Book Title: Tulsi Prajna 1995 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधिविश्वे निषेदुः । यस्तन्नवेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्ते अमी समासते || — ऋग्वेद, १.१६४.३१ अर्थात् ऋचाएं परम अविनाशी शब्द मय अक्षर में ठहरी हैं जिनमें देवता अर्थात् शब्द के विषय (अर्थ) ठहरे हैं । जो उस अक्षरार्थं को नहीं जानता वह ऋचाओं से क्या लाभ प्राप्त करेगा महाभाष्यकार महर्षि पतंजलि ने भी वर्णों का या वर्ण मातृका का बड़ा महत्त्व प्रतिपादित किया है । वे ब्रह्म ज्ञान के लिये वर्ण ज्ञान को परमावश्यक मानते हैं वणं ज्ञानं वाग्विषयो यत्र च ब्रह्म वर्तते । तदर्थमिष्ट बुद्धयं लघ्वर्थं चोपदिष्यते ॥ - महाभाष्य १।१२ के शैव तन्त्र में ६४ कलाओं का प्रतिपादन किया गया है तो पाणिनीय शिक्षा में भी "त्रिषष्टिः चतुः षष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मता :" अर्थात् परमात्मा के मतानुसार वर्ण ६३ या ६४ हैं । जैनागम का हृदय बिन्दु सिद्ध चक्र भी वर्ण माला का समुदाय है एवं ऋषि मंडल यंत्र में भी इसी सिद्ध वर्ण की उपासना समंकित है । इन वर्णों का प्रत्येक का अपना आकार एवं अर्थ है जैसे अ-नहीं, आ-अच्छी तरह, इ–गति, उ - और, ऋ - गति, लुगति, क सुख, ख आकाश, ग गति, च पुनः, ज उत्पन्न होना, झ नाश, त पार, थ -ठहरना, दा-देना, धाधारण करना, न नहीं, पा-रक्षा करना, भा— प्रकाश करना, मा-नापना, य -- -जो, रा-देना, ल- - लेना, वा- गति, स साथ और ह - निश्चय अर्थ रखता है । तीर्थंकर २४ हैं । वे हृदय कमल २४ दल हैं एवं २५वां म कणिका है । इसे प्रकारान्तर से यों भी कहा जा सकता है कि क से भ पर्यन्त चौबीस व्यञ्जन हैं एवं कर्णिका काम अनुनासिक है जो इन २४ दलों में अनुगुंजित है । योग शास्त्रानुसार नाभि कमल के १६ पक्ष हैं जो १६ स्वर रूप में प्रकाशमान हैं । " स्वयं राजन्ते इति स्वरा: " अर्थात् वे स्वयं प्रकाशमान हैं, सिद्ध हैं एवं व्यंजनात्मक (प्रकाशमान -- दृश्य - मान) संसार का आधार हैं । इन स्वरों के बिना व्यञ्जन अपूर्ण हैं, अनुच्चरणीय हैं । वैसे ही मुख में अष्टदल कमल है जो अन्तस्थ एवं ऊष्म रूप में ( य र ल व श ष स ह ) वर्णमालाओं में प्रसिद्ध हैं । इस वर्ण माला को शाश्वत ज्ञान का प्रतीक माना जाता है एवं ये प्राणिमात्र के लोक निर्माण एवं परलोक साधना में आधार भूत हैं। इनकी साधना के उपरान्त ही श्रुत सागर में अवगाहन किया जा सकता है। इसके महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है इमां प्रसिद्ध सिद्धान्त प्रसिद्धां वर्ण मातृकाम् । ध्यायेद्यः सत्रुताम्भोधेः पारं गच्छेच्च तत्फलात् ॥ अर्थात् जो ज्ञानी पुरुष वर्ण मातृका का ध्यान करता है वह अवश्य ही श्रुत सागर का पार पा सकता है । यही वर्ण माला या मातृका मंत्र शास्त्र, तंत्र शास्त्र तथा योग शास्त्र का मूल तुलसी प्रज्ञा २३६ ---- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 174