Book Title: Tulsi Prajna 1994 01
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ अर्थ की सूचना देने के लिए चूलिका का और अल्पतम व अल्पतमकालीन अर्थ के सूचनीय होने पर अङ्कावतार का प्रयोग करना चाहिए । ____ अर्थप्रकृतियों के लक्षण एवं नियोजन आदि के सम्बन्ध में उन्होंने बिल्कुल मौलिक ढंग से चिन्तन करने का प्रयास किया है। धनंजय आदि ने अर्थप्रकृतियों को प्रयोजन-सिद्धि का हेतु कहा है। जबकि नाट्यदर्पणकार ने उन्हें उपाय की संज्ञा से अभिहित किया है। उन्होंने अर्थप्रकृतियों का एक नवीन विभाजन भी प्रस्तुत किया है, जिसके अनुसार ये उपाय दो प्रकार के होते हैं---अचेतन और चेतन। बीज और कार्य अचेतन हैं जबकि विन्दु, पताका एवं प्रकरी चेतन उपाय हैं। नाट्यदर्पणकार की सर्वाधिक उल्लेखनीय मौलिकता अर्थप्रकृतियों के प्रयोग-क्रम में दृष्टिगत होती हैं। भरत ने इनका उल्लेख इस प्रकार किया है-बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य । परवर्ती आचार्यों ने भी उन्हीं का अनुकरण किया है । परन्तु नाट्यदर्पणकार ने उन्हें बीज, पताका, प्रकरी, बिन्दु और कार्य-इस क्रम से उल्लेख करके उनके यथारुचि प्रयोग का निर्देश किया है। उनकी दृष्टि में न तो इनका औद्देशिक निबन्धन-क्रम है और न सभी का प्रयोग ही अवश्यम्भावी है। रूपककार अपनी आवश्यकता एवं इच्छानुसार इनमें से किन्हीं का और किसी भी क्रम से उपयोग कर सकता है । उसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह नाट्य में इनका प्रयोग इसी क्रम से करे । प्रत्येक नाटक में पताका और प्रकरी का प्रयोग भी अवश्यंभावी नहीं है क्योंकि इनकी योजना तभी की जाती है, जब नायक को अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु किसी सहायक की आवश्यकता प्रतीत होती है। पताका और प्रकरी के लक्षणों के सम्बन्ध में भी नाट्यदर्पणकार के विचार बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । धनञ्जय आदि ने उन्हें प्रासङ्गिक इतिवृत्त के ही दो भेद माना है। परन्तु नाट्यदर्पणकार ने नायक के सहायक एवं उससे सम्बद्ध वृत्त को पताका कहा है । वस्तुतः ऐसा किये बिना पताका को अर्थप्रकृति का प्रकार ही नहीं माना जा सकता है। उन्होंने पताका और प्रकरी का लक्षण इस प्रकार दिया है.---- __ आविमर्श पताका चेच्चेतनः स परार्थकृत् ।२५ अर्थात् जो चेतन हेतु अपने स्वार्थ के लिए प्रवृत्त होने पर भी दूसरे अर्थात प्रधान नायक के प्रयोजन को सिद्ध करता है, वह प्रधान नायक की प्रसिद्धि एवं प्राशस्त्य का हेतु होने से पताका सदृश गौणरूप से पताका कहलाता है। नाटक में गर्भ या विमर्श सन्धि पर्यन्त पताका नायक का चरित्र समाप्त हो जाता है अथवा वहीं तक उसके अपने फल की सिद्धि हो जाती __ प्रकरी चेत् क्वचिद्भावी चेतनोऽन्यप्रयोजनः ।" तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186