Book Title: Tulsi Prajna 1995 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ ॐ नमः सिद्धम् डॉ. सोहनलाल पटनी सभी धर्मों में सिद्ध पद का महत्त्व है । सिद्ध वर्ण भाषा व्याकरण के आधार पर स्वयं सिद्ध वर्ण है। यह उद्घोष किया गया है कि इहलौकिक एवं पारलौकिक सिद्धियां प्राप्त करने के लिये वर्ण मातृका की सिद्धि परमावश्यक है । वर्णमाला को ही यौगिक भाषा में मातृका कहते हैं। श्री सिद्धसेन सूरि विरचित सिद्ध मातृकाभिध धर्म प्रकरण के ६२वें श्लोक में कहा गया है सिद्धान्त तर्क श्रुत शब्द विद्या वंशादिकन्द प्रतिम प्रतिष्ठान् । अनादि सिद्धान् सुमनः प्रबन्धैः वर्णान् महिष्यामि जगत्प्रसिद्धान् ।।६२॥ "सिद्धान्त तर्क, श्रुत, शब्द एवं विद्याओं रूपी वंशों के आदि कन्द रूप में प्रतिष्ठित अनादि सिद्ध एवं जगत्प्रसिद्ध वर्णों की में श्लोक रचना रूप पुष्पों से अर्चना करता हूं।" __ यह मातृका अनादि है, अनन्त है। बुद्धिमान् पुरुषों के ज्ञानमय तेज का जनन परिपालन एवं विशोधन करने के कारण इसका माता के समान महत्त्व है। माता नानाविध कष्टों को सहन कर अपनी सन्तान को स्वहित परार्थ, इहलोक एवं परलोक के लिये तैयार करती है। मातका भी ज्ञान-विज्ञान का बीज रूप बन संसार की बद्ध एवं मुक्त आत्माओं को अपनी-अपनी भावनाओं के अनुरूप फलदायिनी होती है । भूमिति शास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार बिन्दु में से रेखा बनती है एवं रेखा में से वत। यह रेखा कला का प्रतीक है । संसार की समस्त भाषाओं की चित्रात्मकता बिन्दु एवं रेखा पर ही आधारित है। बिन्दु एवं कला के योग से जो भाव आकार ग्रहण करता है उसकी अनुगूंज नाद है जो अपने ध्वनि-सामर्थ्य से संसार के त्रिगुणात्मक रूप में संक्षोभ पैदा कर तदनुसार अमिचक्र का निर्माण कर साधक की भावनाओं को मूर्त रूप प्रदान करता है। यही वर्ण सिद्ध और मंत्रों में बीजाक्षर बन महत्त्वपूर्ण बनता है । श्री सिंहतिलक सूरि विरचित 'मंत्रराज रहस्य' में लिखा है-- षोडष चतुरधिविंशतिरष्टौ नाभी दलानि हृदि मूनि । आधं हान्तं वर्णाः शरदिन्दुकला नभः प्रभवाः ॥४४५।। अर्थात् बिन्दु एवं कला में से उत्पन्न अ से ह पर्यन्त ४९ वर्णों का चिन्तन करना चाहिए। इन अ से ह पर्यन्त के वर्गों में क से म तक २५ व्यञ्जन अ से अः तक के १६ स्वर एवं य से ह पर्यन्त के ८ अन्तस्थ एवं ऊष्म आ जाते हैं। वर्गों के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए ऋग्वेद में कहा गया है खाद २१, बंक ३ २३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org

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