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तथा सामान्यजन-ग्राह्य बनाने के लिए आपने अपनी टीका द्वारा पूर्णरूपेण प्रयत्न किया है।
इस ग्रंथराज के रचयिता श्री धर्मदास गणि हैं, जिनके विषय में टीकाकार का मत है कि वे भगवान् महावीर स्वामी से दीक्षित हुए थे। गृहस्थावस्था में आप विजयपुर नगर के राजा विजयसेन के पुत्र थे। बाद में आपने अपने पुत्र को प्रतिबोध देने के लिए इस 'उपदेश माला' ग्रंथ की रचना की थी।
. श्री धर्मदास गणि का भगवान् महावीर के पास दीक्षित होने का टीकाकार का मत असंदिग्ध नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इस ग्रंथ में भगवान् के निर्वाण के उत्तरकालीन साधुओं की जीवनगाथाएं दी गयी हैं। साथ ही संविग्नपक्ष पर बहुत जोर दिया है; जो भगवान् महावीर के कई वर्षों के बाद ही उदय में आया है।. इसीलिए कुछ विद्वानों का मत है कि ये वीर निर्वाण के बाद पांचवी शताब्दी में हुए थे। यह मत फिर भी तथ्य के निकट है। क्योंकि उस युग में दीर्घकालीन दुष्कालों का बड़ा जोर था; इस कारण बहुत से साधु साधुवेष रखकर साध्वाचार में शिथिल हो रहे थे। यही कारण है कि श्रीधर्मदास गणि ने इस ग्रंथ में शिथिलाचारियों को खूब आड़े हाथों लिया है। ऐतिहासिक खोज करना इतिहासविदों का काम है। मैंने तो ग्रंथ को उपादेय समझकर तटस्थभाव से इसका सटीक अनुवाद किया है। फिर टीकाकार के मत से अनुवादक का सहमत होना कोई आवश्यक भी नहीं।
इस ग्रंथ की संस्कृत टीका का हिन्दी-अनुवाद करने में मैंने हिन्दी की सरस-सरल शैली में भावाभिव्यंजन और दुरुह एवं कठिन शब्दों के बदले सरल शब्दों का प्रयोग करने की नीति अपनायी है। अनुवाद कैसा और किस ढंग का हुआ है? इसके निर्णय का भार मैं अपने सुज्ञ पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। मैंने अपनी गति-मति के अनुसार इसे सरस और सर्वजनग्राह्य बनाने का प्रयास किया है। मेरी मतिमंदता या अल्पज्ञता के कारण मूलग्रंथकार या टीकाकार के आशय के विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो सुज्ञजन मुझे क्षमा करें। जैन उपाश्रय, गुरुवारपेठ, पूना-२
हिताकांक्षीश्री वल्लभस्वर्गारोहण तिथि
मुनि पद्मविजय आश्विन वदी एकादशी, दिनांक १५/९/७१
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