Book Title: Updeshmala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 13
________________ मर्यादा, आचरणपरायणता, क्षमा आदि धर्मों के पालन, पंच महाव्रतों और अष्ट प्रवचन माताओं की चर्या से रहित जीवन बिताने लगे तो संसार को वह क्या दे सकेगा? इसी दृष्टिकोण को लेकर श्री धर्मदास गणि ने उस युग के शिथिलाचारी उदरम्भरी साधुओं को खूब फटकारा है। यहाँ तक कि उन्हें साधुधर्म और श्रावकधर्म दोनों से भ्रष्ट और अनन्तसंसार-परिभ्रमणशील कहा है। सच्चे सुसाधु की पहचान भी बतायी है। मतलब यह है कि इस ग्रंथराज के द्वारा साधुता के मूल्यों की सुरक्षा और भौतिकता के प्रवाह में बहते हुए साधुवर्ग को सच्ची साधुता की ओर मोड़कर शुद्ध मूल्यों का प्रसार हो सकेगा, इसमें कोई संदेह नहीं।। इस ग्रंथ पर अनेक टीकाएं आज तक लिखी गयी है। कुछ ये हैं१. । कृष्णर्षि के शिष्य जयकीर्ति कृत वृत्ति, प्राकृतभाषा में विक्रम संवत ___ ९१३ में बनायी है। २-३. दुर्गस्वामी के शिष्य सिद्धर्षिगणि कृत हेयोपादेया बृहत् टीका और लघुवृत्ति। बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि के शिष्य श्री रत्नप्रभसूरि कृत दोघट्टी विशेषवृत्ति, . विक्रम संवत १२३८ में रचित। नागेन्द्रगच्छीय श्री विजयसेनसूरि के शिष्य श्री उदयप्रभाचार्य कृत कर्णिका, विक्रम संवत १२९८ में रचित। इस प्रकार इस महाकाय ग्रंथ पर अवचूरि, विवरण, बालावबोध आदि कुल मिलाकर ३२ टीकाएं उपलब्ध है। उनमें से तीन टीकाएं ही अभी तक मुद्रित हुई हैं। इस ग्रंथ के अंतिम टीकाकार श्री रामविजय गणिवर है। उन्हीं के द्वारा रचित टीका का यह हिन्दी अनुवाद है। इनकी विशाल टीका मुझे बहुत पसंद आयी। इसकी विशेषता यह है कि इसमें कथाएं विस्तृत रूप से देकर विषय को रोचक और स्पष्ट बना दिया गया है। यद्यपि टीकाकार ने अपना परिचय, प्रशस्ति या रचनाकाल ग्रंथ की समाप्ति पर नहीं लिखा, तथापि इतना अवश्य प्रसिद्ध है कि ये आचार्य हीरविजयसरि महाराज की परंपरा के थे। इनके गुरु मुनि श्री सुमतिविजयजी थे। वे उपाध्याय यशोविजयजी के समकालिन थे। इस टीका का लेखन काल विक्रम संवत १७८१ माना जाता है। जो भी हो, ग्रंथ को सर्वांगसुंदर iv =

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