रही हो तो संपादक को सूचित करने की कृपा करावें ।
मुनिराज श्री पद्मविजयजी का आभार एवं ऋण स्वीकारकर उनका ही यह अनुवाद पुनः प्रकाशित कर रहा हूँ। अनुवाद को तीन बार पढ़ा है सुधारने का प्रयत्न किया है फिर भी त्रुटी रही हो तो सुधारकर पढ़े।
जिनाज्ञा विरुद्ध लिखा गया हो तो मिच्छा मि दुक्कडम्।
जयानंद
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